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शनिवार, 30 जून 2012

सामाजिक सरोकार - देवशयनी एकादशी का ! !


 आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी अर्थात देवशयनी एकादशी है ।कहा जाता है की इस दिन  नारायन अपने वैकुण्ठ धाम में नहीं क्षीर-सागर में शेषनाग की शय्या पर विश्राम करने जाते हैं और फिर चातुर्मास तक वहीं विश्राम कर कार्तिक शुक्ल एकादशी को जागते हैं । चतुर्मास में सन्यासियों के लिए एक ही स्थान पर रह कर स्वाध्याय व उस स्थान विशेष के सभी जनों की जिज्ञासाओं को शांत करने और गृहस्थों के लिए विवाह आदि शुभकार्यों को न करने की मान्यता है । बचपन से ईश्वर के थक कर सोने की बात कभी भी हमारे गले नही उतरती थी । माँ के आगे बेशक आदरवश चुप रहते थे पर - - सर्वशक्तिमान ईश्वर के शंखासुर नामक राक्षस को मारने के परिश्रम से थकने पर चार महीनों के आराम से हमारी विद्यालय की डेढ़ महीने की गर्मी की व दीवाली की सप्ताह भर की छुट्टियों से जोड़ना हमें कतई नहीं भाता था ,हमेशा सोचते हम छोटे-छोटे बच्चों को ढेर सारे गृह-कार्य के साथ लगभग दो महीने की छुट्टी और इतने बड़े भगवान जी को बिना गृह कार्य के चार महीनों  का इतना लम्बा अ -व - का  - श   - - -???
      इस बार मानसून के दिल्ली में देर से आने और बच्चों की छुट्टियाँ एक सप्ताह के लिए बढ़ाने की सरकारी घोषणा ने आज बरसों पहले के सवाल के सामने लाकर खड़ा कर दिया। मानव-जाति की स्वार्थपरक मानसिकता से ऊपर उठ कर विश्व में सर्वप्रथम "वासुधैव कुटुम्बकम" की घोषणा करने वाली भारतीय संस्कृति में ऐसी मान्यता ? मुझे याद आई; दिन में पूजे जाने वाले पीपल के पेड़ पर रात में भूत होने की बात को अंधविश्वास कहकर सीधे -सादे लोगों का मज़ाक उड़ाने वाले उन दंभी लोगों की, जिन्हे  हमारे पूर्वजों का उपहास करते समय उनके सामाजिक  सरोकार को समझने का ना तो ध्यान था ना ही होश । ज़रा सा ध्यान से सोचें तो हम जान लेते हैं कि पीपल दिन के समय अधिक मात्रा में आक्सीजन और रात में अधिक कार्बन-डाई -आक्साईड देने वाले पर्यावरण के संतुलन को अक्षुण रखने वाले पीपल के संरक्षण के साथ-साथ मनुष्य के सन्दर्भ में उससे जुड़ी सावधानी के वैज्ञानिक पक्षों को हमारे पूर्वजों नें किस सहजता से आम आदमी के जीवन में उतारा कि  वो आज भी उसे कथनी व करनी दोनों रूपों में स्वीकार किए हुए है - -और किताबों के बोझ तले दबाने के बाद भी आज ज्ञान का कितना अंश ज्ञानार्थी तक पहुँचता है और व्यवहार में कितना प्रयुक्त होता है ? इस सच को हम सब जानते हैं ।

