जाड़ों का मौसम

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मंगलवार, 16 दिसंबर 2014

बचपन के खून से सने हाथों वाला वहशत भरा दिन !

आज की ठंडी, सुबकती सुबह, जब कोहरे के सफ़ेद दुशाले में लिपटी आई, 
तो लगा कि 'निर्भया' की दिल को दहलाती यादें, उसे भी ग़मगीन कर गई हैं। 
हालात बदलने के सारे हौसलों-हिम्मतों की उफ़नती गंगा के पानियों को,
क्या जाने किन बेपरवाहों की ख़ुदगर्ज़ बदनीयती, खारी झील में बदल गई हैं।
आज की ठंडी,सुबकती सुबह, दिन में बदली तो पड़ोसियों की ऐसी ख़बर आई,
जो दूर औ' पास बसे दिल की हर धड़कन को बेइंतहा दर्द-ओ-ग़म से भर गई है ।। 
आज भी रोज़ की तरह, स्कूल जाते बच्चों का मीठा-मीठा सा शोर है घर-घर में,
आज भी चॉकलेट के वादे पर पापा की नन्ही परी दूध का गिलास खाली कर गई है।
आज भी रोज़ की तरह, लाडला बेटा रूठा-रूठा सा परेशान है इम्तिहान के कारण,
आज भी माँ फिर दही-चीनी खिला,माथे को चूमकर कितने आशीष  बरसा कर गई है।
रानी बेटी और राजा बेटा बनाने की ख्वाहिशों को जतन से संवारने की कोशिशों में,
घर-बाहर की अपनी ज़िन्दगी की कितनी ज़रूरते, जानबूझ कर बिसरा दी गई हैं।। 
नन्हे-नन्हे काँधों पे किताबों का बोझ संभालते,  खिलखिलाते हुए चेहरों की रौशनी,
तेरी-मेरी या एक कौम की नहीं, हम सबकी साँझी विरासत सदियों से करार दी गई है।
जाने किस धर्म की ,किस दीन की इबादत में जुटी है वहशियों की ये दहशतगर्द भीड़,
मासूमों को गोलियों से भूनकर जतलाया है इन्होनें कि आज इन्सानियत मार दी गई है।
ऐ अमन की बातें करने वालों !हम बच्चे हैरान हैं,परेशान हैं, भूल कौन सी हुई हमसे ?
सज़ा देने से पहले बताया नहीं कि क्यों हमें स्कूल की वर्दी की जगह कफ़नी पहना दी गई है ??
इन्सानियत के माथे से रिस्ते हुए बदनुमा नासूर से मुट्ठीभर लोगों के जिहाद के जूनून में  ,
मासूम फ़रिश्तों के पवित्र खून से खुदा की  इबादतगाह ; स्कूल की धरती लाल कर दी गई है।
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1 टिप्पणी:

Anil Kumar Dubey ने कहा…

aapney sahi kaha insaniyat ke dushman ye deshatgard itney nirdeyi ho saktey he ye kisi ne soch bhi na tha. hum appsey pur tarah sahmat he