tag:blogger.com,1999:blog-71706051508981596922024-03-17T20:01:26.682-07:00देवगीतसमसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.comBlogger249125tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-25075255054346191522024-02-17T19:44:00.000-08:002024-02-21T01:22:15.063-08:00कालजयी दिगम्बर संत आचार्य विद्यासागर जी के महाप्रयाण पर विनम्र श्रद्धाँजलि ।<div><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEi4hRYQlxzvHJUlKKpZ7BKDq3Atgexc_1PZwYCXvPyio3jEioNtw3waSOsKgxe-PIPmtPlBijYbYE6_RMw0b1ABJ9YqZAm270v8TvAxXYf17dViobqfZoEFT8-qsfLIlPydxB7kv3m64Lpq8S_O640zJ_WKxQcibBfs5AvYFqyzoTgD_rq3c61urHIiLZc"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEi4hRYQlxzvHJUlKKpZ7BKDq3Atgexc_1PZwYCXvPyio3jEioNtw3waSOsKgxe-PIPmtPlBijYbYE6_RMw0b1ABJ9YqZAm270v8TvAxXYf17dViobqfZoEFT8-qsfLIlPydxB7kv3m64Lpq8S_O640zJ_WKxQcibBfs5AvYFqyzoTgD_rq3c61urHIiLZc" width="400">
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</div><div><div>दिगम्बर परम्परा के जिनेन्द्र आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के महासमाधि लेने पर विनम्र श्रद्धासुमन 🌷🌷</div><div><br></div><div>"आदिम ब्रह्मा,</div><div>आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से</div><div> प्रदर्शित पथ का</div><div>आज अभाव नहीं है माँ ! </div><div>परन्तु - - - - </div><div>उस पावन पथ पर</div><div>दूब उग आई है! </div><div>खूब वर्षा के कारण नहीं, </div><div>चारित्र से दूर रह कर</div><div>केवल कथनी में</div><div>करुणा रस घोल</div><div>धर्मामृत-वर्षा करने वालों की </div><div>भीड़ के कारण !"</div><div>माटी की मूकता को वाणी देकर कितने ही समसामयिक प्रश्नों के उत्तर देती आचार्यश्री की भारतीय साहित्य की विख्यात महाकाव्य " मूकमाटी " के उपर्युक्त शब्द, शायद इस कारण मेरे अंतस में उभरे क्योंकि मोक्ष के उस पथ को केवल कथनी नहीं कर्म से चरितार्थ करने वाले आदिनाथ की परंपरा वाले सच्चे पथप्रदर्शक -- पंचतत्वों में विलीन हो गए हैं। </div><div>२२ वर्ष की आयु में आचार्य ज्ञानसागर जी ने मुनि विद्यासागर को 'दिगंबर साधु' के रूप में दीक्षा दी थी। २६वर्ष की आयु में आचार्य बनने वाले विद्यासागर महाराज जी को हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान था जबकि उन्होंने शिक्षा कन्नड़ भाषा में प्राप्त की थी। कन्नड़ भाषी होते हुए भी विद्यासागरजी ने हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़, प्राकृत, बंगला और अँग्रेजी में लेखन किया है। उन्होंने 'निरंजन-शतकं', 'भावना-शतकं', 'परीषह-जय-शतकं', 'सुनीति-शतकं' व 'श्रमण-शतकं' नाम से पाँच शतकों की रचना संस्कृत में की है तथा स्वयं ही इनका पद्यानुवाद भी किया है। उनके द्वारा रचित संसार में सर्वाधिक चर्चित, काव्य प्रतिभा की चरम प्रस्तुति है- 'मूकमाटी' महाकाव्य। यह रूपक कथा काव्य, अध्यात्म, दर्शन व युग चेतना का संगम है। संस्कृति, जन और भूमि की महत्ता को स्थापित करते हुए आचार्यश्री ने इस महाकाव्य के माध्यम से भारतीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया है।</div><div><span>मैं, आचार्य प्रवर के ही शब्दों के माध्यम से, उनको शब्दांजलि अर्पित कर, उनके दिए संदेश को आत्मसात करने का प्रयास कर रही हूं।</span><br></div><div><div> मूकमाटी 📖</div><div>"इस मोक्ष की शुद्ध दशा में, </div><div>अविनश्वर सुख होता है ! </div><div>जिसे प्राप्त होने के बाद, </div><div>यहां संसार में आना </div><div>कैसे संभव है तुम ही बता दो ! </div><div>दुग्ध का विकास होता है ! </div><div>फिर अंत में घृत का विलास होता है। </div><div>घृत का दुग्ध के रूप में </div><div>लौट आना संभव है क्या? </div><div>तुम ही बता दो !"</div><div> दल की भाव भंगिमा देखकर </div><div>पुनः संत ने कहा कि</div><div>" इस पृथ्वी पर भी </div><div>यदि तुम्हें श्रमण साधना के विषय में </div><div>और अक्षय सुख के संबंध में</div><div> विश्वास नहीं हो रहा हो </div><div>तो ---- फिर अब </div><div>अंतिम कुछ कहता हूं कि </div><div>क्षेत्र की नहीं, </div><div>आचरण की दृष्टि से </div><div>मैं जहां पर हूं वहां आकर देखो मुझे।</div><div> तुम्हें होगी, मेरी सही-सही पहचान। </div><div>क्योंकि ऊपर से नीचे देखने से </div><div>मुझे चक्कर आता है और - - </div><div>नीचे से ऊपर का अनुमान </div><div>लगभग गलत निकलता है। </div><div>इसलिए इन शब्दों पर विश्वास लाओ। विश्वास की अनुभूति मिलेगी। </div><div>अवश्य मिलेगी, मगर---- </div><div>मार्ग में नहीं, मंजिल पर।" </div><div>और महा-मौन में डूबते हुए संत</div><div>---- और माहौल को, </div><div>अनिमेष निहारती - सी </div><div>---- मूक माटी। </div><div> *****आचार्य विद्यासागर।</div><div>संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के कालजयी विचार, उनका दर्शन सदा सबका मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे। </div></div><div><div>इसी माह ११ फरवरी२०२४ को आचार्य विद्यासागर महाराज को 'गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड' द्वारा 'ब्रह्मांड के देवता' (God of the Universe) के रूप में सम्मानित किया गया था। </div><div>मैं इसे दिव्य संयोग मानती हूं कि वर्ष १९४६ की शरद पूर्णिमा को जन्मे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी नें चन्द्रगिरि तीर्थ पर देह त्याग किया। शनिवार १७ फरवरी को देर रात २.३५ पर उन्होंने छत्तीस गढ़ के डोंगरगढ़ स्थित चन्द्रगिरि तीर्थ में, तीन दिन के उपवास और मौनव्रत के बाद शरीर त्याग दिया। </div></div><div>🙏 अपनी दिव्यता से भूलोक को आलोकित करने वाले जिनेन्द्र आचार्य विद्यासागर जी महाराज के चरणों में <span>कोटि-कोटि नमन व विनम्र श्रद्धासुमन।</span><span>🌷🌷🌷</span></div></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-73898466791969928342024-02-13T19:35:00.000-08:002024-02-19T10:43:50.515-08:00वसंत-पंचमी : भारतीय सांस्कृतिक, ऐतिहासिक अस्मिता का दिवस। <div>ऋतुराज वसंत की पंचमी तिथि ; भारतीय जनजीवन में अनादि काल से वर्तमान युगों की अविस्मरणीय विरासत को सहेजे हुए है।</div><div> माघ मास की शुक्ल पक्ष की इस पंचमी को देवी सरस्वती के अवतरण की मान्यता के अनुसार इस दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती को समर्पित किया गया है। भारतीय आदिग्रंथ ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-</div><div>"प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।" </div><div>अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं।</div><div>सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। माँ सरस्वती के प्रकटोत्सव के रूप में वसंत पंचमी के पावन पर्व को मनाया जाता है ।</div><div>देवी सरस्वती का वर्णन वेदों के मेधा सूक्त में, उपनिषदों, रामायण, महाभारत के अतिरिक्त कालिका पुराण, वृहत्त नंदीकेश्वर पुराण तथा शिव महापुराण, श्रीमद् देवी भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण इत्यादि में मिलता है।</div><div> पौराणिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मांड के निर्माता ब्रह्माजी ने जीवों और मनुष्यों की रचना की। उन्होंने सृजित सृष्टि को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि ये सभी सृजन निस्तेज हैं । वातावरण में अत्यधिक नीरवता थी। कोई ध्वनि या वाणी नहीं थी। उस समय, भगवान विष्णु के आदेश पर, ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल छिड़का। धरती पर गिरे जल ने पृथ्वी को कम्पित कर दिया तथा एक अप्रतिम सुंदरी स्त्री एक अद्भुत शक्ति के रूप में, चार भुजाओं के साथ प्रकट हुई। वे देवी एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ वरमुद्रा धारण किए तथा अन्य दो हाथों में पुस्तक व सुमरनी माला थी। भगवान ने महिला से वीणा बजाने का आग्रह किया। वीणा के स्वरों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों एवं मनुष्यों को वाणी प्राप्त हुई। देवी सरस्वती ने वाणी सहित सभी आत्माओं को ज्ञान और बुद्धि प्रदान की यही कारण है कि भारत में चिरकाल से विद्यारंभ संस्कार के लिए यह दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। </div><div><section><div>माघ मास का विशेष धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व भी है। इस महीने तीर्थ क्षेत्र में स्नान का विशेष महत्व है। भक्त इस दिन गीत, संगीत और नृत्य कर उत्सव मनाते इस दिन का उद्देश्य, सृष्टि में नव चेतना और नव निर्माण के कारण हुए आनंद को व्यक्त करना और आनंदित होना है। कृषि प्रधान संस्कृत के कारण हम भारतीय, इस दिन नवान्न इष्टी यज्ञ भी करते है। इस दिन खेतों में उगाई गई नई फसल को घर में लाया जाता है और भगवान को अर्पित किया जाता है। इस दिन गणपति, इंद्र, शिव और सूर्यदेव की उपासना भी की जाती है। वसंत ऋतु में वृक्षों में नए पल्लव आते हैं। प्रकृति के इस बदलते स्वरूप के कारण मनुष्य उत्साही और प्रसन्नचित्त हो जाता है। यह पर्व सूर्य के संक्रमण का प्रतीक है। इस दिन कुंभ मेले में शाही स्नान होता है।</div></section></div><div>भारतीय जनमानस, अपने सांस्कृतिक पर्व के साथ-साथ लोक-चेतना में रची-बसी अनेक महान ऐतिहासिक विभूतियों को भी अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।</div><div>आईए आज के दिन के हर संदेश को आत्मसात कर कृतकृत्य हो जाएं। </div><div>🌼वसंत पंचमी ; बुद्धि, प्रज्ञा और समग्र कलाओं की देवी सरस्वती के अवतरण का पावन दिवस । </div><div> 🌼लोक परंपराओं में इस दिन को श्रीराम द्वारा दंडकारण्य में शबरी के प्रेम रस से भरे जूठे बेर खाने का अभूतपूर्व दिवस माना जाता है। </div><div>🌼भारतीय अस्मिता के रक्षक सम्राट पृथ्वीराज चौहान द्वारा अपने मित्र और राजकवि चन्द बरदाई के शब्दों "चार बांस चौबीस गज, अँगुली अष्ट प्रमाण। ता ऊपर सुल्तान है मत चूको चौहान।।" पर आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी पर शब्दभेदी बाण चलाना , (सोलह बार पराजित कर जीवनदान देकर) और... पृथ्वीराज-बरदाई का आत्मबलिदान दिवस।</div><div>🌼लाहौर में जन्मे वीर बालक हकीकत राय को माँ दुर्गा के अपमान के प्रतिरोध और धर्मपरिवर्तन को अस्वीकार करने के कारण१७३४ की वसंत पंचमी को लाहौर में मृत्युदंड दिया गया।चौदह वर्ष के बालक द्वारा धर्म के लिए दिए गए बलिदान को याद करते हुए उन्हे श्रद्धासुमन सुमन अर्पित कर उनके आकाशगामी शीश को याद कर आज भी पतंगें उड़ा कर उनकी स्मृतियों का स्मरण किया जाता है। </div><div>🌼मान्यताओं के अनुसार दशमेश गुरु गोविंद सिंह जी का विवाह वसंत पंचमी को हुआ था। </div><div>🌼गुरू रामसिंह कूका जी (कूका पंथ) जिन्होंने अँग्रेजी शासन के विरोध में अपनी प्रशासन व्यवस्था और डाक सेवा चलाई तथा स्वदेशी, गोरक्षा एवं देश के स्वाभिमान हेतु बलिदान दिया उनका जन्मदिवस (१८१६ई.की वसंत पंचमी ) । </div><div>🌼सरसों के पीले फूलों की चुनरी धरती को उढ़ाकर, ऋतुराज वसंत का स्वागत करने वाली ये पावन वसंत पंचमी सब ओर शुभता, समृद्धि और शान्ति लाए।</div><div> हम सब सम्राट पृथ्वीराज चौहान-चंद बरदाई, वीर बालक हकीकत राय, गुरु रामसिंह कूका जी के देश और धर्म-रक्षा के मार्ग पर सर्वस्व अर्पित करने वाले अमर बलिदान के सम्मुख नतमस्तक हो, श्रद्धासुमन अर्पित करें , श्रीराम-शबरी के पावन चरित्रों को नमन कर, निश्छल प्रेम की मर्यादा को अपनाने का प्रयास करें। उत्तरायण के सूर्य की सुनहरी किरणों से उभरते बसंती रंग की ऊर्जा---- देवत्व के गुणों, भक्ति और प्रेम के मकरंद और देश व धर्म के उच्चत्तम आदर्शों के लिए सर्वत्यागी बनने के शौर्य से परिपूर्ण वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ।</div><div>🙏डॉ स्वर्ण अनिल ।</div><div>🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼🌼<div>
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjvUKoT-mOrpgpXSrA3uvEesRYrhsdSzItce5ajyh7PoBKcZZTyhUbJC48LWJVvNTf1T_oZO6FF7g-c8kAlZIm3g9l5-rYJ1tmtHVyyvomDBimQLrgYJiqQdd48oqNPYAca4kCQyeqRhqRQCwzPiNbY192UaO5T-1wK7tohH-l6FmQabWPcOmpbkutNcvI" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-24407328197771791002024-01-14T10:45:00.000-08:002024-02-08T03:59:37.930-08:00'ढील तेरी बीर मोहिं पीर ते पिराती है' मेरी दुर्दांत पीड़ा और हनुमान बाहुक। <div><div>
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjmiiSs1pTDW2T7AWD1SliIPdQTEL2F567o-nQ24eaDbcy83ie471lJXcZ2UPQFip0rXca7p6cDsX6S13BFMk4JJo2rpYoDK1XQloqcTnIxJGA8QVippXBzMwFO2D29uyiB9GpGSYeUvqGFMq2Y22CJXLwNf1vlCwvHho5CmfD9fc1dWJ_6Ltdbw3DePSI">
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</div>दर्द का, पीड़ा का साहित्य से गहरा सम्बन्ध होता है।मानते हैं " वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान - - - - ।" सुमित्रानंदन पंत जी के इन शब्दों के सत्य को। परंतु हमारी व्याधि हमें संत शिरोमणि तुलसीदास के साहित्य तक इस तरह पहुंचाएगी! ये नहीं जानते थे। पूरी बात जानने के लिए मेरी तन मन को----" पीर से पिराती " यात्रा में थोड़ी दूर तो चलना ही होगा !! </div><div>बात २४ दिसंबर२०२३ की है। हमारी बांई ओर की पसलियों में तेज़ दर्द हुआ। फ्लेक्सोंन एम आर सुबह शाम लेनी शुरू की। २५ को दर्द के साथ दो तीन दाने (दर्द के साथ) के उरोस्थि(स्टेर्नम) के पास निकले।२६ को दाने बाईं ओर बढ़ने लगे। दर्द बढ़ा। सुबह लगभग ४ बजे के करीब उठने पर संतुलन बिगड़ा और ना जाने कैसे हम पीठ के बल गिरे। पीठ में अत्यधिक दर्द था। बच्चे रात-दिन हमारी सेवा-सुश्रुषा में जुटे थे। अगले दिन उरोस्थि (स्टेर्नम) से रीढ़ की हड्डी तक, फोड़ों के मोतियों की माला नें अपना जाल बिछा दिया था। उसके साथ पीड़ा निरंतर बढ़ती जा रही थी। पतिदेव अनिल जी कैलाश अस्पताल में भर्ती थे इसलिए हमनें उन्हें बताना ठीक नहीं समझा था। </div><div>२९ दिसंबर तक दाने रीढ़ की हड्डी तक फैल गए। असहनीय दर्द शुरू। दवा, बर्फ का पैक और लैक्टो कैलामाइन लोशन थोड़ा आराम देता। दर्द जब रुलाने पर आ गया तो उस दिन हमनें, अनिल जी को फोन पर दानों की फोटो भेजी। एम्स के डॉक्टर ने व्याधि का निदान किया - "हर्पीस जोस्टर" !! आवश्यक दवाएं दी गईं। डॉक्टर के परामर्श के अनुसार,रोग की संक्रामकता देखते हुए हम एक कमरे तक सीमित हो गए। दानों में थोड़ी सी कमी आई परन्तु शूल सा बेंधने वाला दर्द बना रहा। पतिदेव हमारी स्थिति देखकर परेशान थे पर बच्चों ने उन्हें शांत किया। </div><div>हम अजब सी बेचैनी और झुंझलाहट अनुभव कर रहे थे। जाने क्यों व्यवहार में निराशा सी हावी हो रही थी जो हमारे स्वभाव के विपरीत था। </div><div>५जनवरी को नाक (बांई ओर) से खून आया प्लेटलेट की जांच हेतु रक्त की जांच हुई परन्तु परिणाम ठीक थे। </div><div>१२जनवरी की रात हमें काफी तेजी से चक्कर आए। पूरे कमरे का सामान गोल घूमते हुए दिखाई देता रहा, हमनें दूसरे कमरे में सोए पतिदेव को फोन किया। वे तुरंत आए। हमें घबराहट के साथ उल्टी भी होती रही। पतिदेव नें हमारी अवस्था देखी तो रक्तचाप लिया। बीपी १८५/९७ था। साधारणतया हमारा रक्तचाप निम्न स्तर पर रहता है। इसके बाद डॉक्टर ने दवाई बंद करवा दी परंतु अभी भी चक्कर-उल्टी की स्थिति बनी रही। रात को कमरे में रोशनी जलाए रखने के बावजूद चीजों का घूमना बंद नहीं हुआ। दानों में दर्द की स्थिति बनी हुई थी। लोशन व बर्फ से थोड़ी देर आराम मिलता था। डॉक्टर साहब ने उच्च रक्तचाप और सरदर्द के कारण दवा बंद करवा दी और बताया की दर्द की समाप्ति में कुछ महीनों की अवधि लग सकती है</div><div>१५ जनवरी को मकर संक्रांति पर, हिमाचल प्रदेश में "माघो साज्जो" बड़ा त्यौहार है। हम हर बार अम्मा जी की चरण वंदना (सुइ) करते हैं। परंतु इस बार हमारी अम्मा जी (भाभी की माता जी) का फोन आया। उन्हें भाभी ने हमारी स्थिति बताई थी। आशीर्वाद देकर अम्मा जी ने हमसे पूछा कि दाने कैसे निकलने शुरू हुए थे और अब कितनी दूर तक फैले हैं। हमने दानों का पूरा विवरण बताया परंतु दर्द के बारे में नहीं बताया। उन्होंने कहा, "बेटा इसमें छुरा घोंपने जैसा तीखा दर्द होता है। दर्द के साथ ऐसी जकड़न लगती है कि राड़ी (चीखें) निकलती हैं। दाने नहीं बढ़ने चाहिए मगर "अग्निबाहु " का दर्द खत्म होने में ३-४ महीने लग सकते हैं।