जाड़ों का मौसम

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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

सोनपाँखी


आज एक अंतराल के बाद – लगभग पाँच माह के बाद लिखने बैठी तो समझ नहीँ पा रही कि कहाँ से शुरू करूँ । वो वक्त जो बीत गया , मेरे मनपसन्द फल ‘कीवी ’ की तरह था - - बाहर से हरा पर रूखा - - भीतर से अपनी सरस हरियाली के साथ , नज़रिया (शिशुओँ को नज़र से बचाने के लिए हाथोँ मेँ पहनाए जाने वाले आभूषण ) से कई काले-काले मोती के नन्हे-नन्हे दाने लिए - - खट्टे–मीठे स्वाद से भरा । यूँ तो जीवन अपनी समग्रता मेँ ऐसा ही होता है । हमने जाना है कि खट्टे पलोँ मेँ - कोई आलौकिक शक्ति कहेँ या अपनोँ की सदभावनाएँ , प्रार्थनाएँ - ऐसी ‘नज़रिया ’ बाँध जाती हैँ कि खट्टेपन का एहसास कम और मीठेपन की मिठास ज़्यादा घुली रहती है जीवन मेँ । तो आज ब्लॉग का शुभारम् , उसी गुड़ की डली के ज़िक्र से करती हूँ जिसकी मिठास नेँ वेनकुवर (केनेडा ) की ठँड को भारत की मनभावन शरद ऋतु की नर्म गर्माहट मेँ बदल दिया था । आज वो नन्ही सी सोनपाँखी – हमारी पहली पोती - पाँच माह की हो गई – वो परदेस मेँ चिनारोँ की छाँव मेँ है और हम पीपल तले उसकी यादोँ को सहेजे - देस मेँ ।

* * * * *


उस दिन जब वेनकुवर के शरद की पनीली ठँडी धूप लौट कर वापस जाने लगी ,

और साँझ की साँवली–सलौनी ऊँगली पकड़ चाँदनी चिनारोँ से उतर, नीचे आने लगी ।

जाने कहाँ से आकर मेरे आँगन को मोतिया–चमेली की मीठी सुगँध महकाने लगी ,

जिस पल मेँ उन नन्हे कोमल गुलाबी पैरोँ की मौन आहटेँ कई ख़्वाब जगाने लगी ।

नाज़ुक पँखुड़ियोँ से होठोँ की शहद घुली मुस्कराहट खुशियोँ के मेले सजाने लगी ,

शरारत भरे पारदर्शी नयनोँ की अनोखी चमक ये नई एक दुनिया रचाने लगी है

आज फागुनी बयार खिलखिलाकर मेरे सहेज कर रखे सारे रंग बिखराने लगी ,

मेरी सोनपाँखी ,हे ओजस्वी ! तेरी आभा मेँ रंगी ऋतुराज की माया हमेँ भाने लगी ।

2 टिप्‍पणियां:

Ashutosh ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Ashutosh ने कहा…

Sonpankhi ka Dadi ko Pranam.

Narm saparsh un hatthon Ka
Ek mithi si aawaj
Payar se bhari loriyan
Udne wale ghoday ke saath
Bachpan se umar tak Rahega
Dadi aapke Dulaar ka Ehsaas

Aapki Ojasvi Aabha Ashutosh