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शनिवार, 29 जुलाई 2017

तुलसी जयंती: भारतीय संस्कृति के पुरोधा तुलसीदासजी !!

 भारतीय संस्कृति के अमर पुरोधा तुलसीदास जी की लेखनी ने रामभक्ति की मंदाकिनी की पावन धारा से इस धरा पर आध्यात्मिक , नैतिक व मानवीय मूल्यों की  ऐसी सृष्टि की है कि देश-काल की सीमा को लांघकर , केवल शिक्षित वर्ग में ही नहीं अक्षरज्ञान से वंचित जन-जन के मानस में भी इसकी छाप अमिट रही है और भविष्य में भी सर्वदा रहेगी । 
कवि त्रिकालदर्शी होता है तभी तो अपने समय में सज्जन और दुर्जन / संत असंत की जो व्याख्या गोस्वामी तुलसीदास जी नें अपने समय में की थी वही  परिभाषा वर्तमान में भी चरितार्थ हो रही है।  तुलसी दासजीअपने लोकविश्रुत, विश्वविख्यात ग्रंथ "रामचरित मानस " के 
' सुंदरकांड ' के वर्षाऋतु वर्णन में  कहते हैं :--
हरित भूमि तृण संकुल  ,  समुझि परहि नहिं पंथ।
जिमि पाखंड विवाद तें ,  लुप्त होहिं सदग्रंथ     ।।
अर्थात  वर्षाऋतु में घासफूस की अधिकता के कारण रास्ता दिखाई नहीं देता ठीक वैसे ही जैसे पाखंड-विवाद (असत्य व वितंडावाद ) के कारण सदग्रंथ के सत्य को समझना असंभव होता है। 
अपने एक ओर दृष्टांत द्वारा वे स्पष्ट करते हैं ;--------
उपजहि एक संग जग माहीं ,जलज जोंक जिमि गन बिलगाहीं। 
सुरा सुधा सम साधु असाधू  ,जनक एक जग जलधि अगाधू।।
संत और असंत दोनों ही संसार में एक साथ जन्म लेते हैं पर कमल और जोंक ही की भांति दोनों की प्रवृति भिन्न -भिन्न होती है। एक ही जल से उत्पन्न होने पर भी कमल का दर्शन सभी के लिए सुखकारी होता है और जोंक दूसरों का रक्त चूसने की आदत के कारण दुखदाई लगती है। इस संसार-सागर से उत्पन्न, एक ही परमपिता की संतान होने पर  संत और असंत के स्वभाव और प्रभाव में सुधा और सुरा के समान अंतर होता है। 
महान भक्त गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म के विषय में सर्वमान्य धारणा है ; " पंद्रह सौ चौवन विषै ,कालिंदी के तीर। 
                  सावन सुक्ला सप्तमी ,तुलसी धरेउ शरीर।। "
श्रावण -शुक्ला -सप्तमी को जन्मे गोस्वामी जी की सकारात्मक चिंतन शीलता ,विचारात्मकता सर्वत्र मंगल का विधान करे !!
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