अम्माजी जो कुछ कह रहीं थीं वो मेरी पीड़ा की शब्दशः अभिव्यक्ति थी। परंतु जिस शब्द पर मैं चौंकी मैंने उसे दोबारा पूछा, " अम्माँ, अग्निबाहु या अग्नि बाहुक।" तब अम्मा जी ने स्पष्ट किया कि पहाड़ी में हमअग्निबाहुक को अग्निबाहु ही बोलते हैं। </div><div>सच्चाई यह है कि मेरा ध्यान अपनी पीड़ा से हट कर, हनुमान बाहुक के "मोहिं पीर ते पिराती है।" पर ठहर गया। दर्द घटे ना घटे परंतु संत शिरोमणि तुलसीदास जी जिस व्याधि की पीड़ा से त्रस्त होकर "हनुमान बाहुक" लिखने को बाध्य हुए मैं उसी से गुज़र रही हूं इस सोच ने मेरे दृष्टिकोण को सकारात्मक्ता में बदल दिया। मैंने अम्माजी को कोटिश धन्यवाद दिया क्योंकि तुलसी साहित्य पढ़ते हुए हनुमान बाहुक पढ़ा तो था पर अब तक वो विस्मृति के गर्भ में था। जिसे अम्मा जी के "अग्नि बाहुक" शब्द ने पुनः सामने लाकर खड़ा कर दिया था। </div><div> इस समय पढ़ने की सामर्थ्य कम जुटा पा रही हूं इसलिए सुनने का काम अधिक कर रही हूं। नेट पर "हनुमान बाहुक" को खोजा। मुझे सुप्रसिद्ध गायक नितिन मुकेश जी की मधुर वाणी में हनुमान बाहुक का पाठ मिल गया। अब मैं प्रतिदिन भोर और संध्या काल में आंखें बंद करके इसे सुनती हूं और तुलसीदास जी के शब्दों से सान्त्वना पाती हूं। </div><div>मुख्य रूप से उनके ४४ पदों में से निम्न- लिखित पद सुनकर घनी पीड़ा में भी मुस्कुरा उठती हूं। भक्त के लिए भगवान से बड़ा सहायक और कौन हो सकता है और भक्त के पास ही यह शक्ति है कि वह कि वह अपने आराध्य से झगड़ा करके भी अपनी बात मनवा सकता है आजकल मैं वही कर रही हूं ! </div><div>हनुमान बाहुक की मेरी प्रिय पंक्तियां हैं:--</div><div><br></div><div>*"आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।</div><div>औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ।।</div><div>करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, </div><div>को है जगजाल जो न मानत इताति है </div><div>चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ।।३०।।"</div><div><strong>भावार्थ </strong><strong>–</strong> मेरे ही पापों या तीनों ताप अथवा किसी श्राप के कारण बाहुक पीड़ा बढ़ी है। यह पीड़ा ना तो शब्दों में कही जाती और न ही सहन होती है। अनेक ओषधि, यन्त्र- मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ और यह पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और जगत का समूह-जाल ; कौन ऐसा है जो आपकी आज्ञाको न मानता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है। आपने मुझेअपना सेवक कहा है। हे वीर ! कष्टनिवारण में आपकी यह ढील मुझे इस अफनी पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही है॥३०</div><div><br></div><div>"घेरि लियो रोगनि,कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।</div><div>बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।।</div><div>करुनानिधान हनुमान महा बलवान,</div><div>हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है ।</div><div>खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है।।३५"</div><div>भावार्थ – रोगों, बुरे योगों एवं दुष्ट लोगों ने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिन में बादलों का घना समूह आकाश को घेरकर दौड़ता है। पीड़ारूपी जल बरसाकर इन्होंने क्रोध करके बिना अपराध यशरूपी जवासे को अग्निकी तरह झुलसा कर मूर्च्छित कर दिया। हे दयानिधान महाबलवान हनुमान जी ! आप हँसकर निहारिये और ललकार कर विपक्ष की सेना को अपनी फूँक से उड़ा दीजिए। हे केसरी के किशोर वीर ! तुलसी को कुरोग रूपी निर्दय राक्षस खा रहा है, आप अपने बल से मेरी रक्षा कीजिए ॥ ३५ ॥</div><div>"राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।</div><div>पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।।</div><div>बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।</div><div>श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ।।३६।। "</div><div><strong>भावार्थ –</strong> हे गोस्वामी हनुमान जी ! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा श्रीरामचन्द्रजी के सेवकों के पक्षमें रहनेवाले हैं। आनन्द-मंगल के मूल दोनों अक्षरों (राम-नाम)-ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। हे भुजाओंका आश्रय देनेवाले(बाहु पगार )! बाहुकी पीड़ा से मैं सारा आनन्द भुलाकर दु:खी होकर, आर्तभाव से तुम्हें पुकार रहा हूँ। हे रघुकुल के वीर !पीड़ा को दूर कीजिए मैं दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबारमें पड़ा रहूँगा ॥ ३६ ॥<br></div><div>इस सत्य को मैं नहीं जानती कि "हर्पीज जोस्टर" वास्तव में "बाहुक पीड़ा" है या नहीं परंतु हिमाचल के लोक में प्रचलित "अग्निबाहुक" से इसका संबंध अवश्य है वरना गांव में बैठी मेरी अम्माजी मेरे दर्द का हूबहू वर्णन कैसे करतीं? हमें विश्वास है कि मकर संक्रांति पर मिला मां का यह आशीर्वाद मेरा सुरक्षा कवच बनकर रक्षा करेगा।</div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-4793107650834895842024-01-06T05:33:00.000-08:002024-01-08T05:35:50.341-08:00महान विभूति - भारतेंदु हरिश्चंद्र " जी की पुण्यतिथि (६ जनवरी १८८५) " पर उन्हें कोटि- कोटि नमन व श्रद्धासुमन समर्पित हैं । 🌺🏵️🌻🌸🌻🏵️🌺<div>🙏बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारतेंदु हरिश्चंद्र की पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धाँजलि 💐💐</div><div>हिंदी साहित्य की महानत्तम विभूति "भारतेंदु हरिश्चंद्र " केवल ३४ वर्ष चार महीने की छोटी सी आयु में दुनिया को छोड़ने से पहले वे हिंदी के क्षेत्र में इतना कुछ कर गए कि हैरत होती है कि कोई इंसान इतनी छोटी सी उम्र में इतना कुछ कैसे कर सकता है।हमें मालूम हो या न हो लेकिन यह सच है कि आज का हिंदी साहित्य जहां खड़ा है उसकी नींव का ज्यादातर हिस्सा भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनकी मंडली ने खड़ा किया था. उनके साथ ‘पहली बार’ वाली उपलब्धि बार- बार जुड़ी है, खड़ी बोली के काव्य, कथा, नाटक, निबंध, पत्रकारिता आदि सभी विधाओं की 'पहली बार' वाली ख्याति के कारण आलोचकों नें उनको आधुनिक हिंदी का 'पितामह' और हिंदी साहित्य का महान ‘अनुसंधानकर्ता’ भी माना हैं। नौ सितंबर, १८५० को इस धरा पर अवतीर्ण हुई यह महान विभूति - ६ जनवरी १८८५ को ब्रह्मलीन हो गई।</div><div>" भारतेंदु हरिश्चंद्र " जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि- कोटि नमन व श्रद्धासुमन समर्पित हैं ।</div><div> 🌺🏵️🌻🌸🌻🏵️🌺<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div>" सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथ्वीतले।<br></div><div>ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः॥</div><div>ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः।</div><div>ये च वापीतडगेषु तेषु सर्वेषु वै नमः।।"</div><div>भारतीय संस्कृति में नागवंश का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नागों का वेद, पुराण, उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि में देवताओं के रूप में मान्यता है। भारतीय परंपरा में नाग-पूजा का प्रचलन आदिकाल से रहा है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और सरस्वती-सिंधु सभ्यता की खुदाई में प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि उस काल में भी नागों की पूजा होती थी।</div><div> आदिदेव भगवान आशुतोष का आभूषण नाग देवता हैं। श्री हरि नारायण /श्री विष्णु शेषशैय्या पर विराजमान रहते हैं। रामायण में विष्णु भगवान के अवतार श्री राम के छोटे भाई लक्ष्मण और महाभारत के श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम को शेषनाग का अवतार माना गया है। </div><div> उत्तर भारत में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की पंचमी नाग पंचमी के पर्व के रूप में मनाई जाती है और दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और तमिलनाडु के कई भागों में "नागुला चाविथि" (नाग चतुर्थी ) मनाई जाती है।</div><div> नाग देवताओं की पूजा करने के लिए " नागुला चाविथी" पर्व को कार्त्तिक माह में दीपावली वाली अमावस्या के चौथे दिन मनाया जाता है। नौ नाग देवता- अनंत, वासुकी, शेष, पद्मनाभ, कंबाला, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिया आदि नागों की इस दिन विशेष पूजा की जाती है।</div><div>पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अमृत की खोज में देवताओं और दानवों द्वारा सागर- मंथन के समय जब वासुकी को एक बड़े रस्सी के रूप में प्रयुक्त किया गया था। इस प्रक्रिया में हलाहल विष निकला। इस भयावह विष का मारक प्रभाव संसृति को समाप्त कर सकता था अतः सबकी प्रार्थना पर भगवान आशुतोष ने आज के ही दिन, लोक कल्याण के लिए हलाहल पी लिया। विष को कंठ में धारण करने के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया। भगवान शिव का यह विषपायी स्वरूप "नीलकंठ" के रूप में जाना जाता है। विषपान करते समय हलाहल की कुछ बूंदें धरती पर गिर गईं। विष (जहर) के हानिकारक प्रभावों को रोकने के लिए, संताप को शांत करने और हानिकारक प्रभावों से खुद को बचाने के लिए, देव-दानव व मानवों नें नागों की पूजा करना शुरू कर दी। नागों नें सबकी प्रार्थना स्वीकार कर ब्रह्मांड पर छाए संकट के निवारण हेतु कालकूट को पी लिया। सबने नागों की सभी प्रजातियों के लिए कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए कार्त्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को उत्सव का स्वरूप दिया।</div><div>कार्तिक मास की दीपावली वाली अमावस्या के चौथे दिन "नागुला चाविथि" मनाई जाती है। नगुला चविथी नाग देवताओं (नाग देवताओं) की पूजा करने का त्योहार है जो मुख्य रूप से विवाहित महिलाओं द्वारा संतति के कल्याण की कामना से मनाया जाता है।</div><div>" अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।</div><div>शङ्ख पालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा॥</div><div>एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।</div><div>सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।</div><div>तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्॥"</div><div>प्रकृति तभी जीवित और फलती-फूलती है जब संतुलन हो। चूहे कृंतक हैं जो पारिस्थितिकी तंत्र में एक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। </div><div>प्रकृति संरक्षण की दृष्टि से देखें तो प्रकृति का हर तत्व तभी जीवित रहता है। सकल चराचर तभी फलता-फूलता है जब उचित संतुलन हो। पारिस्थितिक तंत्र में चूहे भी एक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।परंतु उनकी अधिकता घातक बीमारियों की वाहक भी बन जाती हैं और कृषि प्रधान देश में फसलों के विनाश का कारण भी। इससे बचने के लिए प्रकृति में चूहों की आबादी को संतुलित रखने के लिए सर्पों का विशेष योगदान है। नागुला चाविथी हमारे कृषि प्रधान देश के जन समुदाय द्वारा सभी सांपों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने वाला अवसर भी है और भारत की सांस्कृतिक विरासत की पमुख घटना " समुद्र - मंथन " में अमृत के साथ उपजे प्रलयंकारी हलाहल को निष्क्रिय करने में भगवान नीलकंठ के सहयोगी बनी नाग जाति के प्रति आस्था व विश्वास अर्पित करने का पावन पर्व भी। शुभकामनाएँ 🙏</div><div>🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷डॉ स्वर्ण अनिल ।</div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-17525033353460584962023-08-19T04:21:00.000-07:002023-08-19T12:26:28.052-07:00लोकोत्सव: मधुश्रवा तीज ।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgrSqZg_3XlWdx5UcRqkw2pDcbTSOhDqmDNFhxy5PuYLy-cpEJpBzcqFFtS3S6q5H_eNkeegg0KUfyLNRA7SwPhZnY2hdnHPbd4WuhxnKXD2DYErXzGcEsQk2PvSDN7z_F3qoudyVi4ZLCqdNDD1c2IvIasvyI-hnmp3XBmvPWAVLQjKPvMdmqfs2riUt8" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEgrSqZg_3XlWdx5UcRqkw2pDcbTSOhDqmDNFhxy5PuYLy-cpEJpBzcqFFtS3S6q5H_eNkeegg0KUfyLNRA7SwPhZnY2hdnHPbd4WuhxnKXD2DYErXzGcEsQk2PvSDN7z_F3qoudyVi4ZLCqdNDD1c2IvIasvyI-hnmp3XBmvPWAVLQjKPvMdmqfs2riUt8" width="400">
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</div><div><div>🔱हरियाली तीज की हार्दिक शुभकामनाएँ 🌺🌺🌺</div><div>भारतीय लोकपर्वों की प्रेरणा प्रकृति है। ग्रीष्म ऋतु के भीषण ताप को सहने के बाद पुनर्जीवन की संजीवनी शक्ति के रूप में श्रावणी तीज का आगमन होता है। काले-कजरारे मेघों को आकाश में घुमड़ता देखकर, पावस के प्रारम्भ में पपीहे की पुकार , मयूर का कूजन, मंत्रमुग्ध करता नृत्य और वर्षा की फुहार से जनमानस आनंदित हो उठता है। ऐसे में भारतीय लोक जीवन हरियाली तीज का पर्व मनाता है। हरियाली तीज पर, जिसे स्वर्ण गौरी तीज भी कहते हैं, सुहागिनें मां गौरी की पूजा करती हैं। कहा जाता है कि एक बार जब शुंभ-निशुंभ राक्षसों की सेना देवताओं पर अत्याचार कर रही थी तो देवताओं ने माँ पार्वती को अपनी पीड़ा सुनाई थी। राक्षसों के इन अत्याचारों को सुनते हुए मां पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गई थीं, क्रोध की अतिशयता की अभिव्यक्ति उनके रंग के काले होने से प्रकट हुआ । माँ ने राक्षसों का विनाश किया।काली माँ का रूप- रंग वास्तव में उनके क्रोध का प्रतीक है। यह दुर्दांत क्रोध जब माँ के व्यक्तित्व का स्थाई अंग बनता दिखाई दिया तो भगवान शिव ने पार्वती को क्रोध व अमर्ष पर नियंत्रण रखने के लिए उत्प्रेरित किया। मां पार्वती चित्त को शांत करने के लिए जप-तप में लग गईं। तपस्या के आंतरिक प्रकाश से माँ का तन भी स्वर्णिम आभा से दमकने लगा। तब शिव ने मां पार्वती को स्वर्ण गौरी का नाम दिया । श्रावणी तीज के दिन तपोपूत आनंदमयी माँ पार्वती और शिव के मिलन का दिन कहा जाता है। सृष्टि के सृजन के पर्याय शिव- शक्ति की सकारात्मक ऊर्जा के मिलन के उल्लास पर्व को वैदिक परम्परा में मधुश्रवा तृतीया कहते हैं। ‘मधुश्रवा’ शब्द का अर्थ है-मधुरता का टपकना या मधुरता का संचार होना। </div><div>आसमान में घुमड़ती काली घटाओं तथा पूरी प्रकृति में हरियाली के कारण - - - - " हरियाली तीज " और "मधुश्रवा तीज" पड़ा है ।</div><div>माँ पार्वती के अपने मूल स्वरूप की प्राप्ति व अपने प्रियतम शिव को पाने की तपस्या के फलीभूत होने के इस पावन पर्व का परिदृश्य झूलों से .... राधा-कृष्ण की झूला-लीला से पूर्णता पाता है!!</div><div>सृष्टि के हर तत्व को आंनदमय बनाने वाली, क्रोध -अमर्ष की अतिशयता को अपने व्यक्तित्व से हटाकर वैयक्तिक और सामाजिक जीवन में मधुरता का संचार करने की प्रेरणा देने वाली मधुश्रवा तृतीया /</div><div>हरियाली तीज की शुभता सब ओर बरसे !!</div><div>कजरी के गायन के साथ झूलों का आनंद सदा बना रहे।</div><div>कृष्ण हिंडोले बहना मेरी पड़ गये जी,</div><div> ऐजी कोई छाय रही अजब बहार।</div><div>सावन महीना अधिक सुहावनौ जी,</div><div> ऐजी जामें तीजन कौ त्यौहार।</div><div>मथुरा जी की शोभा ना कोई कहि सके जी,</div><div> ऐजी जहाँ कृष्ण लियौ अवतार।