आज के परिवेश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठती हर आवाज़ को समर्पित है मेरी कविता :-------
सच के सूरज की उष्मा भरी दमकती रौशनी ,
झूठ के बालुकणों की जलती - बुझती चमक ,
दोनों के बीच का अंतर - - -समझाने नही ,
आँखें खोल कर, देख कर- - समझने की बात है |
पर; ना जाने क्यों ! मेरे युग के लोग /कुछ लोग
ज़रा सा अधिकार मिलते ही क्यों भूल जाते हैं - -
- -कि - - हर चुप्पी का अर्थ - आदर नहीं होता ,
और - - ना ही हर चुप्पी - डर का पर्याय होती है |
आज तुम जितना चाहो - - धमका कर बोलो !
गलत को जबरन - सही बनाने की कोशिश करो
पर - - जिस घड़ी - - सच के होंठों पर लगे
बेबसी के - - चुप्पी के- - ये ताले टूट जायेंगे |
तब - - निर्णय के उस क्षण में- - महाराजा परीक्षित की तरह,
अपने को - - महलों की मोटी - मोटी अभेद्य दीवारों ,
मन्त्रों या अंगरक्षकों के संरक्षित घेरे के पीछे भी छुपाना चाहोगे
तो भी ऋषि श्रृंगी के गले में ज़बरदस्ती पहनाया गया
मरे साँप सा तुम्हारा अहंकार - - तक्षक - - बनकर
तुम्हारे पूरे अस्तित्व को मिटा कर ही दम - - लेगा | |
सच के सूरज की उष्मा भरी दमकती रौशनी ,
झूठ के बालुकणों की जलती - बुझती चमक ,
दोनों के बीच का अंतर - - -समझाने नही ,
आँखें खोल कर, देख कर- - समझने की बात है |
पर; ना जाने क्यों ! मेरे युग के लोग /कुछ लोग
ज़रा सा अधिकार मिलते ही क्यों भूल जाते हैं - -
- -कि - - हर चुप्पी का अर्थ - आदर नहीं होता ,
और - - ना ही हर चुप्पी - डर का पर्याय होती है |
आज तुम जितना चाहो - - धमका कर बोलो !
गलत को जबरन - सही बनाने की कोशिश करो
पर - - जिस घड़ी - - सच के होंठों पर लगे
बेबसी के - - चुप्पी के- - ये ताले टूट जायेंगे |
तब - - निर्णय के उस क्षण में- - महाराजा परीक्षित की तरह,
अपने को - - महलों की मोटी - मोटी अभेद्य दीवारों ,
मन्त्रों या अंगरक्षकों के संरक्षित घेरे के पीछे भी छुपाना चाहोगे
तो भी ऋषि श्रृंगी के गले में ज़बरदस्ती पहनाया गया
मरे साँप सा तुम्हारा अहंकार - - तक्षक - - बनकर
तुम्हारे पूरे अस्तित्व को मिटा कर ही दम - - लेगा | |
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