            मेरा यह निश्चित मत है कि यदि हम वैज्ञानिक सत्य को जानने के लिए पश्चिमी जगत का मुँह  ताकने की आदत पर गर्व पर भारतीय दृष्टिकोण की वैज्ञानिकता को नकारते रहे तो भावी पीढ़ी के पैरों तले बिछी तर्क और विचारों की पुश्तैनी उपजाऊ ज़मीन खींच लेंगे । ठीक वैसे ही जैसे  वैदिक गणित के देवनागरी अंकों को नकार कर "अरेबिक नम्बर्स"  को अपनाना आवश्यक  घोषित कर, भारत की नई पीढ़ी को उनकी महान विरासत से जुड़ने का मौक़ा ही ना दें । नई पीढ़ी कभी ये जान ही ना पाए कि पहली कक्षा से वे जिन अंकों अर्थात अरेबिक नम्बर्स को सीखते हैं उनको आज भी अरब में " हिन्दसा " अर्थात  ' हिन्द  से आया हुआ ' तथा सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ को" मुहन्दिस " कहा जाता है । अरब के महान  गणितज्ञ " मुहम्मद इब्न ज़ुबेर" ने भारतीय बीजगणित  के ग्रन्थों का अनुवाद अरबी किया ,यही अन्य देशों में अलज़ेबरा कहलाया। एक लम्बी सूची है- ज्योमिति, त्रिकोणमिति आदि की भी। पर मैं जानती हूँ, विदेशी ठप्पा लगे बिना स्वदेशी को अपनाने का अपने देश में रिवाज़ नही (योग;जब तक योगा नही बना-तब तक कितनों ने अपनाया था?)  इसलिए यूनेस्को जिन आर्यभट(४७६ ई0.से ४२१ई0) की १५०० वीं जयंती मना चुका | भास्कराचार्य ; जिन्होंने न्यूटन से पाँच सौ वर्ष पहले गुरूत्वाकर्षण -सिद्धांत का प्रतिपादन अपने ग्रन्थ सूर्य -सिद्धांत में कर दिया था, उनके ग्रन्थ लीलावती के विश्व की अधिकांश भाषाओं में अनुवाद , वेदों के शून्य (0 / ज़ीरो ) तथा  वायु -पुराण में प्रयुक्त :---- -   १,00.00 ,00 ,00,00,00,00,000 के लिए एक' परार्ध' और उसके दस गुना को 'पर' की संज्ञा दिए जाने के सत्यों के साथ-साथ वैदिक गणित और देवनागरी अंकों का महत्व हम प्रसिद्ध आस्ट्रेलियाई गणितज्ञ ए.एल.बाशम के The Wonder that was INDIA  की इन पंक्तियों से सहज ही आँक सकते हैं | "The world owes most to India in the realm of mathematics ,which was developed to a stage more advanced than that reached by any other nation of antiquity "
                   खैर -  -   -  -
               हम  अपने मूल विषय, " देवशयनी एकादशी " पर आते हैं । मुझे इस दिन और चतुर्मास का सत्य , धार्मिक से अधिक सामाजिक सरोकार से जुड़ा दिखाई देता है   देव- शयनी एकादशी की कथा नारायन के क्षीर-समुद्र में शयन  की धारणा से जुड़ी है | पुराणों के अनुसार , नारायन शब्द नारा +आयन शब्दों के मेल से बना है | इस अवधारणा में मुझे प्राणी-जगत की सृष्टि का वैज्ञानिक रूप स्पष्ट दिखाई देता है  क्योंकि  नारा का अर्थ जल और आयन का अर्थ है विद्युतिकृत परमाणु (Electrified Atom) | तात्पर्य यह है कि नारायन का शयन ; आषाढ़ माह में धरती की सतह और उसके नीचे के उन जीवन की ऊर्जा से भरे परमाणुओं की ओर ध्यान दिलाता है जिन में आने वाले श्रावण और भादों के महीनों की वर्षा नये प्राणों का संचार करेगी | आश्विन व कार्तिक मास पेड़-पौधों व कीट-पतंगों को पुष्ट कर वातावरण के अनुरूप ढलना सिखा देगा | कार्तिक की एकादशी तक के चार महीनों में, सन्यासियों की यात्रा के विराम और विवाह समारोहों के निषेध से, धरती पर लोगों की आवाजाही कम होगी जिससे  कोमल वनस्पतियों-पौधों तथा जीवों-कीटों का संसार बिना किसी बाधा के पनपेगा -पर्यावरण संतुलन का इतना सुंदर संदेश हमने भुला दिया ! आज हम मानते हैं कि प्रकृति में छोटे से छोटा जीव भी धरती के पर्यावरण-संतुलन में अपनी विशिष्ट भूमिका को निभाता है |