</div><div>गोकुल में तो झूले बहना पालनो जी,</div><div> ऐजी जहाँ लीला करीं अपार। </div><div> 🦚🌷🌺🏵️🌼🍀🌼🏵️🌺🌷🦚</div><div> 🌻स्वर्ण अनिल 🌻</div></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-50635080176450595812023-08-15T10:56:00.002-07:002023-08-17T05:59:06.977-07:00🇮🇳अटारी के स्वातंत्र्य-वीर जनरल शाम सिंह अटारीवाले🌷<div><br></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEiAqyj-IfmAMqJwZtdR5ZuOcBD0XFEu1Y7RmNuZ6w-QX5FGX2SfD8dXOdXwIJmyb7v_QcnHNHwdCkRJF-TzfkRiqO5a_UpJJUWq6dgX323RD1nTyfdP52QSD9XzWAoFRDZZddcwrLsuPvKzVJikGGOxFePCjlOX7_SvTE4c4wsa_69LGym-L46lpqBDVuk" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div><div>🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता का अमृत काल 🌷</div><div>🇮🇳 भारतीय स्वातंत्र्य-वीर जनरल शाम सिंह अटारीवाला की पावन स्मृतियों को श्रद्धाँजलि। 🌷🌷🌷🌷</div><div><div>जनरल अटारीवाला का बलिदान दिवस १० फरवरी को आता है। स्वतंत्रता दिवस की संध्या वेला में पंजाब के अटारी-वाघा सीमा पर बीटिंग रिट्रीट देखना हर बार राष्ट्रीयता के भाव को अलौकिक स्तर पर ले जाता है। </div><div>वास्तव में भारत - पाकिस्तान की ऐतिहासिक राष्ट्रीय सीमा "अटारी" है। आज भारतीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर बीटिंग रिट्रीट का कार्यक्रम देखते हुए हमनें देखा कि अधिकांश लोग अटारी बॉर्डर को वाघा बॉर्डर के नाम से जानते और लिखते हैं। वास्तव में, "अटारी" एक पुराना ऐतिहासिक शहर है जो लाहौर और अमृतसर के बीच में स्थित है। विभाजन के बाद से, भारत और पाकिस्तान के बीच अंतर्राष्ट्रीय सीमा इसके निकट से ही गुजरती है। यह भारत (पंजाब में) का अंतिम सीमांत शहर है।अटारी की धरती वीरभूमि है। इसके सपूतों को प्राचीन काल से ही शूरवीर सैनिकों के रूप में गौरवपूर्ण स्थान मिला है। </div><div>यह ऐसा कारण है जो हमें अंग्रेजी सत्ता से टक्कर लेने वाले जनरल शाम सिंह अटारीवाला की स्मृतियों को पुनः जगा गया जो ऐसे अप्रतिम शूरवीर हैं जिनकी देशभक्ति इतिहास में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।जिनके शौर्य के विषय में शत्रुपक्ष भी इतिहास में यह लिखने को बाध्य हो गया था-</div><div>' विश्वासघातियों के मध्य केवल शामसिंह जैसा विश्वसनीय पात्र पाया गया। ' एक वृद्ध नायक ' जिसका नाम रेखांकित किया जाना चाहिए। वो सफेद कपड़े पहने स्वयं को मौत के लिए समर्पित कर रहा था। पुराने डेसियस की तरह, उसने अपने आस-पास के लोगों से , भगवान और गुरु के नाम पर एकजुट होकर प्रहार करने का आह्वान किया और हर जगह मृत्यु से निपटने के लिए, अपने दम पर शूरवीर की तरह तीव्रता से टूट पड़ा।</div><div> - - - - आर.बोसवर्थ स्मिथ।</div><div> वास्तव में मेरा निजी मत है कि हमें अटारी का नाम लेते हुए गर्व होना चाहिए। समसामयिक सत्य यह है कि , केंद्र सरकार की स्वीकृति के साथ, पंजाब सरकार ने वर्ष २००७ में अधिसूचना जारी करके आधिकारिक तौर पर इसे अटारी सीमांत (बॉर्डर) नाम दिया। </div></div><div>भारत-पाकिस्तान की पंजाब में सीमा का हमारा भारतीय गांव "अटारी" है और पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गांव का नाम है वाघा। </div><div>अविभाजित पंजाब के माझा क्षेत्र में, अटारी गांव की स्थापना वर्ष १७४० के लगभग, लुधियाना (मालवा) के गांव के चौधरी कहन चंद सिद्धू के बेटों, गौर सिंह और कौर सिंह नाम के दो सिद्धू जाट भाइयों ने की थी। दोनों भाईयों नें सतलुज नदी के पार माझा क्षेत्र में आकर बसने के लिए मूलदास नामक एक प्रख्यात स्थानीय तपस्वी से स्थान पूछा। संत मूलदास नें एक बड़े टीले (पंजाबी में "थेह" ) की ओर इशारा किया, और उन्हें एक नया गांव बसाने का निर्देश दिया । गौरा ने टीले पर एक अटारी (तीन मंजिला घर) बनवाई और बाद में अटारी के चारों ओर एक गाँव विकसित हुआ।यही गांव अटारी गांव कहलाया। </div><div>इसी अटारी गांव को प्रसिद्धि मिली "शाम सिंह अटारीवाला" के कारण जो शेर-ए- पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के सुप्रसिद्ध सेनापति थे। </div><div>वर्ष१७९० में उनका जन्म अटारी में निहाल सिंह के सम्पन्न परिवार में हुआ था। उनकी शिक्षा गुरुमुखी और फ़ारसी में हुई थी। जब रणजीत सिंह पंजाब के महाराजा बने तो उन्होंने शामसिंह जी को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया। उनके गुणों और युद्ध क्षमताओं के कारण महाराजा रणजीत सिंह ने उन्हें पांच हज़ार घुड़सवारों का 'जत्थेदार' नियुक्त किया। महाराजा रणजीत सिंह के दो सेनानायक थे। एक हरि सिंह और दूसरे का नाम शाम सिंह अटारीवाला था। जनरल शाम सिंह अटारवीला एक ऐसे योद्धा थे जिनकी प्रशंसा भारतीय ही नहीं बल्कि अंग्रेज भी करते थे। कहा जाता है कि महाराजा के विश्वासपात्र और कुशल सैन्य क्षमता से भरपूर शाम सिंह अटारीवाला युद्धक्षेत्र में अग्रिम पंक्ति में रहते थे। उनका सफ़ेद रेशमी परिधान शत्रुओं को त्रास देता था और वे सदा सफ़ेद घोड़े की सवारी करते थे। </div><div>अटारीवाला नें मुल्तान और कश्मीर सहित कई विजय अभियानों में सक्रिय रूप से भाग लिया था। ३ वर्ष की अवधि के लिए उन्हें महाराजा राजवंश सिंह द्वारा कश्मीर का गवर्नर बनाया गया था। बाद में, महाराजा राजकुमार सिंह ने उन्हें वापस लाहौर बुला लिया, क्योंकि वह महाराजा राजकुमार सिंह के विश्वासपात्र सहयोगी थे। शाम सिंह अटारी और महाराजा लक्ष्मी सिंह अच्छे मित्र थे।उनकी बेटी नानकी कौर का विवाह राजकुमार नौनिहाल सिंह से हुआ था। सिंहासन पर बैठने के बाद वे सिख साम्राज्य की महारानी बन गईं। महारानी जिंदां नें अल्पवय महाराजा दलीप सिंह की राज-प्रतिनिधी परिषद का सदस्य मनोनीत किया था। </div><div> इस सत्य से सभी परिचित हैं कि "शेरे पंजाब महाराजा रणजीत सिंह" के २७जून १८३९ को देहावसान के बाद अंग्रेजों की नज़र सिख साम्राज्य पर भी थी। उपनिवेशवादी ब्रिटिश शासन, अपने छल- छद्म के सहारे कई भारतीय रियायतें हथिया चुका था। </div><div>१ जनवरी १८४५ के अपने एक पत्र में लॉर्ड हार्डिंग नें स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि वे - - " युद्ध करने के लिए तत्पर हैं लेकिन कठिनाई यह है कि किस बहाने सिखों पर आक्रमण किया जाए क्योंकि सिखों के साथ अंग्रेजों केेे अच्छे संबंध हैैै। तमाम कठिनाइयों मेंं सिखों ने अंग्रेजों का साथ दिया है। "</div><div>महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद मात्र ४ से ५ वर्षों के भीतर अनेक शासक आए। बाद में रणजीत सिंह के वंशजों में दिलीप सिंह १८४३ में राजा बने। मात्र ५ वर्ष के अल्पायु शासक की संरक्षिका के रूप में शासन व्यवस्था महारानी जिन्दां नें संभाली।</div><div>इन सभी घटनाओं के बीच अंग्रेजी गवर्नर लार्ड डलहौज़ी अपनी हड़प नीति या व्यपगत सिद्धांत ( Doctrine Of Lapse ) के माध्यम से भारतीय रियासतों को हड़पने का कार्य कर रहे थे। </div><div>इसी क्रम में सिखों और अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच "आंग्ल सिख युद्ध" हुए। सिख शूरवीरों नें, १. मुदकी २. फिरोजशाह </div><div>३. बद्दोवाल ४. आलीवाल ५ सभराओं में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध प्राणपण से युद्ध किया। </div><div><div>ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार, जब सिख मुदकी और फिरोजशाह का युद्ध हार गए, तब महारानी जिंदां ने सरदार शामसिंह अटारीवाला को चिठ्ठी लिख कर युद्ध में सम्मिलित होने के लिए कहा। </div><div>सभराओं गांव पंजाब के फिरोजपुर जिले में हरीके पतन से आठ कि.मी. दूर सतलुज नदी के किनारे पर बसा हुआ है। इसी सभराओं गांव में १० फरवरी १८४६ ई. को सिख वीरों और अंग्रेजों के बीच निर्णायक युद्ध हुआ। देश का दुर्भाग्य था कि सिख सेना के कमांडर तेजा सिंह और लाल सिंह अंग्रेजों से मिल गए थे। </div></div><div>१० फरवरी १८४६ के दिन युद्ध की शुरुआत गहरी धुंध में हुई थी। धुंध छंटने के बाद जब सूरज निकला तो तोपों और बंदूकों से आरपार की लड़ाई शुरु हो गई। सिख फौज ने नावों के पुल बनाकर सतलुज को पार किया और विश्वासघाती कमांडर लाल सिंह और तेजा सिंह ने सिख फौज के सतलुज पार करने के बाद नावों के पुलों को तोड़ दिया। जिससे सिख फौज अब वापस नहीं आ सकती थी। सभराओं के मैदान में तीनों ओर से अंग्रेजी सेना ने उन्हें घेर लिया। सिखों सैनिकों के पास वापस लौट कर बचाव का मार्ग अवरुद्ध कर दिया गया था। जनरल शाम सिंह हतोत्साहित हुए बिना लड़ाई में कूद पड़े। अपने सैनिकों के पराक्रम को बढ़ाने वाले वचनों से सब ओर जोश बढ़ाते वी नायक नें शत्रु सेना पर धावा बोल दिया । सभराओं के मैदान में भयंकर युद्ध शुरू हो गया।लेकिन वह ज़बरदस्त हो गयातोपों और गोलियों के प्रहारों को सिख सैनिकों ने अपने सीने पर झेलकर शहादत पाई। कहा जाता है पानीपत की लडाई के बाद सभराओं की लड़ाई में सबसे भीषण नरसंहार हुआ। इस युद्ध में आठ हज़ार सिख सैनिक शहीद हुए। शहीदों के रक्त से सतलुज का पानी लाल हो गया था। इस युद्ध में सरदार शाम सिंह अटारी अपने चिर - परिचित श्वेत वस्त्र पहन कर, श्वेत दाढ़ी में, श्वेत वर्ण के घोड़े पर सवार होकर युद्धक्षेत्र में गए थे। ५६ वर्षीय यह महान जरनल वीरतापूर्वक शत्रुओं से जूझते हुए,१२ फरवरी १८४६ को,अपनी छाती पर सात गोलियां खाकर शहीद हुए।परम पराक्रमी सिख योद्धाओं के साथ अपनों नें ही विश्वासघात किया था इस कारण ही सिख सेना को अत्यंत वीरता से लड़ने के बाद भी पराजय का मुख देखना पड़ा। ब्रिटिश इतिहास कारों को भी लिखना पड़ा कि यह एक ऐसा संघर्ष था जिसमें मृत्यु सुनिश्चित थी परन्तु जनरल शाम सिंह के नेतृत्व में सिख-सैनिक आगे ही बढ़ते रहे। उनके युद्ध कौशल की उत्कृष्टता ने, उनके अदम्य साहस ने सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।</div><div>उन्नीसवीं शताब्दी में पंजाब के राष्ट्रीय कवि के रूप में विख्यात 'शाह मुहम्मद' (१७८०-१८६२), अपनी प्रसिद्ध रचना 'जंगनामा-सिंघां ते फिरंगिआं' (१८४६) में सिक्खों और अंग्रेज़ों की पहली लड़ाई से अंतिम कालखंड की घटनाओं को आंखों देखे हाल की तरह वर्णित किया। शाह मुहम्मद नें जनरल शाम सिंह के विषय में लिखा - </div><div><div>शाम सिंघ सरदार ने कूच कीता,</div><div>जल्हे वालीए बनत बणांवदे नी ।</div><div>आए होर पहाड़ दे सभ राजे,</div><div>जेहड़े तेग दे धनी कहांवदे नी । </div><div>चड़े सभ सरदार मजीठीए जी, </div><div>संधावाली काठियां पांवदे नी । </div><div>शाह मुहंमदा चड़ी अकाल रजमट, </div><div>खंडे सार दे सिकल करांवदे नी ।।</div></div></div><div>अपने समय की, हर मित्र-शत्रु की लेखनी ने वीर शाम सिंह अटारीवाला की यशोगाथा लिखी। </div><div>परांतप दशमेश गुरु गोविंद सिंह जी की वाणी - - - - <b>"सूरा सो पहचानिए, जो लरै दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरै कबहू ना छाडे खेत।" </b></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><div style="text-align: start;">को अंतिम क्षणों तक सार्थकता देने वाले सच्चे शूरवीर, स्वातंत्र्य-वीर के पावन चरणों में अश्रुपूरित विनम्र श्रद्धासुमन 🙏</div><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEim4EpvAY02myQ1hNNiY0uSD6Cy2Yzj_siJRws8W-CPVS7xeBJYpEsYRv8JS5QgOsDLg7LWC5q7IcNR3ki_dqiNbL7PflKZlwCkE44vwPFksdu52YpIBJQ4fQfWi-xUj5on9sKOIqB0OYCl93JB0C5HuR9yHvqNBOKHtgPBTMrzI5ZKUAoAVsm7NFqEoRU" width="400"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEim4EpvAY02myQ1hNNiY0uSD6Cy2Yzj_siJRws8W-CPVS7xeBJYpEsYRv8JS5QgOsDLg7LWC5q7IcNR3ki_dqiNbL7PflKZlwCkE44vwPFksdu52YpIBJQ4fQfWi-xUj5on9sKOIqB0OYCl93JB0C5HuR9yHvqNBOKHtgPBTMrzI5ZKUAoAVsm7NFqEoRU" imageanchor="1">
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</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><h1 title="सूरा सो पहचानिए, जो लरै दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरै कबहू ना छाडे खेत"><br></h1><h1 title="सूरा सो पहचानिए, जो लरै दीन के हेत, पुरजा-पुरजा कट मरै कबहू ना छाडे खेत"><br></h1></div></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-18812299690221160362023-07-22T06:34:00.001-07:002023-07-22T07:16:38.791-07:00भूदेवी की बेटी : रंगनायकी अंडाल ।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjJO89hAA-R2QV3C6sKOM8kgdpO88ZoFJy66OiglXdjLaEj1-xqKrGvS0x5AG64UPQoGGZJfcjbbU9l-fwoZXoW2sa_4UcKMapptbkHiiQAFEppwJ9iythEYFzR-x6FMUM5sE7uAdoyRWGpYBcsV2Ag5zk9TlGsL7d1hfbTVLYir9g26_qf_QwhaVAxDoE" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">आलवार परंपरा में एक असाधारण प्रतिभा थी – साध्वी अंडाल। बारह संतों में अंडाल एक मात्र साध्वी थी । आठवें आलवार विष्णुचित्त की पालित पुत्री थी। विष्णुचित्त मदुरै के पास विलिपुत्तुर नाम के गाँव के रहने वाले थे । जिनका दैनिक कार्य भोर की वेला में फूल तोड़कर लाना और स्थानीय मंदिर में भगवान को अर्पित करना था।<br></div><div><div>एक दिन पंडित विष्णु चित्त अपने प्रातः कालीन दैनिक कार्य पर निकले तो उन्होंने देखा कि वाटिका में तुलसी के पौधे की छाया में एक नन्ही सी बालिका लेटी है । पंडित विष्णुचित्त नितांत अकेले थे । उन्हें लगा कि धरती माता ने यह नन्ही बच्ची एक पुत्री के रूप प्रदान की है । अतः उन्होने इस का नाम ‘गोदई’ अर्थात धरती माता की तरफ से भेंट रख दिया। (उनका जन्म विक्रम सं. ७७०में हुआ था।)</div><div>वे उसे अपने घर ले आए और उस का पालन पोषण किया । तुलसी वाटिका में प्राप्त होने के कारण इन्हें भूमिजा सीता का अवतार माना जाता है। वे बाद में अंडाल अथवा रंगनायिकी के नाम से भी प्रसिद्ध हुई ।</div><div> गोदई ईश्वर प्रेम और भक्ति के वातावरण में बड़ी हुई । पंडित विष्णु चित्त भी उस का पूरा ध्यान रखते । उसे भजन गायन सिखाते, भगवान कृष्ण की कथाएँ सुनाते, दर्शन और शास्त्रों की बातें करते और तमिल काव्य की जानकारी देते । भगवान के प्रति असीम भक्ति भाव का प्रत्यक्ष प्रभाव नन्ही गोदई पर बढ़ता ही गया । उसे अपने जीवन में भगवान के सिवाय कुछ और दिखाई नहीं देता था । उत्तर भारत की मीरा की तरह उसे लगता कि उस का जीवन केवल भगवान के लिए ही है । मीरा की तरह वे भी कृष्ण प्रेम में दीवानी हो गयी। उन्होंने कृष्ण को ही अपना पति मान कर अपना सब कुछ उन पर न्योछावर कर दिया । वे चारों ओर कृष्ण ही कृष्ण दिखाई देते । वह स्वयं को कृष्ण की भक्तिन, भार्या, दासी, प्रेमिका रूप में ही प्रदर्शित करती । यहाँ तक कि अपने पिता की भगवान पूजा के लिए बनाई हुई पुष्प माला को पहले वे स्वयं पहन कर देखती कि माला ठीक बनी है कि नहीं । यह उन्होने अपना एक नित्यक्रम बना लिया ।</div><div>रंगनाथ ने गोदा की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे प्रियतमा के रूप में स्वीकार किया। विष्णुचित्त को सपने में आदेश देकर गोदा को मंदिर में लेकर पहुंचने को कहा। जैसे ही पेरियार गोदा को लेकर मंदिर आए गर्भ गृह में प्रवेश करते ही गोदा श्री रंगनाथ की प्रतिमा में विलीन हो गई, तब से गोदा, आंडाल के नाम से प्रसिद्ध हुई । "आंडाल" का अर्थ है "जिसने भगवान को प्राप्त किया हो।" उस समय उनकी आयु मात्र पंद्रह वर्ष थी । अनेक दर्शकों के देखते-देखते भगवान के विग्रह में ज्योति बन विलीन होने की इस घटना से संबद्ध विवाहोत्सव अब भी प्रति वर्ष दक्षिण के मंदिरों में "श्री अंडाल थिरु कल्याणम", धनुर्मासम के भोगी पोंगल को मनाया जाता है।</div><div>वृंदावन स्थित श्री रंगनाथ भगवान के मंदिर में भी गोदाम्बा जी का उत्सव दस दिनों तक चलता है। इस उत्सव में इन १० दिनों में दिव्य प्रबंध जो आलवर दिव्य सूरी लोगों ने भगवान के मुखोल्लास के लिए रचना की है और जिसमें ४००० पद जिन्हें पासुर कहा जाता है, उसका पाठ होता है। तीसरे दिन गोदम्मा जी के द्वारा लिखे गए १४३ पासुरों का पाठ होता है। यह बहुत ही महत्वपूर्ण एवम् शुभ दिन माना जाता है, इसलिए खीर आदि का भोग लगता है।</div><div>आंडाल ने अल्पायु में ही दो ग्रंथों की रचना की जो भक्ति के श्रेष्ठ ग्रंथ माने जाते हैं।