जाड़ों का मौसम

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शनिवार, 9 जुलाई 2011

चुप्पी का अर्थ

आज के परिवेश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठती हर आवाज़ को समर्पित  है मेरी कविता :-------

सच के सूरज की उष्मा भरी दमकती रौशनी  ,
झूठ के बालुकणों की जलती - बुझती चमक ,
दोनों के बीच का अंतर - - -समझाने नही ,
आँखें खोल कर, देख कर- - समझने की बात है |
पर; ना जाने क्यों ! मेरे युग के लोग  /कुछ लोग
ज़रा सा अधिकार मिलते ही क्यों भूल जाते हैं - -
- -कि - - हर चुप्पी का अर्थ - आदर नहीं होता ,
और - - ना ही हर चुप्पी - डर का पर्याय होती है |
आज तुम जितना चाहो - - धमका कर  बोलो !
 गलत को जबरन - सही बनाने की  कोशिश करो
पर - - जिस घड़ी - -  सच के होंठों पर लगे
बेबसी के - - चुप्पी के- - ये ताले टूट जायेंगे |
तब - - निर्णय के उस क्षण में- - महाराजा परीक्षित की तरह,
अपने को - -  महलों  की मोटी - मोटी अभेद्य दीवारों ,
मन्त्रों या अंगरक्षकों के संरक्षित घेरे  के पीछे भी छुपाना चाहोगे
तो भी ऋषि श्रृंगी के गले में ज़बरदस्ती पहनाया गया
मरे साँप सा तुम्हारा अहंकार - - तक्षक - -   बनकर
तुम्हारे पूरे अस्तित्व को मिटा कर ही दम - - लेगा | |    

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