          अपने पूर्वजों के ज्ञान के सार को समझ कर , जीवन में अपनाने की जगह , हमने अपने पूर्वजों द्वारा दिए प्रतीकों की मूर्तियाँ बना कर अपने कर्म की इतिश्री मान ली | आयुर्वेदाचार्य धन्वन्तरी के ज्ञान का स्थान धनतेरस के गहनों-आभूषणों ने ले लिया और नारायन के शयन का, थक कर सोये भगवान  की निद्रा ने |   देवशयनी एकादशी के बाद भारत के विभिन्न प्राँतों के लोकजीवन से जुड़े त्योहारों को देखें तो उनमे भी पर्यावरण और प्राणी जगत के संरक्षण का संदेश साफ़ सुनाई देता है | इन पर्वों में आज भी गेरू से घर की दीवारों पर लोकशैली में जो चित्र उकेरे जाते हैं उनसे भी इसी सत्य की पुष्टि होती है | नाग पंचमी को घर के दरवाज़े के दोनों ओर दो नाग और पूजा स्थल पर पाँच फन वाले पाँच नाग बनाए जाते हैं ,इस दिन भूमि खोदना मना होता है | कजरी नवमी को ,गेहूँ या जौ बोए जाते हैं जिसे कजरी कहते हैं | जहां कजरी रखी जाती है वहाँ दीवार पर देवी ,घर ,बच्चे समेत पलना ,नेवले का बच्चा और स्त्री का चित्र हल्दी से बनाए जाते हैं |अहोई अष्टमी को सेही और उसके बच्चों को चित्रित किया जाता है |वत्स -वंश या बछ्वांस में गाय-बछड़े की पूजा की जाती है | हर-छठ या ललई-छठ को कही जाने वाली कथा दो कुत्तों के साथ हुए अच्छे और बुरे व्यवहार के कारण दो स्त्रियों के जीवन में आए परिणाम को दर्शाती है | गाजबीज पूजा की कथा में गाय ,बछिया को खाना खिलानेवाली माँ के वर्षा में भीगते ,पेड़ के नीचे खड़े बेटे का आकाश से गिरने वाली बिजली से बचाव हो जाता है | आश्विन कृष्ण अष्टमी की व्रत-कथा में शंखचूर्ण सर्प की गरुड़ से रक्षा करने के लिए राजा जीमूतवाहन का स्वयं को भेंट चढ़ाना और उस बलिदान को देख गरुढ़ का हृदय परिवर्तन | अन्नकूट में गोवर्धन पर्वत ,वत्स -वंश या बछ्वांस में गाय-बछड़े की पूजा की जाती है | उगते सूर्य की पूजा तो सारा जगत करता है पर भारतीय समाज सूर्य-षष्ठी को डूबते सूर्य को अर्घ्य देकर धरती को प्राण देने वाले ऊर्जा के स्रोत  के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित करता है | कार्तिक शुक्लपक्ष की देवोत्थानी एकादशी को कई प्राँतों में ईख के खेतों में जाकर इक्षु अर्थात ईख की पूजा की जाती है |नारायन के जागने का यह दिन कई प्राँतों में  तुलसी विवाह के त्यौहार के रूप में मनाया जाता है |
                संक्षेप में कहें तो देव-शयनी एकादशी से देवोत्थानी एकादशी तक फैला चतुर्मास का समय- हमारे पूर्वजों के उस सामाजिक सरोकार की घोषणा करता है जिसमें मानव समाज को प्रकृति के हर उपादान ,हर तत्व के प्रति कृतज्ञता व सम्मान प्रदर्शित करने की प्रेरणा दी गई है |
                   
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