आंडाल की रचनाएँ तिरुप्पाबै और नाच्चियार तिरुमोषि बहुत प्रसिद्ध है। आंडाल की उपासना माधुर्य भाव की है। तिरूप्पावै – यह अति सुंदर ३०पदों का मुक्तक काव्य है। इसमें कृष्ण को प्राप्त करने के लिए कात्यायनी देवी की पूजा एवं व्रतानुष्ठान का वर्णन है । संगम युग में रचित तिरुप्पवई में, पावई शैली के गीत हैं । इस शैली में अविवाहित कन्याओं द्वारा मार्गोई के पूरे महीने में व्रत रखने का अनुष्ठान करने की तमिल परंपरा का उल्लेख है। </div><div>भक्त अंडाल के तीस गीतों में मार्गोयी महीने के लिए वैष्णव परंपरा के प्रमुख सिद्धांत सम्मिलित हैं । तिरुप्पावई को 'वेदम अनाइथुक्कम विथागुम' कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि यह वेदों का बीज है। जिस प्रकार संपूर्ण वृक्ष और उससे निकलने वाले वृक्ष सूक्ष्म बीज में छिपे हुए हैं, उसी प्रकार वेदों का संपूर्ण सार तिरुप्पावई में छिपा है, जिसे केवल एक आचार्य या गुरु के मार्गदर्शन में ही प्रकट किया जा सकता है जो वैदिक शास्त्रों में पारंगत है।अंडाल द्वारा अपनी सहेलियों से जागने और कृष्ण की खोज करने की प्रार्थना के पीछे प्रतीकात्मक स्वर में वैष्णव परंपरा के तीन मूल मंत्रों का सार शामिल है - तिरुमन्त्रम, द्वयम् और चरम श्लोक जो परमात्मा या सर्वोच्च सत्ता की सच्चाई को दर्शाते हैं जो हर जड़ - चेतन में निवास करते है। उदाहरण के लिए, २७वें पशुरम में एक निहितार्थ है, जहां अंडाल एक आचार्य के महत्व को समझाती हैं जिनका मार्गदर्शन एक शिष्य के लिए त्रिमंत्रों की सिद्धि हेतु अत्यंत अनिवार्य है।यह संपूर्ण निहितार्थ अंडाल के छंदों में काव्य के रूप में वर्णित है।</div><div>उदाहरणार्थ मैं तिरुप्पावई के पहले ६ पशुराम का अनुवाद प्रस्तुत कर रही हूं। ये भक्त अंडाल की सरल और सहज मनोभूमि को समझने में हमारी सहायता करते हैं। <br></div><div>१) *मार्गोइ तिंगल* </div><div>इस मार्गोयी माह में,चंद्रमा की ज्योत्सना भरे इस दिन,</div><div>स्नान के लिए आओ! हे श्रृंगार प्रिय देवियों! </div><div>हे ग्वालों के समृद्ध घरों में रहने वाली देवियों! </div><div>वह जो निर्दय होकर तीक्ष्ण भाले से, शत्रुओं को मारता है। </div><div>वह जो नंद गोप का पुत्र है। वह जो यशोदा का प्रिय पुत्र है। </div><div>जो सुगंधित पुष्पों की माला पहनता है। वह जो सिंहशावक सदृश है। </div><div>वह जो श्याम सुंदर है। वह जिसके नेत्र रतनारे हैं। पूर्ण विकसित चंद्रमा सा जिसका मुखमंडल है। </div><div>वह,जो हमारे देवता हैं। स्वयं नारायण हमें सुरक्षा देने जा रहे हैं,</div><div>ताकि हम स्नान करें यही है हमारा पावई (व्रत या अभ्यास) !</div><div>उनके स्तुतिगान अखिल विश्व गाता है !! </div><div>२) वैयाथु वाविर्गल* <br></div><div>ओह! इस जगत के लोगों,</div><div>उन तपस्याओं के बारे में सुनकर प्रसन्न हों,</div><div>जो हम प्रतिदिन पावई की पूजा के लिए करते हैं,</div><div>हम उन पावन चरणों का गान करेंगे,</div><div>उनके बारे में जो क्षीरसागर में करते हैं शयन,</div><div>हम बहुत स्वादिष्ट घी नहीं लेंगे, हम स्वास्थ्य वर्द्धक दुग्ध से दूर रहेंगे,</div><div>हम प्रतिदिन सुबह होने से पहले स्नान करेंगे, </div><div>हम आंखों में कोई काजल नहीं लगाएंगे,</div><div> हम अपने बालों में पुष्प नहीं बांधेंगे,</div><div>हम ऐसा कोई कार्य नहीं करेंगे जो निषिद्ध हो, </div><div>हम किसी और के बारे में बुरा नहीं बोलेंगे,</div><div> हम भिक्षा देंगे और दान करेंगे,जितना हम कर सकते हैं करेंगे। </div><div>और - - - - </div><div>परदुःख से मुक्ति हेतु वे सभी कार्य करेंगे,यही हमारा व्रतम् (पावई) है।</div><div> ३) *ओन्गी उलागालंधा*</div><div> यदि हम उसका गुणगान करें,जो बड़े हो गए और जिन्होंने विश्व को मापा,</div><div>और हमारी देवी पावई की पूजा करें ,</div><div>तो महीने में कम से कम तीन बार बारिश होगी। </div><div>और लाल धान के पौधे बड़े हो जाएंगे। </div><div>और मछलियां उनके खेतों में तैरेंगी और खेलेंगी,</div><div> और चित्तीदार मधुमक्खियां शहद पीने के बाद,</div><div>अपने दिल की संतुष्टि के लिए, पेट भरने के बाद</div><div>खुद फूल में सोएंगी, </div><div>और बड़े थन वाली गायें दूध के बर्तनों को लबालब भर देंगी, </div><div>और स्वस्थ गायें और धन कभी कम नहीं होगा, </div><div>देश को समृद्धि देंगी, </div><div>और यह सब मैं, अपने व्रत द्वारा आश्वासन देती हूं।</div><div> *४) अई मसाई कन्ना* </div><div> कृपया ! हमारी इच्छाओं की पूर्ति करें,</div><div>हे वर्षा देव, जो समुद्र से आते हैं,कृपया समुद्र में प्रवेश करें,</div><div>और अपने लिए जल लाएं,उत्साह और ध्वनि के साथ इसे उठाएं, </div><div>और जलप्रलय के देवता की तरह काले हो जाएं,</div><div>और हाथों में पवित्र चक्र की तरह चमकें,</div><div>भगवान पद्मनाभ के शक्तिशाली भुजदंड हैं,</div><div>और दक्षिणावर्ती शंख की भांति तीव्र मनभावन वाणी हैं,</div><div>और प्रचंड चक्रवात से अबाध मेह वर्षण करते हैं, </div><div>शारंग धनु सहित विष्णु अवतरित होते हैं। जगत को आनंदित करते हैं। </div><div>हमें मार्गोयी माह में स्नान करने में मदद करने के लिए। </div><div>५). *मयनाई मन्नू* <br></div><div>उसके लिए, जो है सभी को मंत्रमुग्ध करने वाला! </div><div>उत्तरी दिशा के मथुरा नगरी के पुत्र को ! </div><div>उसे जो पवित्र यमुना के तट पर था खेलता-खिलखिलाता,</div><div>उसे,जो हैअलंकृत दीपक सा,गाय के चरवाहों के परिवार को,</div><div>और उस दामोदर को जिसने अपनी माँ के गर्भ को पवित्र बनाया। </div><div>हम पवित्र स्नान के बाद आए,और उनके चरणों में शुद्ध फूल चढ़ाए। </div><div>वाणी से उनके गीत गाए, उनके विचारों को मन में धारण किया ,</div><div>हमें विश्वास है कि हमारे अतीत और भविष्य के सभी दोष ,</div><div>भस्मीभूत हो विलुप्त होगा अग्नि मे। </div><div>६) *पुलम चिलम्बिना*</div><div> क्या तुमने पक्षियों की कलरव ध्वनि को नहीं सुना?<br></div><div>क्या तुमने गरुड़ राजा के मंदिर से श्वेत शंख का उद्घोष नहीं सुना? </div><div>हे कन्याओं ! कृपया उठो,हमें "हरि-हरि" की पवित्र ध्वनि सुनने दो।</div><div>पंडितों और संतों की ओर से,उसे बुलाया गया है</div><div>जिसने पूतना का विषैला दूध पिया,</div><div>वे जिन्होंने लात मारकर शकटासुर को मार डाला,</div><div>और वे जो महान आदिशेष पर शयन करते हैं। </div><div>वे हमारे चित्त व मेधा में रहेंऔर वे हमारी बुद्धि को शीतल कर दें। </div><div>तिरुप्पावई के ३० श्लोकों में भक्त अंडाल एक गोपिका का वेश धारण करती है। उनका मनोभाव विष्णु से विवाह कर उनकी चिर संगिनी बनने का रहता है। इसी कामनापूर्ति के लिए वे एक विशेष धार्मिक संकल्प लेती हैं और अपने सभी साथियों को अपने साथ श्रीकृष्ण की सेवा करने के लिए आमंत्रित करती है। <br></div><div>संत अंडाल के दूसरी रचना नच्चीयार तिरुमोषि में १४३ पदों में श्रीकृष्ण जी की लीलाओं का वर्णन किया है। </div><div>इन दोनों ग्रन्थों का प्रभाव तमिल जगत में अत्यधिक गहरा है । दोनों ही ग्रंथ तमिल भाषा के पवित्र ग्रंथ हैं । इन कि महत्ता इस बात में भी है ये एक अल्पायु बालिका की रचनाएँ हैं । तमिल साहित्य में यह एक ऐसा अकेला उदाहरण है । तिरूपवई को जन साधारण में रामायण की भांति अत्यधिक प्रेम भाव और रुचि से सुना जाता है । तमिलनाडू के हर घर में यह ग्रंथ अत्यंत लोकप्रिय है । अनेक विद्वानों ने इस दोनों ग्रन्थों का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया है । दिसंबर और जनवरी माह में तमिल, तेलुगू ,कन्नड़ , हिन्दी,अँग्रेजी भाषाओं में भारत के विभिन्न प्रदेशों में तिरूपवई के प्रवचन चलते रहते हैं ।</div><div>"रंगनायकीअंडाल" आज तमिल क्षेत्र ही नहीं सभी की पूजनीय हैं।" गोदई "भूमि पुत्री थी! भूमि की भांति शांत,विनम्र, विनीत, धैर्यवान और सहनशील। उनके ये गुण आज के कलह-द्वेषपूर्ण वातावरण में सबके मार्ग - दर्शक बनें इन्ही शुभकामनाओं के साथ उन देवी आंडाल के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन करते हुए मामुनि स्वामीजी के शब्दों में श्रद्धासुमन अर्पण करती हूं। अज़गिया मणवल मामुनिगल अर्थात मामुनि स्वामी जी उपदेश रथिना मलाई पाशुर २२, २३, २४ में रंगनायकी अंडाल की महानता की यशोगाथा गाते हैं । उपदेश रथिना के बाईसवें पाशुर में वे कहते हैं : - - <b>- </b></div><div><b>वे यह सोचकर बहुत भावविभोर हैं कि कैसे अंडाल ने परमपद प्राप्ति के मार्ग में अपनी सुख-सुविधाएँ छोड़ दीं। उनकी (स्वानुभवम्) रक्षा के लिए जगत में पदार्पण किया और पेरियालवार की दिव्य बेटी के रूप में जन्म लिया। जैसे अगर एक माँ अपने बच्चे को नदी में फँसा हुआ देखती है, तो वह भी डूबते बच्चे को बचाने के लिए नदी में कूद जाती है। अंडाल सभी की माँ हैं, वे संसारियों को बचाने के लिए भव-सागर में कूद जाती है।</b></div><div><div style="font-weight: bold;"><b> धनुर्धरायै च विद्महे सर्व</b></div><div style="font-weight: bold;"><b> सिद्धायै च धीमहि</b></div><div style="font-weight: bold;"><b> तन्नो धरा प्रचोदयाथ।</b></div><div style="font-weight: bold;">(<b>हम उस देवी की पूजा करते हैं जिसके हाथ में धनुष और बाण है। भक्तों को सभी वरदान देने वाली देवी को नमस्कार है। कामना है कि भूदेवी हमारी रचनात्मक क्षमताओं को प्रोत्साहित करें।) </b><br></div></div><div>🙏🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🙏<br></div></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-81385702958389225682023-06-15T21:21:00.001-07:002023-06-15T21:21:31.461-07:00<div>नववर्ष **** स्वतंत्रता दिवस वाले अगस्त माह में नववर्ष का प्रश्न हमारे मन में इसलिए आया क्योंकि अगस्त महीने का नाम हमारे भारतीय महर्षि अगस्त्य से नहीं रोमन राजा आगस्टस सीजर से जुड़ा है। वही आगस्टस ; जिसने जूलियस सीजर द्वारा अपने नाम के महीने में, जूलियन कैलेंडर के ३० दिनों के महीनों वाले आखिरी महीने फरवरी से एक दिन लेकर उसे २९ दिन और जुलाई को ३१ दिन का बनाया था - - - - अपने को महान घोषित करने के लिए अगस्त महीने को भी ३१दिन का बना दिया और फरवरी को २८ दिन का !! </div><div>हर बार की तरह इस बार भी मेरे मन ने वही यक्षप्रश्न दोहराया ," हम भारतवंशी कब तक चार महीने बाद आनेवाले अंग्रेजी(ईसाई ) नववर्ष पर शुभकामनाएँ देते रहेंगे ? मैं भारत पर हुए औपनिवेशिक "सांस्कृतिक आक्रमण" को राजनैतिक आक्रमण से बड़ा मानती हूं इसलिए अरेबिक अंकों आदि आरोपित अन्य बातों की तरह "न्यू ईयर" भी स्वतंत्र भारत की अस्मिता पर प्रश्न चिन्ह सा लगता है- - - -? </div><div>प्रकृति के नव-सृजन को, सृष्टि के नव- निर्माण को.... नव-पल्लवों की कोमल हथेलियों पर रचकर, अमराईयों में कूकती कोयल की तान में बसकर.... नव-उल्लास, नव-आशा, नव-जागरण की पावन ज्योति जगत के कण-कण में जगाने वाले भारतीय - नववर्ष में हमारी उत्सवधर्मी संस्कृति जीवंत हो उठती है। एक सत्य और है - - - - हम भोर के उजालों भरी पावन वेला में भारतीय नववर्ष मनाते हैं अर्द्धरात्रि में नहीं! </div><div>सच बात यह है कि मैं हिमाचल प्रदेश की बेटी हूं इसलिए बचपन से ही "विषु-साज्जे" , अर्थात बैसाखी को नववर्ष मनाती आई हूं।बंगाल में इस दिन को ‘नाबा वैशाख’ या ‘पौला बौशाख’, केरल में ‘विशु’, असम में ‘‘बोहाग बिहू’, पंजाब में ‘बैसाखी ’, उड़ीसा में ‘पाना संक्रांति’, तमिलनाडु में ‘पुथांडु ’, बिहार में ‘सतुआनि’ और ‘जुड़ी शीतल’ के नाम से मनाया जाता है।</div><div>विक्रमी संवत का चैत्र का महीना है जो समस्त भारतीय जनमानस के लिए शुभता का प्रतीक है, हमारे **** भारतीय सौर पंचांग, विक्रम संवत् का पहला महीना है जिसे न केवल देश भर में, बल्कि इस उपमहाद्वीप के बाहर बाली, थाईलैंड आदि देशों में भी नववर्ष के रूप में मनाया जाता है। राशि चक्र की पहली राशि मेष में सूर्य के प्रवेश के साथ आरंभ चैत्र में एक नई ऋतु का आगमन होता है।मेरा मानना है कि यह मास हमारी कृषि प्रधान परंपरा का ऊर्जस्वी प्रतीक भी है इसीलिए इस मास में शक्ति की पूजा होती है जो मनुष्य की अंतर्निहित चेतना को जाग्रत और अभिव्यक्त करने वाली पराशक्ति भगवती दुर्गा का नमन करने की हमारी चिरंतन संस्कृति का परिचायक है। हमारा भारतीय नववर्ष, धरती के प्रकृति द्वारा किए गए श्रृंगार से सजे इसी महीने से प्रारंभ होता है।</div><div>इसके विपरीत अंग्रेज़ी महीने, काल गणना पर कम और व्यक्तिगत अहंकार की तुष्टि से अधिक जुड़े हैं। ३१दिन वाले जूलियस सीज़र के नाम के महीने के एकदम बाद आगस्टस नें, अपने नाम वाले महीने में भी ३० की जगह ३१ दिन कर दिए। पोप ग्रेगेरियन (रोम के १३वें पोप) नें तो तब प्रचलित जूलियन कैलेंडर के ईसवी सन् १५८२ में नेपुलस् के ज्योतिषी एलाय सियस लिलियस (Aloysitus lilius) के परामर्श से १५८२ ईस्वी में ५ अक्टूबर को (१० दिन जोड़कर), अक्टूबर की १५ वीं तिथि घोषित कर, निश्चित किया। इस तरह कैलेंडर में १० दिन जोड़ कर अर्थात सन् १५८२ के वर्ष से १० दिन गायब कर - - - - वर्तमान वाला ईसाई कैलेंडर चलाया गया ?</div><div> इस नवीन पद्धति (नये कैलेंडर) को ईसाई धर्मावलंबी राष्ट्रों नें अलग - अलग वर्षों में अपनाया----</div><div> १५८२ ई. में इटली, फ्रांस, स्पेन और पुर्तगाल नें ! प्रशिया, जर्मनी के रोमन कैथोलिक प्रदेश स्विट्जरलैंड, हॉलैंड और फ़्लैंडर्स ने १५८४ ई॰ में!</div><div>पोलैंड ने १५८६ ई॰ में!</div><div>हंगरी ने १५८७ ई॰ में!</div><div>जर्मनी और नीदरलैंड के प्रोटेस्टेंट प्रदेश तथा डेनमार्क ने १७०० ई॰ में !</div><div>ब्रिटिश साम्राज्य ने १७५२ ई॰ में,</div><div>जापान ने १९७२ ई॰ में !</div><div>चीन ने १९१२ ई॰ में! बुल्गारिया ने १९१५ ई॰ में! तुर्की और सोवियत रूस ने १९१७ ई॰ में !</div><div> युगोस्लाविया और रोमानिया ने १९१९ ई॰ में अपनाया।</div><div>इन ईसाई देशों में से साम्राज्यवादी शक्तियों नें जहां भी अपने उपनिवेश स्थापित किए, उन देशों पर अपना कैलेंडर ज़बरदस्ती लाद दिया !!!!</div><div>वैज्ञानिक पद्धति के भारतीय पंचांग को दरकिनार कर, एक नहीं कई विसंगतियों से भरा ये नववर्ष , भारत में भी कंपकंपाती ठंड से शुरू होता है- - - - ये ग्रैगेरियन कैलेंडर का "न्यू ईयर "!! </div><div>आइए, ज़रा सेप्टेंबर से दिसंबर तक के अंकों की गणना अर्थात गिनती भी कर लें ।</div><div>सितंबर (लैटिन सेप्टम से, "सात") या सितंबर मूल रूप से (प्राचीन "रोमन कैलेंडर" जो दस महीनों का था) में सातवां था। प्राचीन "रोमन कैलेंडर" भी विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों की तरह मार्च माह, मार्शियस से शुरू हुआ था (मंगल के महीने) " </div><div>-ऑक्टो, रोमन "आठ" के लिए। "नौवेम, रोमन के लिए "नौ और दिसंबर का नाम डेसेम से आया है। लैटिन "दस" के लिए प्रयुक्त होता है। </div><div>(September (from Latin septem, "seven") or September was originally the seventh of ten months. On the ancient "Roman calendar" that began with March Martius, "Mars' month".</div><div>-octo, Latin for “eight. "novem, Latin for “nine. December's name come from decem, Latin for “ten."-) </div><div>इस प्रकार ग्रेगेरियन कैलेंडर के नवें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें महीने के लिए प्रयुक्त होने वाले नाम, अपने वास्तविक अर्थो में सात, आठ, नौं और दस अंक हैं। अर्थात बारहवें को दसवां महीना बताकर बने बारह महीनों के कैलेंडर को हमनें अपने ज्योतिष की प्रामाणिक गणनाओं, सूर्य-चंद्र व राशियों पर आधारित (पंचांग) अर्थात भारतीय कैलेंडर के स्थान पर क्यों अपनाना चाहते हैं ? - - - - सिवाय औपनिवेशिकता के कारण थोपे गए प्रभाव के अतिरिक्त ? </div><div>पर हम सब जानते हैं कि किसी भी सत्य को जानने, तथ्य को मानने और - - - - कार्यरूप में बदलने में 🙄 बहुत बड़ा अंतर होता है। </div><div>जनवरी में कैलेंडर बदलने की परंपरा हमारे स्वाधीन भारतवर्ष से हट जाती तो !!!! - - - - मेरा निजी दृष्टिकोण यह है कि खुशियों के लिए द्वार बंद करने की परंपरा हमारी संस्कृति में सिखाई ही नहीं जाती परंतु अपनी संस्कृति व वैज्ञानिक विरासत के प्रति हमारी निष्ठा अक्षुण्ण रहनी चाहिए। 