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बुधवार, 13 जून 2012

अपनेपन का जादू


12 जून 2008 -वेनकुवर ; केनेडा की धरती पर यही तारीख़ थी परन्तु भारत में तेरह जून थी इसीलिए उस समय जब मैनें अपने देश से कई समन्दरों  की दूरियों के पार  बसे इस परदेस की ज़मीन पर पहली बार पाँव  रखा तो मेरे भीतर के कौतुहल ,झिझक ,उत्कंठा के मिलेजुले भावों ने कंपकपाते हाथों में कलम थमा कर जो कुछ लिखवाया था, उसे बिना किसी बदलाव के यहाँ लिख रहे हैं । आज चार बरस बाद , फिर से बर्नबे ,ग्रोउज़ पर्वत , विस्लर ,कैपिलेनो ,इनुक्शुक ,गौन्डोला ,नदियों व झीलों में परिवार के साथ बिताए वक्त को  ताज़ा करने को जी चाहा ! !  क्यों ?? शायद यही तो वो जादुई चिराग़ है हमारे हाथ में जो हमारे जीवन के कठिन पलों को आसान बना देता है । ज़िन्दगी की जद्दोजहद  में, उलझे पलों की झुलसाती तपिश को  गुज़रे वक्त की ठंडी पुरवाई से शीतलता देने की इच्छा जब भी हम अपने भीतर शिद्दत से महसूस  करते हैं तब -और कोई  चारा  भी तो नही बचता। 
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अपने देश की सौंधी -सौंधी मिट्टी  से रची ,                                    
अपनेपन की ऊष्मा भरी ऊँगली  पकड़ कर ,
आषाढ़ के श्वेत- श्याम   बादलों पर
धीमे-धीमे पाँव  रखते -रखते मैं पहुँच  गई 
दुनिया के इस ------------- - छोर पर ।
पैरों तले प्रशांत सागर था ? या -क्षीर सागर !!
नही जानती  - - बस  इतना जानती हूँ  - - -;
आषाढ़ के मेघों का राज्य - - -आकाश से- - -
धरती तक - - इस तरह फैला था कि  ! ! ! ,
ज़मीन  कहाँ ग़ुम  हो गई  ? -नही  जानती !
बस- - - इतना ही याद  है -मुझे  - कि - जब - 
धरती मिली - तो - एक जादू  सा हुआ तब 
हर रात सपनों में - जिन चेहरों को - -
ऊँगलियों से छूकर भी छू नही पाती थी ,
वे मेरे अपने - - मेरे हृदय के धडकते  कोमल स्पन्दन 
मेरे इतने पास थे कि मैनें - कई - कई बार आँखों से ,हाथों से उन्हें छुआ ।
पानी की लहरों से उतर कर धरा पर पाँव रखते ही हर सपना सच हुआ ।।
चिनार के सिन्दूरी ,हरे ,पीले रंग इन्द्रधनुषी  हो सब ओर बिखर गये ,
अपनेपन की महक  ने उस पल, मेरे शब्दों को दिए कितने ही अर्थ नये ।। 





1 टिप्पणी:

Anil Kumar Dubey ने कहा…

life will be always beautiful.....only for those who knows how to celebrate it. Thanks for making me remind of my beautiful dreams where I alongwith my life stands in between the earth and sky to have the feeling of touching the clouds with my fingers.