🙏💐</div><div>भारतीय जनमानस द्वारा स्वीकृत विक्रम संवत ही भारतीय पर्व-त्यौहारों व शुभ-अशुभ ज्योतिषीय गणनाओं का आधार है। परंतु जाने किस वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण संवैधानिक रूप से शक संवत को अपनाया गया। </div><div>सत्य यह है कि भारतीय विक्रम संवत ईसवी सन् से ५७ वर्षों का अंतर लिए है । इस समय ईसवी सन् २०२०और विक्रम संवत २०७७ चल रहा है और - - - - शक संवत ७८ वर्ष पीछे है, २०२० - ७८ = १९४२ इस प्रकार अभी शक संवत १९४२ चल रहा है। स्वयं को अंग्रेजों से कमतर करके आंकने वाली मानसिकता भारतीय जनमानस की इच्छाओं का सम्मान नहीं कर रही है। </div><div>काश ! संवैधानिक स्वीकृति के साथ कार्यरूप में जनवरी में कैलेंडर बदलने की परंपरा हमारे स्वाधीनता के इस महीने में बदल पाती !! </div><div> - - - - हम कब तक तीन नववर्ष मनाऐंगे ? खुशियों के लिए द्वार बंद करने की परंपरा अपनी संस्कृति में सिखाई जो नहीं जाती शायद - - - - इसलिए अनापेक्षित - आपेक्षित - - - - सब स्वीकार करते जाते हैं। <br></div><div> 🙏स्वर्णअनिल🌷🌷🌷🌷</div><div><br></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-77342276285802160852023-06-12T10:52:00.000-07:002023-07-21T10:53:06.745-07:00श्री नेक चंद जी का अप्रतिम रॉक उद्यान !! <div><b>नमन अप्रतिम कलाशिल्पी पद्मश्री नेक चन्द जी को श्रद्धाँजलि 💐💐💐💐</b></div><div><b>चंडीगढ़ का रॉक-गार्डन! विश्व के पर्यटकों को आकृष्ट करता है। २४ जनवरी १९७६ में, सारी विरोधी स्थितियों के बावजूद अपनी कलात्मक सृजनशीलता का लोहा मनवा कर श्री नेकचन्द जी ने हज़ारों लोगों की उपस्थिति में रॉक-गार्डन का औपचारिक उदघाटन किया था। रॉक-गार्डन की प्रसिद्धी के कारण सन् १९८३ में डाक-टिकट जारी की गई थी।१९८४ में इस कुशल कलाकार की प्रतिभा का सम्मान भारतीय सरकार ने उन्हें पद्मश्री प्रदान कर किया था। </b></div><div><b>रॉक गार्डन चण्डीगढ़, भारत का एक अप्रतिम वैशिष्ट्य लिए मूर्तिकला उद्यान है क्योंकि य उद्यान पूर्णत: औद्योगिक, घरेलू कबाड़ एवं फेंक दिए गए सामान से बनाया गया है। इसे नेक चंद रॉक गार्डन के नाम से भी जाना जाता है। श्री नेक चंद एक सरकारी कर्मचारी थे और उन्होंने वर्ष१९५७ में अपने खाली समय में चुपचाप इसे बनाना प्रारंभ किया। पंजाब के रहने वाले लोकनिर्माण विभाग में१९५१ में सड़क निरीक्षक के पद पर कार्यरत नेकचंद जी ने प्रसिद्ध सुखना झील के निकट जंगल के एक छोटे से हिस्से को साफ करके औद्योगिक और शहरी कचरे की मदद से एक उद्यान सजाकर लोगों को एक अनूठी जादुई दुनिया से परिचित करवाया। इसका उद्घाटन वर्ष १९७६ में किया गया था।आज यह ४० एकड़ से अधिक क्षेत्र में फैला हुआ है। नवीकृत सिरेमिक से बनाई गई कलाकृतियों के लिए विश्व-विख्यात यह उद्यान आज विश्व में भारत की पहचान है।</b></div><div><b>रॉक गार्डन में आने वाले पर्यटक यहां की मूर्तियों, मंदिरों, महलों आदि को देखकर अचरज में पड़ जाते हैं। रॉक गार्डन में झूलों, झरनों, सरोवर, नौकायन, घुमावदार रास्तों सहित १४ चित्ताकर्षक विभाग हैं। के झरने, धाराओं, पुलों, मार्गों और हरे-भरे वनस्पतियों के लिए भूनिर्माण तत्व शामिल हैं। दीवारें सुंदर सिरेमिक टाइलों से बनी हैं। बगीचे के झरने, धाराओं, पुलों, मार्गों और हरे-भरे वनस्पतियों के लिए भूनिर्माण तत्व शामिल हैं। दीवारें सुंदर सिरेमिक टाइलों से बनी हैं। एक कृत्रिम पहाड़ी झरने की जलधाराएँ पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है । </b><b>जलप्रपात से बाहर निकल कर वनस्पतियों की हरियाली का खुला क्षेत्र है।</b><b> मिरर गैलरी और एक्वेरियम है। पर्यटकों के बैठने ,अल्पाहार के आनंद की </b><b>व्यवस्था भी है। </b></div><div><b>खुले प्रांगण क्षेत्र के बाद,एक गुड़िया संग्रहालय है जिसका रूपाकार एक ग्रामीण परिवेश के दैनिक क्रियाकलापों पर आधारित है। </b><b>गुड़िया संग्रहालय के अंत में एक कमरा है जो चित्रों के माध्यम से उद्यान निर्माण की घटनाओं के कालक्रम को दर्शाता है ।</b></div><div><b>सुरुचिपूर्ण नवीनता और कल्पनाशीलता को दर्शाते इस गार्डन में कई मूर्तियां हैं, जो घर के बेकार समानों जैसे टूटी हुई चूड़ी, चीनी मिट्टी के बर्तन, तार, ऑटो पार्ट्स और ट्यूब लाइट से बनी हैं। भवन के कचरे, खेलने की गोलियां और टेराकोटा बर्तन को भी गार्डन में भवन, मानवीय चेहरे और जानवरों सहित अनेक रूपों में प्रदर्शित किया गया है। यह अद्भुत गार्डन हर दिन सुबह ९ बजे खुल जाता है। यहां का मुक्ताकाश रंगमंच भी आकर्षित करता है।<br></b></div><div><b>हमें नेकचंद जी के रॉक गार्डन आकर मानव की सकारात्मक भूमिका के दर्शन होते हैं। साकार कल्पनाओं के जीवंत परिचय से इस सत्य का भान होता है कि एक व्यक्ति की अप्रतिम कल्पना और परिश्रम ने एक कैसी अद्भुत दुनिया रच डाली है ! इस अतुलनीय दुनिया में, हर एक के भीतर छिपकर बैठा बच्चा खुशियों से भर जाता है ....!! </b><br></div><div><b>नमन एक अद्वितीय कलाकार को उनके महाप्रयाण दिवस पर ।🙏</b></div><div><b>🙏🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🙏</b><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiDCpWCIFtNQUwkcx782NNxHECIgRkygpi4CKFSx3XyvaH3nYfVe9qiKjIfn-HiXgRuML-8aLl511pINzBYzYkF1QNTywBYtzi7Ww3bxX6q51XgAygxAjB9JtlEU6-ENr6RQ6l7ewjv19s/s1600/1666411760982411-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div>धन्वंतरि त्रयोदशी सर्वत्र आरोग्यता और शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक शुचिता का वरदान लाए। 🙏🌷<br></div><div>समुद्र-मंथन के विश्वविख्यात कथानक में,कार्त्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, भगवान धन्वन्तरी जी को समर्पित है।</div><div>समुद्र-मंथन " देवताओं और दैत्यों के सामूहिक प्रयास से हुआ था---- यह एक विश्वप्रसिद्ध घटना मानी जाती है । इसके पीछे की प्रतीकात्मकता चाहे "मिल्की-वे" की खगोलीय घटना से जुड़े या धरती की ज्योतिषीय स्थितियों से - - - - परंतु इसके साधारण अभिधेयार्थक कथानक में इस "मंथन" से हलाहल, कामधेनु, उच्चैश्रवा, ऐरावत, अप्सराएँ , वारुणि, कौस्तुभमणि, कल्पवृक्ष, चंद्रमा, लक्ष्मीजी आदि के प्राकट्य के साथ-साथ हाथ में अमृत से परिपूर्ण स्वर्ण कलश लिये " धन्वंतरि " प्रकट हुए हैं । अमृत के वितरण के पश्चात् देवराज इंद्र की प्रार्थना पर भगवान धन्वंतरि ने देव-वैद्य का पद स्वीकार कर लिया। अमरावती उनका निवास बनी। कालक्रम में जब पृथ्वी पर मनुष्य रोगों से अत्यन्त पीड़ित हो गये तब देवराज इंद्र ने धन्वंतरि जी से प्रार्थना की। काशी के राजा दिवोदास को उनका अवतार (वंशज) कहा जाता है। इनकी 'धन्वंतरि-संहिता' आयुर्वेद का मूल ग्रंथ है। आचार्य सुश्रुत ने इनसे ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। भगवान धन्वंतरि को आयुर्वेद के प्रणेता तथा वैद्यक शास्त्र के देवता के रूप में जाना जाता है। </div><div>ऋग्वेद में आयुर्वेद का उद्देश्य, वैद्य के गुण-कर्म, विविध औषधियों के लाभ तथा शरीर के अंग और अग्निचिकित्सा, जल-चिकित्सा, सूर्य-चिकित्सा, शल्य- चिकित्सा, विष-चिकित्सा आदि का विस्तृत विवरण प्राप्त होता है।ऋग्वेद में ६७ आयुर्वेद की औषधियों का उल्लेख मिलता हैं। </div><div>यजुर्वेद में आयुर्वेद से सम्बन्धित निम्नांकित विषयों का वर्णन प्राप्त होता है : विभिन्न औषधियों के नाम, शरीर के विभिन्न अंग, वैद्यक गुण-कर्म चिकित्सा, निरोगता, तेज वर्चस् आदि। इसमें ८२ औषधियों का उल्लेख दिया गया है।वेदों में आयुर्वेद से सम्बन्धित सैकड़ों मन्त्रों का वर्णन है, जिसमें विभिन्न रोगों की चिकित्सा का उल्लेख है। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद - इन चारों वेदों में अथर्ववेद को ही आयुर्वेद की आत्मा माना गया है।अथर्ववेद में सर्वाधिक २८९औषधियों का उल्लेख किया गया है। </div><div> महर्षि व्यास द्वारा रचित 'श्रीमद्भागवत ' के अनुसार धन्वन्तरि को भगवान विष्णु का अंश व अवतार कहा गया है। 'महाभारत 'में उन्हें लोक-कल्याण के लिए अवतार लेने वाला बताया गया है।</div><div> भारतीय सामाजिक जीवन में पर्वों की एक अटूट परंपरा सदियों से विद्यमान है। पृथ्वी के आदि वैद्याचार्य धन्वंतरी जी महाराज की जयंती है। अपने मौलिक रूप में यह रोग रहित स्वस्थ जीवन की कामना का पर्व है। निरोग शरीर ही जीवन का सबसे बड़ा धन है। श्रीमद्भागवत पुराण के अनुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष त्रयोदशी के दिन समुद्र मंथन से वैद्यराज धन्वंतरि अमृत कलश के साथ अवतरित हुए थे। इसी की स्मृति में 'धन्वंतरि - त्रयोदशी' का पर्व अस्तित्व में आया, जो कालांतर में अपभ्रंश में बदलकर 'धनतेरस' के रूप में हमारी परंपरा का अभिन्न अंग बन गया। पौराणिक प्रसंग के अनुसार, समुद्र मंथन से भगवान धन्वंतरी जी ने अपने प्राकट्य के उपरांत नारायण भगवान से आग्रह किया -'भगवन्, मुझे आवास और यज्ञों में भाग प्राप्त करने की व्यवस्था दें।' इस पर ईश्वर ने कहा- 'सौम्य, तुम्हें द्वितीय जन्म में सार्थकता प्राप्त होगी, तब तुम्हें धरती पर अक्षय यश और देवत्व प्राप्त होगा।' तदनुसार हरिवंश पुराण के अनुसार, महर्षि दीर्घतमा के पौत्र एवं धन्व के पुत्र हैं - धन्वंतरी।</div><div>काश्यप और सुश्रुत संहिताओं में भगवान धन्वंतरि को, 'आदि देव ' कहा गया है। आयुर्वेद के प्रचार, प्रसार और निरंतर संवर्द्धन के लिए समर्पित आचार्यों को, धन्वंतरी मानते हुए भारतीय मनीषा अवतार ही मानती आई है। इस संदर्भ में धन्वंतरि, काशीराज और दिवोदास की विशेष चर्चा मिलती है। दिवोदास धन्वंतरि ने शल्य प्रधान अष्टांग आयुर्वेद का प्रवर्तन किया और विश्वामित्र के पुत्र सुश्रुत सहित आठ शिष्यों को इसके प्रसार का दायित्व दिया। कालांतर में धन्वंतरी की एक परंपरा विकसित हुई है। योग्य आयुर्वेदाचार्य धन्वंतरि के ही नाम से विख्यात होने लगे। उज्जैन के विश्वविख्यात सम्राट विक्रमादित्य के नौ रत्नों में जिन धन्वंतरी का प्रमाण मिलता है वे इसी परंपरा का प्रमाण देते हैं। धन्वंतरी परंपरा के अंतर्गत आयुर्वेद में औषधि विज्ञान के क्षेत्र को इतना व्यापक बनाया गया था कि प्रायः सभी रोगों का निदान व उपचार इसमें समाहित था। आयुर्वेदाचार्यों की ख्याति देश-देशांतरों में फैली थी। इसके लिखित दस्तावेज हैं कि रोम, मिश्र, फारस, यूनान तक के रोगी इनके पास आते थे । आयुर्वेद आचार-विचार और प्रकृति के साथ उचित समन्वय स्थापित कर स्वास्थ्यपूर्ण जीवन के मूलमंत्रों से जन-जन को परिचित कराता है।</div><div>प्राचीन काल में धन्वंतरी - त्रयोदशी का दिन विधि- विधान से भगवान धन्वंतरी की सामूहिक पूजा- अर्चना और आयुर्वेद के विकास के संबंध में गंभीर सत्रों एवं संगोष्ठियों के आयोजनों को समर्पित होता था जिसमें आयुर्वेदाचार्यों द्वारा स्वास्थ्य संबंधी सामाजिक समस्याओं और अनुभवों का आदान प्रदान करते थे।</div><div>मेरा निजी मत है कि बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों से निहित स्वार्थों के कारण आयुर्वेद का अवमूल्यन किया गया है । वास्तव में वर्तमान समय में, हमारी सहस्राब्दियों पुरानी प्रकृति के संतुलन से जुड़ी आहार-व्यवहार की परंपरागत पद्धतियों को विश्व अपना रहा है। </div><div>भारतीय संस्कृति का प्रत्येक पर्व अपने धार्मिक अनुष्ठानों के साथ-साथ लोक मंगल और मूल्यों की व्यवस्था से जुड़ा रहता है।आरोग्यता की अकाट्य विरासत से जुड़ा " धन्वंतरी त्र्योदशी '' का पावन पर्व "धनतेरस " के अपभ्रंश नाम से जुड़ा जो लोक में इस उत्सव की लोकप्रियता एवं मान्यता का प्रमाण है।</div><div>वर्तमान की बाजारवादी सभ्यताओं नें "धन" को मात्र भौतिक संपन्नता से जोड़कर सोना- चांदी - स्टील और विभिन्न धातुओं के आभूषणों व बर्तनों की खरीददारी से जोड़ दिया गया है जिसने दैहिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास से जुड़े आयुर्वेद से धन्वंतरी त्र्योदशी का संबंध ही दूर कर दिया है।</div><div>इस दिशा में एक प्रयास आज के दिन को वर्ष २०१७ से "आयुर्वेद - दिवस" के रूप में मनाने की घोषणा ने तो किया है परंतु मीडिया के माध्यम से इसे कोई स्थान नहीं दिया जा रहा है।</div><div>तो आईए कोरोना काल से सबक लेकर भारतीय संस्कृति के धन्वंतरी-त्रयोदशी के वास्तविक मूल्यों को पुनः स्थापित करें - - - - और आज दक्षिण दिशा में ' यमदीपक ' प्रज्ज्वलित कर, मृत्यु के भय से विमुक्त होकर, स्वस्थ जीवन जीने हेतु भगवान धन्वन्तरी के आह्वान के लिए उद्घोष करें :----</div><div>"सत्यं च येन निरतं रोगं विधूतं,अन्वेषित च सविधिं आरोग्यमस्य।</div><div>गूढं निगूढं औषध्यरूपम्, धन्वन्तरिं च सततं प्रणमामि नित्यं।।"</div><div>भगवान धन्वंतरी के अवतरण की त्रयोदशी प्राणी-मात्र के जीवन को आरोग्यता से परिपूर्ण करने का संदेश देती है।</div><div> धन्वंतरी त्रयोदशी सभी को आरोग्यता और स्वास्थ्य लाभ प्रदान करे.... शुभकामनाएँ।</div><div> 🙏स्वर्ण अनिल ।।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-32208872205822578332022-07-25T03:06:00.001-07:002022-07-25T03:06:31.597-07:00विरह का सुल्तान :शिव कुमार बटालवी !! <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgpJBCFHvDMLZQVNJTx-YipDc9IgW9kAANiDmUHHWaMiB17IAdsAEj-b0DaFNLsgWSKboS85oYqoN_psEeFrevZTrvKekguqPCzYuxmKU5GuXiJ2usoYf4jEeKvL3GSRdcVhpuy_09JCL0/s1600/1658743571043821-0.png" width="400">
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</div><div>“आज दिन चढ़ेया तेरे रंग वरगा फूल सा है खिला आज दिन” लिखने वाले शिव कुमार बटालवी "विरह के सुल्तान " कहे जाते हैं। हमारे पिताजी उनको आज के युवा वारिस शाह कहते थे। </div><div>"मैं इक शिकरा यार बणाया</div><div>चूरी कुट्टा ता ओ खांदा नाहीं वे</div><div>असा दिल दा मांस खवाया</div><div>इक्क उड़ारी ऐसी मारी</div><div>ओ मुड़ वतनी न आया।ओ माए नी माए! </div><div>मैं इक शिकरा यार बणाया !!"</div><div>" की पुछदे ओ हाल फकीरां दा</div><div>साडा नदियों विछड़े नीरां दा</div><div>साडा हंज दी जूने आयां दा</div><div>साडा दिल जलयां दिल्गीरां दा! "</div><div> उनकी कविताओं में प्रियतम की निष्ठुरता, विरह, मृत्यु, प्रेम, करुणा की गहन अनुभूतियों के साथ-साथ गांव की मिट्टी की महक, परंपराओं के स्वर सुनाई देते हैं। इन सब की सौंधी मिट्टी सी सुगंध नें शिव कुमार बटालवी के प्रति मेरे भीतर गहरा लगाव भर दिया ।</div><div> 'बिरह के सुल्तान' शिव कुमार बटालवी जी की सशक्त लेखनी से मेरा परिचय "लूणां" के माध्यम से हुआ।</div><div>पूरन भगत के, पंजाब में प्रचलित परंपरागत कथानक के पात्रों को उनकी संवेदनशीलता ने अपने रंग में रंग कर नया स्वरूप प्रदान किया। चंबा (वर्तमान हिमाचल प्रदेश) के वन प्रांतर में सूत्रधार और नटी के बीच हुए संवादों से कथा का प्रारंभ होता है। चंबा के राजा वरमन अपने जन्मदिवस दिवस के उत्सव में सियालकोट (वर्तमान पंजाब, पाकिस्तान) के राजा सलवान को आमंत्रित करता है। चंबा की छोटी जाति की लूणा के सौंदर्यसंपन्न स्वरूप को देखकर राजा सलवान उससे विवाह कर लेता है। राजा सलवान के पुत्र के आयुवर्ग की इस युवती की मर्मांतक पीड़ा को शिव कुमार बटालवी ने पुरुष होते हुए भी जिस गहराई से अनुभव है उसी गहनता से लिखा भी। </div><div>२८ वर्ष की अवस्था में वर्ष १९६५ में अपनी इसी अद्वितीय कृति "लूणा" के लिए शिव कुमार बटालवी को "साहित्य अकादमी पुरस्कार" मिला। उस समय साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले वे सबसे कम आयु के साहित्यकार थे। </div><div>२३ जुलाई १९३६ को, बटालवी का जन्म सियालकोट (पाकिस्तान) के गांव बड़ा पिंड लोहतियां में हुआ था। देश के बंटवारे के समय बटालवी जी का परिवार पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत में पंजाब के गुरदासपुर जिले के बटाला में आ गया था।</div><div>बटाला के प्रति उनकी आत्मीयता का परिचय अपने नाम के साथ जोड़े गए बटालवी शब्द से वे स्वयं देते हैं। उनकी जीवन गाथा पीड़ा की निरंतरता की कहानी कहती है। कारण कई हैं - - - - </div><div>"लोहे दे इस शहर विच पित्तल दे लोक रहन्दे</div><div>सिक्के दा बोल बोलण शीशे दा वेस पाउंदे " </div><div>इस पीड़ा को झेलने वाले शिव कुमार बटालवी नें</div><div><div>💐 विरह का सुल्तान :शिव कुमार बटालवी जी ने अपने राम जी से पूछा - - - - </div><div>तुसीं केहड़ी रुत्ते आए मेरे राम जी! <br></div><div>जदों बाग़ीं फुल्ल कुमलाए मेरे राम जी !! </div><div>किथे सउ जद जिन्द मजाजण</div><div>नां लै लै कुरलाई</div><div>उमर-चन्दोआ तान विचारी</div><div>ग़म दी बीड़ रखाई</div><div>किथे सउ जद वाक लैंद्यां</div><div>होंठ ना असां हिलाए</div><div>मेरे राम जीउ</div><div>हुन तां प्रभ जी ना तन आपणा</div><div>ते ना ही मन आपणा</div><div>बेहे फुल्ल दा पाप वडेरा</div><div>द्युते अग्गे रक्खणा</div><div>हुन तां प्रभ जी बहुं पुन्न होवे</div><div>जे जिद खाक हंढाए</div><div>मेरे राम जीउ ।</div><div>तुसीं केहड़ी रुत्ते आए</div><div>मेरे राम जीउ ।</div><div>जदों बाग़ीं फुल्ल कुमलाए</div><div>मेरे राम जीउ ।---- </div></div><div>---- और अपने प्रभु जी से "जिद खाक हंढाए" कहकर ७ मई १९७३ में सिर्फ ३६ वर्ष की अल्पायु में सिर्फ़ शहर नहीं दुनिया से भी विदा ले ली। </div><div> २४ वर्ष की आयु में शिव कुमार बटालवी की कविताओं का पहला संकलन "पीड़ां दा परागा" प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त उन की प्रसिद्ध काव्य रचनाएँ हैं :---- "लाजवंती", "आटे दीयां चिड़ियां", "मैनूं विदा करो", "दर्दमन्दां दीआं आहीं", "मैं ते मैं" "आरती" और "बिरह दा सुल्तान"।</div><div>पीड़ां दा परागा पुस्तक में अपने जन्मदिन पर लिखी बटालवी जी की कविता है - - - - </div><div>💐"आपनी सालगिरहा ते" 💐</div><div>बिरहन जिन्द मेरी नी सईओ</div><div>कोह इक होर मुकायआ नी ।</div><div>पक्का मील मौत दा नज़रीं</div><div>अजे वी पर ना आया नी ।</div><div>वर्हआं नाल उमर दा पाशा</div><div>खेडदिआं मेरी देही ने,</div><div>होर समें हत्थ साहवां दा</div><div>इक सन्दली नरद हरायआ नी ।</div><div>आतम-हत्त्या दे रथ उत्ते</div><div>जी करदै चढ़ जावां नी,</div><div>कायरता दे दम्मां दा</div><div>पर किथों दिआं किरायआ नी ।</div><div>अज्ज कबरां दी कल्लरी मिट्टी</div><div>ला मेरे मत्थे माए नीं</div><div>इस मिट्टड़ी 'चों मिट्ठड़ी मिट्ठड़ी</div><div>अज्ज ख़ुशबोई आए नी ।</div><div>ला ला लून खुआए दिल दे</div><div>डक्करे कर कर पीड़ां नूं</div><div>पर इक पीड़ वसल दी तां वी</div><div>भुक्खी मरदी जाए नी ।</div><div>सिदक दे कूले पिंडे 'ते</div><div>अज्ज पै गईआं इउं लाशां नी</div><div>ज्युं तेरे बग्गे वालीं कोई</div><div>काला नज़रीं आए नी ।</div><div>नी मेरे पिंड दीयो कुड़ीयो चिड़ीओ</div><div>आयो मैनूं दिओ दिलासा नी</div><div>पी चल्लिआ मैनूं घुट्ट-घुट्ट करके</div><div>ग़म दा मिरग प्यासा नी ।</div><div>हंझूआं दी अग्ग सेक सेक के</div><div>सड़ चल्लियां जे पलकां नी,</div><div>पर पीड़ां दे पोह दा अड़ीओ</div><div>घट्या सीत ना मासा नी ।</div><div>ताप त्रईए फ़िकरां दे नी</div><div>मार मुकाई जिन्दड़ी नी,</div><div>लूस ग्या हर हसरत मेरी</div><div>लग्ग्या हिजर चुमासा नी ।</div><div>पीड़ां पा पा पूर लिआ</div><div>मैं दिल दा खूह खारा नी ।</div><div>पर बदबखत ना सुक्क्या अत्थरा</div><div>इह करमां दा मारा नी ।</div><div>अद्धी रातीं उट्ठ उट्ठ रोवां</div><div>कर कर चेते मोयां नूं</div><div>मार दुहत्थड़ां पिट्टां जद मैं</div><div>टुट्ट जाए कोई तारा नी ।</div><div>दिल दे वेहड़े फूहड़ी पावां</div><div>यादां आउन मकाने नी,</div><div>रोज़ ग़मां दे सत्थर सौं सौं</div><div>जोड़ीं बह ग्या पारा नी ।</div><div>सईयो रुक्ख हयाती दे नूं</div><div>कीह पावां मैं पानी नी ।</div><div>स्युंक इश्क दी फोकी कर गई</div><div>इहदी हर इक टाहनी नी ।</div><div>यादां दा कर लोगड़ कोसा</div><div>की मैं करां टकोरां नी ।</div><div>पई बिरहों दी सोज कलेजे</div><div>मोयां बाझ ना जानी नी ।</div><div>डोल्हि इतर मेरी ज़ुलफ़ीं मैनूं</div><div>लै चल्ले कबरां वल्ले नी,</div><div>खौरे भूत भुताने ही बण</div><div>चम्बड़ जावन हानी नी ।</div><div> *******</div><div>विरह के सुल्तान को श्रद्धाँजलि अर्पित करने के लिए मुझे उनके ही सुरीले, अंतरात्मा को झकझोरते सुरों की स्वराँजलि उपयुक्त लगती है क्योंकि अपने लिखे शब्दों की गहनता को लेखक का संवेदनशील स्वर, पाठक को श्रोता बनाकर और अधिक गहराई से समझा सकता है। 🙏 🌷🌷डॉ स्वर्ण अनिल ।</div><div><br></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-3548069477364092982022-06-24T01:41:00.001-07:002022-06-25T23:03:59.118-07:00सूर्य की दक्षिणायन यात्रा ! <div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgBK_VvGoAnnOtKidpl6sHBz6WW2KDIaWam2UFltGDOk35N9tVytE-ZQu4ns360i1109tXMjo3-mt0O2VObGBOn7ALXY7BFEsoXSsbam8RwmgA6qwEQYDv_7tgFZ4wu-xX3Q8byLx0OsVU/s1600/1656060105898884-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div> २०२२ को दक्षिणायन की ओर पहला कदम बढ़ाते सूर्य के चारों ओर फैले प्रभा-मंडल से हमें आदिगुरू दक्षिणमूर्त्ति भगवान शिव के परम कल्याणकारी स्वरूप की स्मृति आ रही है। " गुरवे सर्वलोकानां दक्षिणामूर्तये नम:।। " दक्षिणायन ही वो समय है जब लोक-कल्याण को समर्पित शिव ने दक्षिणमूर्त्ति बनकर सप्तऋषियों को नाद /संगीत , योग, विज्ञान और सभी शास्त्रों का ज्ञान प्रदान किया था।उन्होंने सप्तऋषियों को इस ज्ञान को मानवमात्र तक पहुँचाने का उत्तरदायित्व सौंपा। मदुरई के विश्वविख्यात मीनाक्षी मंदिर का उल्लेख प्राचीनतम तमिल संगम साहित्य में मिलता है उस मंदिर में भी नादयोग से परिचित करवाते दक्षिणमूर्ति के सुंदर विग्रह भी इस सत्य की घोषणा करते हैं। युवा गुरु से वृद्ध शिष्य परावाक् के माध्यम से, मौन रहकर, नयन मूंद कर ज्ञानार्जन कर रहे हैं। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div><div><strong><em>चित्रं वटतरोर्मूले वृद्धाः शिष्याः गुरुर्युवा | गुरोस्तु मौनं व्याख्यानं शिष्यास्तु च्चिन्नसंशयाः ||</em></strong><br></div><div>मेरी निजी धारणा है कि जिस तरह मनुष्य के मस्तिष्क का बाँया /उत्तरी भाग तार्किकता (Logic) और दाहिना /दक्षिणी भाग मानव की सृजनशीलता (creativity) को संचालित करता है......., उसी तरह उत्तरायण में तार्किक ज्ञान (Logical knowledge ) पर बल देने वाले हमारे पूर्वजों ने भी भारतीय सभ्यता के उत्कर्ष काल में दक्षिणायन के समय को तार्किक (logical) ज्ञान से अलग सृजनात्मकता से जोड़कर मानव के सर्वांगीण विकास का मार्ग प्रदर्शित किया था।मानवतावादी विचारों की पोषक भारतभूमि को नमन, वसुधा को कुटुम्ब मानने वाली संस्कृति को नमन।</div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-86764805026711195232022-05-31T08:38:00.001-07:002022-05-31T08:39:37.276-07:00🌳एक अक्षयवट यह भी !! <div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiFF9AwvW2M1XnEMG6e-JzwA-PbgxYbOk-xeZ8DOcu-ezZH95lfDAjJa9scgHBxLJ9aRINtijWmkplR31u6MQ58Ump9ygVCTihcxm3ARb7Hp0kHzQvhrS459GrDWngFeyqcMZeMYNRNPZg/s1600/1654011524144799-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div>जेष्ठ माह की अमावस्या, भारतीय संस्कृति के वट-सावित्री व्रत की पावनता की कथा कहती है। इस कथा में वटवृक्ष के महत्व की जानकारी इसके नाम से ही मिल जाती है। भगवान विष्णु को बाल रूप में वट पत्रशायी कहा गया है। </div><div>भारतीय संस्कृति को आरण्यक संस्कृति इसलिए कहा जाता है क्योंकि हमारे पूर्वज इस सत्य को जानते थे कि हमारी पृथ्वी का अस्तित्व इसकी पर्यावरण की समृद्धि पर टिका हुआ है और इस समृद्धि का प्राण तत्व है प्रकृति। प्रकृति में वनों अर्थात अरण्यों की भूमिका सर्वाधिक है। </div><div>पर्यावरण के प्रति संवेदनशील हमारे पूर्वजों अर्थात ऋषियों ने अपनी तपस्थली, आवास और आश्रमों में पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने वाले दीर्घजीवी एवं स्वास्थ्य के लिए उपयोगी वृक्षों को लगाया और उनके महत्व को देखते हुए उनके संरक्षण और संवर्धन के लिए उन्हें पूजनीय भी बनाया। पुरातन काल से हम वृक्षों का देवता के समान पूजन करते आए हैं। हमारे ऋषि-मुनियों एवं पूर्वजों नें प्रायः प्रत्येक कार्य के श्रीगणेश से पूर्व प्रकृति को पूजने की परंपरा को जीवन का अभिन्न अंग बनाया।वृक्ष हमारी प्रार्थनाओं में हैं -</div><div>"अश्वत्थो वटवृक्ष चन्दन तरुर्मन्दार कल्पौद्रुमौ।</div><div>जम्बू-निम्ब-कदम्ब आम्र सरला वृक्षाश्च से क्षीरिणः।।" </div><div>भारत की चिरंतन संस्कृति से पल्लवित हुए सनातन धर्म में वृक्षों को देवताओं का निवास स्थान माना है। महाभारत के भीष्म पर्व में वृक्ष</div><div>को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है -" सर्वकाम फलाः वृक्षा।" </div><div><div>पद्य पुराण में भगवान विष्णु को अश्वत्थ रूप, वट को रूद्र रूप और पलाश</div><div>को ब्रह्म रूप बताया गया है - अश्वत्थ रूपी भगवान विष्णुरेव न संशयः। रूद्ररूपी वटस्तदूत पालाशो ब्रह्मरूपधृक। " महाभारत एवं रामायण में वृक्षों के प्रति मनोरम कल्पना की गई है। महाभारत के भीष्म पर्व में वृक्ष को सभी मनोरथों को पूरा करने वाला कहा गया है -" सर्वकाम फलाः वृक्षा।" वाराह पुराण में उल्लेख किया गया है कि जो पीपल, नीम या बरगद का एक, अनार या नारंगी के दो, आम के पाँच एवं लताओं के दस वृक्ष लगाता है वह कभी भी नारकीय पीड़ा को नहीं भोगता है और न ही नरक-यात्रा करता है। "अश्वत्थमेकं पिचुमन्दमेकं न्यग्रोधमेकं दशपुष्पजातीः।</div><div>द्वे द्वे तथा दाऽममातुलंगे पंचाम्ररोपी नरकं न याति।" वट, पीपल,आँवला, बेल, कदली, पदम वृक्ष तथा परिजात को देव वृक्ष माना गया है। भारतीय संस्कृति से धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का अत्यधिक महत्व है। वेदों एवं उपनिषदों में वृक्षों के महत्व को विस्तार से समझाया गया है। प्राणीजगत के स्वास्थ्य में उनके औषधीय प्रयोग करने की महत्वपूर्ण विधियों का अनुसंधान व प्रयोग किया गया है। वास्तव में वृक्षों की अर्चना, वंदना एवं प्रार्थना के पीछे कोई कर्मकाण्ड नहीं है। इनके पीछे मानवोपयोगी वैज्ञानिक तथ्य छिपे हुए हैं। स्वास्थ्य एवं आयुर्वेद की दृष्टि में उपयोगी तथा पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण ज्ञान को धार्मिक आस्था के रूप में परिवर्द्धित किया गया। पृथ्वी सूक्त में लिखा है कि वन तथा वृक्ष वर्षा लाते हैं। मिट्टी को बहाने से बचाते हैं साथ ही बाढ़ तथा सूखे को रोकते हैं तथा दूषित गैसों को स्वयं पी जाते हैं।</div><div>भारत को राष्ट्र का रूप देने वाले हमारे ऋषियों नें वृक्षों के वैज्ञानिक परीक्षणों में सिद्ध किया कि वृक्षों में अपना विशिष्ट स्थान रखता है वटवृक्ष। वट वृक्ष को हिन्दू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। जैन तीर्थंकर ऋषभ देव को वट वृक्ष के नीचे केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः जैन धर्म में इसे केवली वृक्ष कहा जाता है। </div><div>प्राचीन संस्कृत-साहित्य में वृक्षों का एक नाम यक्षावास भी आता है। वटवृक्ष का यक्षों से संबंध माना जाता है। भांडीर यक्ष का भांडीरवन ब्रज की चौरासी कोसी परिक्रमा में तीर्थ के रुप में माना जाता है।</div><div> वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। वट वृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव रहते हैं। अर्थात पवित्र वट यानी बरगद के वृक्ष में सृष्टि के सृजन, पालन और संहार करने वाले त्रिदेवों की दिव्य ऊर्जा का अक्षय भंडार उपलब्ध होता है। प्राचीन ग्रंथ वृक्षायुर्वेद में वर्णन मिलता है कि जो यथोचित रूप से बरगद के वृक्ष लगाता है, वह अंत में शिव धाम को प्राप्त होता है। वास्तव में इस वृक्ष का जितना महत्व शास्त्रीय दृष्टि से है <br></div></div><div> उतना ही लोक चेतना की दृष्टि से भी है। यही कारण है कि देवत्व से परिपूर्ण वटवृक्ष के नीचे 'सावित्री' ने मृत्यु को जीतकर 'सत्यवान' का पुनर्जीवन, सास-ससुर की नेत्रज्योति, संतति एवं राज्य वैभव प्राप्त किया था। हिंदू महिलाएं आज भी ज्येष्ठ मास की अमावस्या (बड़मावस अथवा वट-सावित्री व्रत) के अवसर पर दीवार पर हल्दी-चावल के रेखांकन (ऐपन) से वटवृक्ष का चित्र बनाकर अथवा उसकी टहनी लाकर सौभाग्यवती महिलाएं सुख-सौभाग्य की वृद्धि के लिए वट की पूजा करती हैं। जहां वट-वृक्ष उपलब्ध होता है वहां सुहागनें पेड़ के तने पर कच्चा सूत लपेटकर एक सौ आठ परिक्रमा करती हैं। </div><div>ब्रज की लोकपरंपरा में गीत गाया जाता है कि-<br></div><div>वृंदावन सो बन नहीं, नंद गाँव सो गाँव।<br></div><div>वंशीवट सो वट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम।</div><div>इसी वंशीवट के नीचे श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रास किया था।जन मानस में अध्यात्म-विद्या के रुप में स्वीकार कर , आज भी रास नृत्य का आयोजन किया जाता है। भगवान बुद्ध के जीवन-प्रसंग में सुजाता की दासी ने गौतम बुद्ध को वृक्ष का देवता यक्ष समझकर खीर समर्पित की थी। ब्रज के 'भांडीर वन' में भांडीर यज्ञ का 'भांडीर वट' प्रसिद्ध है।<br></div><div>'करवा चौथ' के व्रत में दीवार पर वट को रेखांकित किया जाता है,क्योंकि सात भाइयों ने बरगद के पेड़ पर चढ़कर ही बहन को दीपक दिखा कर चंद्रमाँ के निकलने का भ्रम पैदा किया था। </div><div><div>भारतीय मान्यताओं में आदिगुरु भगवान शिव वट वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या के साथ-साथ दक्षिण मूर्ति स्वरूप में सप्तऋषियों को ज्ञान दिया। अत: इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होने का विश्वास आज भी है। श्रीमद्भागवत में वट को 'महायोगमय तथा मुमुक्षुओं का आश्रयभूत' कहा गया है।इस प्रकार ' शास्त्र ' और 'लोक' दोनों में वट की महिमा प्राचीन काल से प्रतिष्ठित है।</div><div>वेदों एवं उपनिषदों में वन से उपवन तक की यात्रा एक अत्यन्त ही रोचक विषय है। जो स्वास्थ्य- में औषधीय प्रयोग करने की महत्वपूर्ण विधियों के रूप में प्रयोग किया गया है</div><div><div>वटवृक्ष भीषण गर्मी में राहत प्रदान करता है। अपनी शाखाओं के माध्यम से बरगद का पेड़ धरती की श्वसन क्रिया को उचित ढंग से संचालित करती हैं। इसकी रस्सी जैसी टहनियाँ चर्मरोग, आँख के रोग, मधुमेह के लिये उपयोगी होती हैं। </div><div>साथ ही वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। इसकी रस्सी जैसी आकाशीय जड़ें चर्मरोग, आँखरोग, मधुमेह के लिये उपयोगी होती हैं। इसके सभी हिस्से कसैले, मधुर, शीतल तथा आंतों का संकुचन करने वाले होते हैं। इसका उपयोग खासतौर पर कफ, पित्त आदि विकार को नष्ट करने के लिए किया जाता है। इसके अलावा वमन, ज्वर, मूर्च्छा आदि में भी इसका प्रयोग लाभदायक है। इससे कांति में वृद्धि होती है।</div></div><div>कहा जाता है वट वृक्ष के छाल और पत्तों से औषधियां भी बनाई जाती हैं।</div><div>वृक्षों में वट-वृक्ष की सबसे ज्यादा आयु होती है. इसकी लंबी उम्र, शक्ति, और आध्यात्मिक महत्व पर्यावरण के लिए भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होने के कारण वट-वृक्ष की पूजा की जाती है। <br></div><div>वटवृक्ष को बरगद और बड़ भी कहते हैं। दिल्ली में हम वटवृक्षों को बचपन से ही देखते आए हैं। इसकी जटाओं के कारण हम इसे वट दादा ही पुकारते आए हैं। </div></div><div>वास्तव में वटवृक्ष को देखने से पहले मैंने जिन वृक्षों को सदा से देखा था वे चाहे पर्वतों की ऊँचाईयों पर हों या मैदानों की समतल धरती पर। वे सभी आमतौर पर जड़ों से जुड़कर वृक्ष के तने से जुड़ी हरी-भरी फूलों- फलों से लदी डालियों के कारण अपना सौंदर्य पाते हैं। पंछियों एवं अन्य जीवों की चहल-पहल से पेड़ों को जीवंत बनाने वाली उनकी 'डालियां', स्वयं तब तक जीवित रहती हैं जब तक वे जड़ों से जीवन पाते तने से जुड़ी होती हैं। जैसे ही वे किसी भी कारणवश मुख्य तने से अलग हो जाती हैं तो उनका सारा जीवन रस सूख जाता है। वे सूखी हुई डालियां प्रायः जलने और जलाने के ही काम में आती हैं। </div><div>'वटवृक्ष' का सत्य अन्य पेड़ों से बिल्कुल अलग है। इसकी हर डाली अपनी आकाशीय शाखाओं को भूमि के अंदर मूल जड़ों की भांति फैल कर , अपने अस्तित्व को पुनर्जीवित कर देती है। यही कारण है कि भारत के अक्षय वटों के प्रति भारतीयों की आस्था के कारण विदेशी आक्रमणकारियों ने उन्हें नष्ट करने के कई प्रयास किए जड़ों को जलाया भी, परंतु वे आज भी अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं। </div><div>भारत के प्रसिद्ध अक्षयवटों का वर्णन का वर्णन "तीर्थ दीपिका" में है - </div><div>" वटोवंशी प्रयागेय मनोरथा:।</div><div>गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे।।</div><div>निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः।</div><div>अधिकांश भारतीय अपने पौराणिक ग्रंथों में और लोक साहित्य व परंपराओं के कारण इन अक्षयवटों से परिचित हैं। वृंदावन का वंशीवट, उज्जैन का सिद्धवट, प्रयागराज का अक्षयवट ,गया तीर्थ का गयावट और पंचवटी में माता सीता की पर्णकुटी के बाहर लगे पांच वट वृक्षों का वर्णन हम सब निरंतर सुनते आए हैं।। </div><div>मेरी स्मृतियों में आज वह वटवृक्ष उभर रहा है जिसका वर्णन तीर्थ दीपिका में तो नहीं है परंतु पुराणों जिसका महत्व मेरी दृष्टि में इसलिए अग्रगण्य है क्योंकि यह है पुरायुग के पावन स्थल नैमिषारण्य का वह वटवृक्ष जिसके नीचे बैठकर, अपनी लेखनी के प्रभाव श्री कृष्ण द्वैपायन, महर्षि वेदव्यास बन गए। मैनें वेदव्यास जी रचित स्कंदपुराण में ही सावित्री के अप्रतिम व्यक्तित्व का वर्णन पढ़ा। </div><div>नैमिषारण्य , लखनऊ से ८० किमी दूर लखनऊ क्षेत्र के अर्न्तगत सीतापुर जिला में गोमती नदी के बाएँ तट पर स्थित एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ है। नैमिषारण्य सीतापुर स्टेशन से लगभग एक मील की दूरी पर चक्रतीर्थ स्थित है। यहां चक्रतीर्थ, व्यास गद्दी, मनु-शतरूपा की तपोभूमि और हनुमान गढ़ी, भगवान ब्रह्मा, शिव, विष्णु, देवी सती, माँ ललिता के मंदिर, चक्रतीर्थ, हनुमान गढ़ी , व्यास गद्दी, रुद्रावर्त धाम, दधीचि कुंड आदि पवित्र धामों नें नैमिषारण्य तीर्थ की महिमा को बढ़ाया है। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div><div> "नैमिषारण्य" की पावन भूमि भारतीय संस्कृति की अनूठी परंपरा---- "ज्ञान-सत्रों "की, लंबी सूची को अपने अँचल में समेटे हुए है! मार्कण्डेय पुराण में अनेक बार इस स्थान का उल्लेख ८८००० ऋषियों की तपःस्थली के रूप में आया है। वायु पुराण के माघ माहात्म्य तथा बृहद्धर्मपुराण, पूर्व-भाग के अनुसार इसके किसी गुप्त स्थल में आज भी ऋषियों के स्वाध्याय का अनुष्ठान चल रहा है। लोमहर्षण के पुत्र सौति उग्रश्रवा ने यहीं ऋषियों को पौराणिक कथाएं सुनायी थीं। </div><div>शौनकजी को इसी तीर्थ में सूतजी ने अठारह पुराणों की कथा सुनायी। पुरायुगीन इस अरण्य तीर्थ को धरती का केन्द्र माना जाता है। आज बेशक यहां हमें वन प्रदेश तो नहीं मिला परंतु एक पुराना वटवृक्ष उस युग की परंपराओं को, गाथाओं को सहेज कर वर्तमान तक ले आया है। नैमिषारण्य में ही वेदव्यास जी नें वटवृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या की थी। इसी वटवृक्ष के नीचे बनी है- व्यास गद्दी। यहीं बैठकर व्यासजी ने चारों वेदों का वर्गीकरण का कार्य संपादित किया था। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिनी, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है। महर्षि व्यास ने शास्त्रों को छह भागों में विभक्त कर अठारह पुराणों में बांटने का काम इसी नैमिषारण्य के वटवृक्ष के नीचे बैठकर किया था।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div><div>महर्षि वेदव्यास ने यहीं महाभारत की रचना की थी। शुकदेव जी ने यहीं राजा परीक्षित को श्रीमद्भागवत की कथा सुनाई थी। यह भी माना जाता है कि वेदव्यास ने घर-घर में सुनी जाने वाली सत्यनारायण कथा की रचना भी यहीं की थी। महर्षि वेदव्यास जी की अद्वितीय प्रज्ञा का साक्षी नैमिषारण्य के वटवृक्ष को मैं अपने स्तर पर वेदव्यास अक्षयवट कहती हूँ क्योंकि इसके हरे वितान के नीचे नीचे खड़े होकर मैंने आरण्यक संस्कृति वाली भारतीयता के स्पंदन को अनुभव किया है! अपने अप्रतिम पूर्वज ऋषियों की वाणी को अदृश्यता में भी सुना है! इस अक्षयवट की प्रत्येक स्वतंत्र आकाशीय शाखा नें ज्ञानसत्रों के जीवन रस को सहेजा है। के संदर्भ में भी मुझे इसी वट- वृक्षीय एकात्मता का इतिहास अपने वैदिक और पौराणिक साहित्य में सर्वत्र दिखाई देता है।</div><div>मैं मानती हूं कि भारतीय संस्कृति के अनेक युगों को एक सूत्र में जोड़ते " नैमिषारण्य " की यात्रा सबको नए दृष्टिकोण प्रदान करने वाला स्थान है। और यहाँ के "वेदव्यास अक्षय वट" की परिक्रमा कई युगों की थाती के अनूठे स्पर्श के रोमांच से भरने वाली है</div><div>इसलिए यहाँ सबको एक बार तो अवश्य ही आना चाहिए।</div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-76224320024212078182022-05-24T11:24:00.001-07:002022-05-26T08:30:27.062-07:00ज्ञानवापी तीर्थ : प्रश्नों के घेरे में क्यों !! <div>काशी विश्वनाथ की नई सज धज को देखने का उत्साह लिए हम सपरिवार २४ मार्च २०२२ को प्रातः दो बजे भोलेनाथ के द्वार पर खड़े थे। थोड़ी प्रतीक्षा के बाद व्यवस्थित ढंग से पुलिस प्रशासन ने भीतर जाने की आज्ञा दी। हमारा सौभाग्य था कि हमें बाबा विश्वनाथ की मंगला आरती और दर्शन का सौभाग्य मिला। परिसर में देवी मां के विभिन्न स्वरूपों, शिव पंचायत और गलियारे में स्कंद पुराण की प्रसिद्ध कथन की सुंदर दृश्यांकन और मंदिर के स्वर्णिम कलशों को देखकर भाव विभोर हुए। मंदिर के भीतर फोन और कैमरा ले जाने की सुविधा नहीं थी इसलिए इस अद्वितीय यात्रा को चित्रों में नहीं स्मृतियों में ही संजो कर ले आए हैं। इस पूरी यात्रा का विस्तृत वर्णन कई पृष्ठों में हो सकता है। </div><div>भगवान आशुतोष के आनंदपूर्ण दर्शन के बाद बाहर जाने से पहले हम एकाकी बैठे शिव वाहन नंदी और उनके समीप माँ श्रृंगार गौरी के स्थान पर अपने श्रद्धा सुमन अर्पित करने को रुके। स्कंदपुराण के काशी खंड के "सौभाग्यगौरी सम्पूज्या ज्ञानवाप्यां कृतोदकैः।</div><div>ततः शृङ्गारगौरीञ्च तत्रैव च कृतोदकैः॥" </div><div>अर्थात फिर ज्ञानवापी में जाकर उसके जल से सौभाग्यगौरी की पूजा करनी चाहिए। वहीं पर उसी जल से श्रृंगारगौरी की पूजा भी करे। </div><div>---- श्लोक को याद किया और ज्ञानवापी के जल की कल्पना कर माँ श्रृंगार गौरी की मानसिक पूजा की। शिववाहन नंदी जी के कान में अपनी प्रार्थना कहने की जो परंपरा बचपन से संस्कारों में रची बसी है उसके अनुसार हमनें नंदी जी के कान में अपनी बात कही और चरणों में प्रणाम किया। शून्य में एकटक ताकते नंदी को देखकर मन ऐसा विचलित हुआ कि आँखें भीग गईं। कुछ देर वही खड़े होकर हमनें उस भव्य अतीत को याद किया जिसका महात्म्य स्कंदपुराण में ब्रह्मर्षि अगस्त्य की जिज्ञासा से प्रकट हुआ है </div><div>"स्कन्द ज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद साम्प्रतम्। ज्ञानवापीं प्रशंसन्ति यतः स्वर्गौकसोऽप्यलम्॥" </div><div>महर्षि अगस्त्य ने कहा, हे स्कंद जी! अब आप कृपया ज्ञानोद तीर्थ का महात्म्य कहिए।ज्ञानवापी की ऐसी प्रशस्ति है जो कि स्वर्ग लोक में निवास करने वाले देवों को भी दुर्लभ है।</div><div>- - - -परंतु हमें तो ज्ञानवापी तीर्थ के स्थान पर ऐसा क्षेत्र दिखाई दे रहा था जहां हमारा जाना वर्जित था।</div><div>विदेश से आई मेरी पोती जिसे मैं मंदिर का महत्व और गलियारे में कलात्मकता से उकेरी गई स्कंद पुराण की कथाएं सुना चुकी थी। उसनें मुझसे कहा कि दादी मां हम वहां क्यों नहीं जा रहे। हमनें उसे बताया कि वो अब मस्जिद है इसलिए हमें जाने की आज्ञा नहीं है। इसके उत्तर में उसका " पर क्यों नहीं जा सकते वो तीर्थ भी तो है।" हमें निरुत्तर कर गया। उसने हमसे दिल्ली लौटकर स्कंदपुराण सुनाने का आग्रह किया। हम उसे समयाभाव के कारण नहीं सुना पाए। परंतु---- </div><div>अब जब ज्ञानवापी चर्चा में आई तो हमनें फिर से गीताप्रेस द्वारा प्रकाशित स्कंदपुराण के साथ - साथ संस्कृति संस्थान बरेली द्वारा सन् १९७० में प्रकाशित, पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य द्वारा संपादित, स्कंदपुराण को पढ़ा। अठारह पुराणों में सबसे महत्वपूर्ण और वृहद आकार वाले </div><div>स्कंदपुराण को कथित रूप में एक शतकोटि पुराण कहते हैं।</div><div>वर्तमान शोधकार्यों एवं पुरातात्विक खोजों </div><div>में जब द्वापर युग का समय ईसा से लगभग ४००० वर्ष पूर्व का घोषित कर दिया है तो वेदव्यास का समय भी ईसा पूर्व का है इसमें संशय नहीं होना चाहिए। स्कंद पुराण के पुनर्लेखन के साथ महर्षि वेदव्यास जी ने भी काशी में विश्वेश्वर लिंग की पूजा की थी अर्थात वेदव्यासजी के काल में भी ज्ञानवापी यथावत् थी इसकी घोषणा करते हुए उन्होंने उसके समक्ष भगवान् की प्रसन्नता के लिये भजन, कीर्तन, नृत्य आदि भी किया है।महर्षि वेदव्यासजी ने स्वयं उसका वर्णन स्कन्दपुराण में किया है - </div><div>व्यासो विश्वेशभवनं समायातः सुहृष्टवत्।</div><div>ज्ञानवापीपुरोभागे महाभागवतैः सह॥</div><div>विराजमानसत्कण्ठस्तुलसीवरदामभिः।</div><div>स्वयं तालधरो जातः स्वयं जातः सुनर्तकः॥</div><div>वेणुवादनतत्त्वज्ञः स्वयं श्रुतिधरोऽभवत्।</div><div>नृत्यं परिसमाप्येत्थं व्यासः सत्यवतीसुतः॥</div><div>देश-विदेश के लेखकों, यात्रियों के लिखित प्रमाण व साक्ष्य तो अनेक हैं परंतु मैने केवल स्कंदपुराण में वर्णित ज्ञानवापी के महात्म्य को समझने का प्रयास किया। मैं संस्कृत भाषा की जानकर नहीं हूं इसलिए विद्वत- जनों द्वारा परिभाषित अर्थ को अपने दृष्टिकोण से समझ कर, कुछ अंशों को लिखने का प्रयास कर रही हूँ। </div><div>स्कंदपुराण के काशीखंड में ज्ञानवापी के महात्म्य को समस्त भारत की वंदनीय ब्रह्मर्षि अगस्त्य और शिव पार्वती पुत्र कार्तिकेय अर्थात भगवान स्कंद के मध्य हुए संवाद के माध्यम से महर्षि व्यास नें सबके सम्मुख रखा है। भगवान् ईशान रुद्र के द्वारा धरती पर जलाभाव की स्थिति से व्यथित होकर अपने त्रिशूल से ज्ञानवापी का निर्माण करके किये गये भगवान विश्वेश्वर के सहस्रधारार्चन व वर प्राप्ति का दृष्टान्त, लोक कल्याण परोपकार व आध्यात्मिक आनंद के समेकित भारतीय जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा करता है। </div><div>अगस्त्य उवाच :</div><div>स्कन्द ज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद साम्प्रतम्।</div><div>ज्ञानवापीं प्रशंसन्ति यतः स्वर्गौकसोऽप्यलम्॥१</div><div>महर्षि अगस्त्य ने कहा, हे स्कंद जी! अब आप कृपया ज्ञानोद तीर्थ का महात्म्य कहिए।ज्ञानवापी की ऐसी प्रशस्ति है जो कि स्वर्ग लोक में निवास करने वाले देवों को भी दुर्लभ है।</div><div>स्कंद उवाच :</div><div>घटोद्भव महाप्राज्ञ शृणु पापप्रणोदिनीम्।</div><div>ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं कथ्यमानां मयाधुना॥२</div><div>अनादिसिद्धे संसारे पुरा देवयुगे मुने।</div><div>प्राप्तः कुतश्चिदीशानश्चरन्स्वैरमितस्ततः॥३</div><div>न वर्षन्ति यदाभ्राणि न प्रावर्तन्त निम्नगाः।</div><div>जलाभिलाषो न यदा स्नानपानादि कर्मणि॥४</div><div>क्षारस्वादूदयोरेव यदासीज्जलदर्शनम्।</div><div>पृथिव्यां नरसञ्चारे वर्त्तमाने क्वचित्क्वचित्॥५</div><div>निर्वाणकमलाक्षेत्रं श्रीमदानन्दकाननम्।</div><div>महाश्मशानं सर्वेषां बीजानां परमूषरम्॥६</div><div>महाशयनसुप्तानां जन्तूनां प्रतिबोधकम्।</div><div>संसारसागरावर्तपतज्जन्तुतरण्डकम्॥७</div><div>महर्षि अगस्त्य के प्रश्नों के उत्तर में श्री स्कंद भगवान ने कहा - हे घटोद्भव, आपकी प्रज्ञा तो बहुत ही अधिक है। अब मेरे द्वारा वर्णित इस पापों को हटाने वाली ज्ञानवापी के महात्म्य का श्रवण कीजिए। </div><div>हे मुने! इस अनादि संसार में , पूर्व देव युग में, इधर-उधर संचरण करते हुए भगवान शंभू जिस समय यहां आए। उस समय मेघ नहीं बरस रहे थे। नदियां जल वहन नहीं कर रही थी और जिस काल में स्नान-पान आदि कर्मों के लिए जल की अभिलाषा नहीं थी। उस समय खारे स्वाद वाले जल का ही दर्शन था। पृथ्वी में कहीं कहीं पर मनुष्यों के संचार में ऐसी ही दशा विद्यमान थी। कमला का क्षेत्र श्रीमान आनंद कानन,महाश्मशान, सब बीजों का परम ऊसर क्षेत्र बन रहा था। घोर निद्रा में सुप्त हुए जंतुओं को जागृत करने के लिए, संसार सागर के आवर्त में पड़े हुए जंतुओं का तरंडक यह क्षेत्र था। </div><div>यातायातातिसङ्खिन्न जन्तुविश्राममण्डपम्।</div><div>अनेकजन्मगुणितकर्मसूत्रच्छिदाक्षुरम्॥८</div><div>सच्चिदानन्दनिलयं परब्रह्मरसायनम्।</div><div>सुखसन्तानजनकं मोक्षसाधनसिद्धिदम्॥९</div><div>प्रविश्य क्षेत्रमेतत्स ईशानो जटिलस्तदा।</div><div>लसत्त्रिशूल विमल रश्मिजालसमाकुलः॥१०</div><div>आलुलोकेमहालिंग वैकुण्ठ परमेष्ठिनो। </div><div>महाहमहाकियां प्रादुरासयदादितः।। ११</div><div>ज्योतिर्मयीभिर्मालाभिः परितःपरिवेष्ठितम्</div><div>वृन्दैवृन्वारकर्पीणां गर्णानांच निरंतरम् ।। १२</div><div>इस संसार में गमनागमन से खिन्न हुए जंतुओं का विश्राम मंडप , अनेक जन्मों से संचित किए हुए कर्मों के उच्छेद करने वाले छुरे के सामान, सत, चित और आनंद का निलय, परब्रह्म का रसायन स्वरूप, सुख और संतति का जनक और मोक्ष के साधन को सिद्धि प्रदान करने वाला यह क्षेत्र है। जटाजूट धारण किए हुए, हाथ में विमल किरणों के जाल से समाकुल शोभित त्रिशूल लिए ईशान ने जब इस क्षेत्र में प्रवेश किया तब उस आदि समय में बैकुंठ परमेष्ठियों में यहां महालिंग का साकार स्वरूप देख कर 'मैं सर्वप्रथम आगे आकर दर्शन करूं' यह भाव प्रादुर्भूत हो चुका था। उस समय यह महालिंग सभी ओर से ज्योतिर्मयी मालाओं से परिवेष्ठित था। देवों और ऋषियो एवं गणों के समूह निरंतर इसकी अर्चना कर रहे थे। </div><div>- - - - -इसी वर्णन में आगे बताया गया है कि ईशान नें देखा कि महालिंग सिद्ध योगियों द्वारा पूजित हो रहा है । गंधर्व उनकी स्तुति गायन से कर रहे थे। अप्सराओं द्वारा उनके श्रृंगार , नागवंशियों द्वारा मणिदीपों से आरती आदि से पूजा-अर्चना हो रही है। विद्याधर और किन्नरियों के द्वारा उस महालिंग का अलंकरण और मंडन किया जा रहा था देवांगनाएं चमर डुला रही थीं। </div><div>अस्येशानस्य तल्लिङ्गं दृष्ट्वेच्छेत्यभवत्तदा।</div><div>स्नपयामि महल्लिङ्गं कलशैः शीतलैर्जलैः॥१६</div><div>चखान च त्रिशूलेन दक्षिणाशोपकण्ठतः।</div><div>कुण्डं प्रचण्डवेगेन रुद्रो रुद्रवपुर्धरः॥१७</div><div>पृथिव्यावरणाम्भांसि निष्क्रान्तानि तदा मुने।</div><div>भूप्रमाणाद्दशगुणैर्यैरियं वसुधावृता॥१८</div><div>तैर्जलैः स्नापयाञ्चक्रे त्वत्स्पृष्टैरन्यदेहिभिः।</div><div>तुषारैर्जाड्यविधुरैर्जञ्जपूकौघहारिभिः॥१९</div><div>सन्मनोभिरिवात्यच्छैरनच्छैर्व्योमवर्त्मवत्।</div><div>ज्योत्स्नावदुज्ज्वलच्छायैः पावनैः शम्भुनामवत् ।। २०</div><div>पीयूषवत्स्वादुतरैः सुखस्पर्शैर्गवाङ्गगवत्।</div><div>निष्पापधीवद्गम्भीरैस्तरलैः पापिशर्मवत्॥२१</div><div>विजिताब्जमहागन्धैः पाटलामोदमोदिभिः।</div><div>अदृष्टपूर्वलोकानां मनोनयनहारिभिः॥२२</div><div>इस समय ईशान कोण के अधिपति ईशान नामक रुद्र, स्वेच्छा से विचरण करते हुए यहां आ गए। यहां आकर उन्होंने भगवान शिव के प्रतीक ज्योतिर्मय लिंग का दर्शन किया। जो सब ओर से प्रकाश पुंज द्वारा व्याप्त था। देवता, ऋषि, सिद्ध और योगियों के समुदाय निरंतर उसकी आराधना में संलग्न थे। उसे देखकर ईशान के मन में यह इच्छा हुई कि मैं शीतल जल से भरे हुए कलशों द्वारा इस महालिंग का जलाभिषेक करूं। तब उन्होंने विश्वेश्वर लिंग से दक्षिण की ओर थोड़ी ही दूर पर त्रिशूल से वेग पूर्वक एक कुंड खोदा। उस समय उस कुंड से पृथ्वी का आवरण रूप जल, जो पृथ्वी द्वारा ढका हुआ था वो प्रकट हो गया।। हे मुने! उस समय पृथ्वी के आवरण से जो जलराशि निकली वह वसुधा भू प्रमाण से दस गुणा अधिक जल से समावृत हो गई । पापों के समूहों का हरण करने वाले, अन्य देहधारियों के स्पर्श से रहित, शीतल और जड़ता विहीन जल से उनको स्नान कराया । यह जल सत पुरुषों की भांति स्वच्छ था। व्योम मार्ग के समान निर्मल था। चांदनी के समान अत्यंत उज्जवल कांति वाला वह जल अत्यंत शीतल, ज्ञान स्वरूप एवं पाप- पुण्य का नाश करने वाला था। सिद्धों, महात्माओं के हृदय की भांति स्वच्छ और भगवान शिव के नाम की भांति पवित्र था। वह जल अमृत के समान स्वादिष्ट, पापहीन और अगाध था। कमल की महान सुगंध और पाटल पुष्प सी प्रसन्नता देने वाला ऐसा मनोहारी और नयनाभिराम जल इससे पहले किसी ने नहीं देखा था।</div><div>अज्ञानता से संतप्त प्राणियों के प्राणों की रक्षा करने वाले अमृत के समतुल्य ज्ञानवापी -जल के अद्वितीय गुणों का बखान कर स्कंद भगवान नें महर्षि अगस्त्य से आगे कहा -- - - </div><div>सहस्रधारैः कलशैः स ईशानोघटोद्भव।</div><div>सहस्रकृत्वः स्नपयामास संहृष्टमानसः॥२६</div><div>ततः प्रसन्नो भगवान्विश्वात्मा विश्वलोचनः।</div><div>तमुवाच तदेशानं रुद्रं रुद्रवपुर्धरम्॥२७</div><div>तव प्रसन्नोस्मीशान कर्मणानेन सुव्रत।</div><div>गुरुणानन्यपूर्वेण ममातिप्रीतिकारिणा॥२८</div><div>ततस्त्वं जटिलेशान वरं ब्रूहि तपोधन।</div><div>अदेयं न तवास्त्यद्य महोद्यमपरायण॥२९</div><div>अमृत के समान स्वाद वाला अज्ञानता से संतप्त प्राणियों के प्राणों की रक्षा करने वाले इस जल के महात्म्य को बताकर स्कंद भगवान नें महर्षि अगस्त्य से कहा कि हे घटोद्भव! ईशान नें हर्षित मन से सहस्त्रधारा वाले कलश के द्वारा भगवान शंभू का सहस्त्र बार जलाभिषेक किया। इससे भगवान जो विश्वलोचन और विश्वात्मा हैं वे अत्यंत प्रसन्न हुए। रूद्र के वपु को धारण करने वाले रूद्र ईशान से बोले मैं आपसे प्रसन्न हूं। हे उत्तम व्रत का पालन करने वाले आपके इस कर्म से मुझे बड़ा संतोष हुआ है। यह आपका महान कर्म अत्यंत प्रीतिकारक है। इससे पूर्व किसी ने ऐसा उद्यम नहीं किया। जटाधारी महादेव नें कहा महान तपोधन वर मांगो आज इस समय मैं आपसे इतना प्रसन्न हूं कि कुछ भी अदेय नहीं है। <br></div><div>ईशान उवाच</div><div>यदि प्रसन्नो देवेश वरयोग्योस्म्यहं यदि।</div><div>तदेतदतुलं तीर्थं तव नाम्नास्तु शङ्कर॥</div><div>ईशान ने कहा कि देवेश यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं।यदि मैं वरदान के योग्य पात्र बन गया हूं तो हे शंकर, आप अपने ही शुभ नाम का एक अनुपम तीर्थ प्रदान कीजिए। </div><div>विश्वेश्वर उवाच</div><div>त्रिलोक्यां यानि तीर्थानि भूर्भुवः स्वः स्थितान्यपि।</div><div>तेभ्योऽखिलेभ्यस्तीर्थेभ्यः शिवतीर्थमिदं परम्॥</div><div>शिवज्ञानमिति ब्रूयुः शिवशब्दार्थचिन्तकाः।</div><div>तच्च ज्ञानं द्रवीभूतमिह मे महिमोदयात्॥</div><div>अतो ज्ञानोद नामैतत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।</div><div>अस्य दर्शनमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥</div><div>ज्ञानोदतीर्थसंस्पर्शादश्वमेधफलं लभेत्।</div><div>स्पर्शनाचमनाभ्याञ्च राजसूयाश्वमेधयोः॥</div><div>फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा सन्तर्प्य च पितामहान्।</div><div>यत्फलं समवाप्नोति तदत्र श्राद्धकर्मणा॥३५</div><div>विश्वेश्वर ने कहा कि इस त्रिलोकी में जो भी (भूः) प्राणों से प्रिय, (भुवः) दुख विनाशक और (स्वः) सुख प्रदान करने वाले तीर्थ हैं</div><div>उन समस्त तीर्थों में यह शिव-तीर्थ परम शिरोमणि तीर्थ होगा। शिव शब्द के अर्थ के चिंतन करने वाले लोग शिव को ही "ज्ञान" कहा करते हैं। वही ज्ञान, द्रव्य अर्थात तरल होकर जल रूप में अविर्भूत होकर, महिमावान हो गया है अतएव यह तीर्थ "ज्ञानोद" नाम से ही त्रैलोक्य में प्रसिद्ध होगा। इसके स्पर्श मात्र से ही समस्त प्रकार की और पापों से मुक्त हो जाएगा इस ज्ञानोद तीर्थ जल के स्पर्श मात्र से ही मानव अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त कर लेगा। इसके स्पर्श और आचमन से राजसूय यज्ञ अश्वमेध दोनों का फल प्राप्त करेंगे। गया में फल्गु तीर्थ में, स्नान करके व अपने पितरों का भली-भांति तर्पण करके जो पुण्य फल प्राप्त किया जाता है वह यहां पर श्राद्ध कर्म करने से प्राप्त हो जाएगा । </div><div>स्कंद भगवान द्वारा स्वयंभू लिंग और ज्ञानवापी के महात्म्य का विस्तृत वर्णन इन श्लोकों में किया गया है :----</div><div>आकाशात्तारकाल्लिङ्गं ज्योतीरूपमिहागतम्।</div><div>ज्ञानवाप्याः पुरोभागे तल्लिङ्गं तारकेश्वरम्॥</div><div>तारकं ज्ञानमाप्येत तल्लिङ्गस्य समर्चनात्।</div><div>ज्ञानवाप्यां नरः स्नात्वा तारकेशं विलोक्य च॥</div><div>कृतसन्ध्यादिनियमः परितर्प्य पितामहान्।</div><div>धृतमौनव्रतो धीमान्यावल्लिङ्गविलोकनम्॥</div><div>मुच्यते सर्वपापेभ्यः पुण्यं प्राप्नोति शाश्वतम्।</div><div>प्रान्ते च तारकं ज्ञानं यस्माज्ज्ञानाद्विमुच्यते॥</div><div>अर्थात आकाशमण्डल से जो मुक्ति प्रदायी लक्षणों वाला ज्योति स्वरूप लिंग धरती पर आया ,वह ज्ञानवापी के सामने वाले भाग में है। इस महालिंग की पूजा करने से व्यक्ति को मुक्ति देने वाले ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानवापी में स्नान, तारकेश्वर भगवान् का दर्शन, सन्ध्या आदि नियमों, पूर्वजों का तर्पण करके मौनव्रत को धारण करने वाला प्रबुद्ध जन, विश्वेश्वरलिंग के दर्शन मात्र से ही सभी पापों से मुक्त होकर शाश्वत पुण्य को प्राप्त करता है। अन्त में इस उद्धारक ज्ञान को प्राप्त कर मुक्त हो जाता है।</div><div>वर्तमान में विभिन्न ग्रंथों शिलालेखों ताम्रपत्रों, मुद्राओं, यात्रा वृतांतों और पुरातात्विक साक्ष्यों आदि के आधार पर काशी नगरी का अस्तित्व धरती पर विश्व की सबसे पुरानी नगरी के रूप में माना जाता है। इस पावन नगरी का इतिहास लगभग ११ हज़ार ईसा पूर्व से अब तक अबाध रूप में मिलता है। इस इतिहास के साथ जुड़ा है शिव का अविमुक्त क्षेत्र अर्थात उनका घर । यही स्थान काशी विश्वनाथ और ज्ञानवापी को भी अपने में समेटे हुए है। </div><div>मैंने जिस स्कंदपुराण का आश्रय लिया उसमें जिनका संवाद ज्ञानवापी का परिचय देता है उन ब्रह्मर्षि अगस्त्य का कालखंड भी लगभग दस से नौं सहस्र वर्ष ई.पू. माना गया है। </div><div>ईसा पूर्व की यह परंपरा राजा दिवोदास से लेकर धनवंतरी, नवी दसवीं शताब्दी ई.पू . की राजघाट की अविमुक्तेश्वर की प्राप्त मुद्रा</div><div>से वर्तमान समय की उन्नीसवीं शताब्दी के ब्रिटिश शासन काल के अनेक प्रमाणों तक अविच्छिन्न रही है।</div><div>उन्नीसवीं शती के अनेक साक्ष्यों में से हम केवल मिशनरी बन कर आए अंग्रेज़ों के ज्ञानवापी के विषय में लिखे विचारों को ले रहे हैं। </div><div>रेजिनाल्ड हेबेर,(Reginald Heber)जो १८२३ में कलकत्ता के बिशप नियुक्त हुए थे वे सन् १८२४ में काशी आए। उन्होंने लिखा - "ज्ञानवापी को हिंदु गंगा से अधिक पवित्र मानते है।" </div><div>एडविन ग्रीव्स(Edwin Greaves) ब्रिटिश मिशनरी नें १९०९ में काशी विषयक पुस्तक में लिखा - "ज्ञानवापी के चारों ओर पत्थर की जाली के पास हिंदू पुजारी बैठता है। भक्त कूप के पास आते हैं और पुजारी से पवित्र जल ग्रहण करते हैं। " हम पुराने चित्रों में भी इसे देख सकते हैं। </div><div>मैं मानती हूं कि वास्तव में काशी के परम पुनीत ज्ञानवापी तीर्थ को प्रश्नों के घेरे में रखने के स्थान पर हमें यह समझना होगा कि ज्ञानवापी हम सब भारतीयों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अस्मिता से जुड़ी ऐसी धरोहर है जिसको संरक्षित और सुरक्षित रखना हमारा सामूहिक दायित्व है। </div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZ7FXsXYuI1kubQm7oqajwvWxRTm4odny9MRFA2cCVCt7BNUbXs5kaRevG6rBVR732MIxx4w6VJJyKGjjiaLRa9sGYpxO_jBTAl4H5MCpzyTXBcaFQ1xzIFwq6ZteLTol0nuoxWaQQ0aY/s1600/1653416656200480-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-82848978034905366412022-03-18T07:57:00.001-07:002022-03-18T10:35:50.913-07:00होलिका की अस्मिता - एक अनुत्तरित प्रश्न ?? <div># एक अनुत्तरित प्रश्न ???? </div><div> होलिका यदि भतीजे को मारने के षड्यंत्र का हिस्सा है तो होलिका-दहन के बाद उसकी राख को, स्वास्थ्य, धन, परेशानियों अर्थात सभी तरह की नकारात्मकता के निवारण के लिए सभी लोग माथे से क्यों लगाते हैं ?? </div><div>मेरी समझ में, इस प्रश्न का उत्तर है। - - - - पर उसे, हिमाचल, छत्तीसगढ़ के रायपुर और पश्चिमी राजस्थान की लोक परंपरा तक सीमित कर देशज बनाकर , सबकी स्मृतियों से पोंछ दिया गया। आज वो सच हम सब तक पहुंचाना चाहते हैं।</div><div>आज के दिन का भारतीय इतिहास अत्यंत प्राचीन है। </div><div>* वैदिक युग में, फागुन की चतुर्दशी व पूर्णिमा के दिन 'वासंती नव-सस्येष्टि यज्ञ ' में नए अन्न को यज्ञीय ऊर्जा से संस्कारित कर उसे समाज को समर्पित करने का भाव था। </div><div>*भारतीय संस्कृति के सतयुग के प्रारंभिक समय में समष्टिगत कल्याण के लिए, सृष्टि से तारकासुर के आतंक को मिटाने के लिए, व्यक्तिगत हितों को निस्पृह भाव से बलिदान करने वाले, कामदेव को सम्मान दिया गया। भगवान शिव के कोप को सहते कामदेव को प्रतिष्ठा देता - मदन-दहन पर्व !!</div><div> तमिलनाडु में होली को कामदेव के बलिदान के रूप में याद करते हैं। इसीलिए यहां पर होली को कमान पंडिगई, कामाविलास और कामा-दहनम कहते हैं। कर्नाटक में होली के पर्व को कामना हब्बा के रूप में मनाते हैं। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना में भी ऐसी ही होली होती है।काम दहनम् के बाद लोग बुझी आग की राख को माथे पर विभूति के तौर पर लगाते हैं और अच्छे स्वास्थ्य के लिए वे चंदन , हरी कोंपलों और आम के वृक्ष के बोर को मिलाकर उसका सेवन करते हैं।</div><div>* सतयुग के मध्यकाल में, अपनी ही संतान "प्रह्लाद" के समष्टिगत कल्याण भाव की, अपने व्यक्तिगत स्वार्थ व अहंकार के लिए बलि चढ़ाने वाले हिरण्यकशिपु से जुड़ा होलिका-दहन का प्रसंग !! भारतीय संस्कृति के आदिकाल से वर्तमान में कलियुग तक चली आई होलिका-दहन की परंपरा लोकचित्ती का अभिन्न अंग रही है। </div><div>* आमतौर पर होलिका-दहन का पर्व बुआ होलिका द्वारा प्रह्लाद को मारने के षडयंत्र से जोड़ कर सुनाई जाती है परंतु प्रह्लाद और नृसिंह अवतार के प्रमाण देते मूलस्थान, वर्तमान मुल्तान से ५५० कि.मी. की दूरी पर बसे हिमाचल प्रदेश में महर्षि कश्यप और दिति की पुत्री होलिका की जो कथा युगों से चली आई है वह होलिका दहन की कथा ऐसी प्रेमकथा है जिसमें होलिका अपने प्रेम के लिए सर्वस्व बलिदान कर देती है । युगों से प्रचलित इस कथा के अनुसार , दैत्य कुल की कन्या, परम शक्तिशाली दैत्यराज हिरण्यकशिपु की बहन होलिका और पड़ोसी राज्य के सर्वगुण संपन्न इलोजी---- इस सौंदर्यवान युगल को जन - साधारण प्रशंसापूर्ण दृष्टि से देखते थे। उनका विवाह का दिन फागुन पूर्णिमा निश्चित किया गया था।हिरण्यकश्यप जो अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को समाप्त करने के कई प्रयासों में असफल हो चुका था। वो जानता था कि उसकी अग्निपूजक बहन होलिका, अग्नि के दुष्प्रभावों से मुक्त थी। हिरण्यकशिपु को प्रह्लाद से मुक्ति का सफल उपाय दिखाई दिया उसने बहन को बुलाकर अपनी योजना को कार्यान्वित करने को कहा।योजना के अनुसार होलिका प्रह्लाद को अग्नि में लेकर बैठैगी, वो बच जाऐगी प्रहलाद समाप्त हो जाएगा। भतीजे के वध के बारे में सुन कर होलिका चकित रह गई। एक पल को वह कुछ समझ ही नहीं पा रही थी। वह प्रहलाद से बहुत प्रेम करती थी। ऐसे में उसने इस कार्य को करने से मना कर दिया। इतना सुनते ही हिरण्यकश्यप ने होलिका से कहा कि यदि उसने प्रह्लाद का मृत शरीर उसे नहीं सौंपा तो वह विवाह के लिए आने वाले उसके प्रेमी इलोजी को भयानक मृत्यु देगा। - - - - अपने प्रेमी और भतीजे को बचाने के लिए होलिका नें अपने तप के द्वारा मूक भाव से आत्मबलिदान दिया - - - - और कोई कुछ भी नहीं जान पाया। हिमाचली लोककथा के अनुसार, होलिका एक ऐसी प्रेमिका है जिसने अपने प्रेम को बचाने के लिए स्वंय की बलि दे दी। उनके प्रेमी इलोजी जब फागुनी पूर्णिमा को विवाह के लिए आए तो अपनी प्रेमिका की चिता देख आपा खोकर वहीं लेट गए। चिता की राख शरीर पर लपेट कर इलोजी नें विलाप किया। लोगों नें पानी से उनके शरीर की राख को हटाने का प्रयास किया पर इलोजी बार-बार राख अपने ऊपर मल लेते थे।उसकी याद में हिमाचल में आज भी कई स्थानों पर राख व कीचड़ एक दूसरे पर मल कर होलिका के बलिदान को याद करते हैं।राजस्थान के मारवाड़ में , हिरण्यकश्यप की बहिन होलिका के होने वाले पति इलोजी राजा को लोकदेवता के रूप में पूजा जाता है। इलोजी के बारे में ऐसी मान्यता हैं कि आजीवन होलिका की स्मृति में एकाकी तपस्वी का जीवन जीने वाले </div><div>ये लोक-देवता, दम्पत्तियों को सुखद गृहस्थ जीवन और संतति परंपरा को बढ़ाने का वरदान देने में सक्षम हैं।छत्तीसगढ़ के रायपुर में भी, होली के अवसर पर , होलिका के अनब्याहे पति इलोजी (जिसे वे नाथूराम भी कहते हैं) को प्रेम के देवता के रूप में पूजा जाता है। </div><div>मैं सोचती हूँ कि अनिर्णय के क्षणों में, जीवन को किस राह पर ले जाएं - - - - इसके सहजता से चुनाव के लिए हमारे पूर्वजों नें हमें कितनी सुंदर विरासत दी है - - - - हमारी संस्कृति नें देवता हों या दैत्य सबके जीवन से प्रेरणा देती घटनाओं को अपनी पारंपरिक स्मृतियों में जीवंत रखा है।हाँ जाने किस कारण भारतीय संस्कृति की विरासत का विकृत रूप समाज में स्थापित होता रहा और सकारात्मक पक्ष को पूरी तरह हाशिए से बाहर खड़ा कर दिया गया। </div><div>आज की पावन अग्नि हम सबके संकल्पों को पावन बनाए। शुभेच्छाएँ।</div><div>🙏डॉ स्वर्णअनिल।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-27197106539409320302022-02-23T03:24:00.001-08:002022-02-23T03:24:25.508-08:00माँ शबरी के जन्मदिवस पर - - - - <div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjnIDf-WdP6eyNxmB4sFvHSid2FSd_PJQS8DxNO2xqY0IfhKGUflfv4kKYHjUQk8xroeGmTWP3TV5IWNxZu_qhejebRBvB9WgHfIk1FVbJD4B49ZlWeCMSGuukwwMLopkyoXRlQ431nH6U/s1600/1645615452904346-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div>फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की सप्तमी तिथि को शबरी-जयंती मनाई जाती है। श्रीराम जी की परम भक्त शबरी माई की जो कथा, हम नें बचपन से सुनी,स्थानीय रामलीलाओं और दूरदर्शन के रामायण धारावाहिक के माध्यम से देखी थी ; उसके भावपूर्ण प्रसंग में - - - - श्रीराम जी को अपने झूठे बेर खिलाने वाली शबरी, सबसे दृष्टि बचा कर बेर फेंकते लक्ष्मण एवं उन फेंके गए बीजों से उस संजीवनी बूटी का बनना जिससे शक्ति लगने पर मूर्छित लक्ष्मण की प्राणरक्षा - - - - से हम परिचित रहे।<br></div><div>बड़े होने पर जब स्वयं रामकाव्य को पढ़ते हुए समझना शुरू किया तो ज्ञात हुआ कि वाल्मीकि रामायण, आध्यात्म रामायण एवं तुलसी - रामचरितमानस आदि ग्रंथों में ये प्रसंग है ही नहीं। वहां तो बेर का नहीं, वन के फलों व कंद मूल का वर्णन है। </div><div>पारसी रंगमंच के चर्चित नाटककार व जनकवि , राधेश्याम कथावाचक जी अपनी रामायण में लिखते हैं ----</div><div> "सुंदर पत्तों ते आसन पर अपने प्रभु को बैठाती है। </div><div>मेहमानी के कुछ बेरों को डलिया में भर कर लाती है।। </div><div>जूठे बेरों को बेर बेर खुश हो कर भोग लगाते हैं।</div><div>ला बेर बेर क्यों बेर करे यह बेर सुधा से बढ़ कर हैं। </div><div>मक्खन मिसरी से भी अच्छे, ताकतवर मधुर मनोहर हैं। </div><div>शबरी काहे करत है बेर, मोंको बेर बेर दे बेर गुठली फैंकत सकुच लगत है, हैं प्रेमिनि के बेर।</div><div>राधेश्याम धन्य भइ शबरी और धन्य भए बेर ।।</div><div>फिर राम लक्ष्मण से भी बेर खाने का बेर खाने का अनुरोध करते हैं –</div><div>लक्ष्मण तुमने खाया न बेर, देखो कैसा तो मीठा है।</div><div>पृथ्वी से ले आकाश तलक जो कुछ है इससे फीका है। </div><div>राधेश्याम कथावाचक जी स्वीकार करते हैं कि 'वे फल शबरी के जूठे थे यह लिखा सूर सागर में है!' कृष्ण भक्त की एक पंक्ति को आधार बनाकर, रामकथा में यह प्रसंग यहां कविकल्पना से जन्मा दिखाई देता है।</div><div>रामभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी नें जन- जन में लोकप्रिय रामचरितमानस में लिखा - </div><div>"सबरी देखि राम गृह आए।मुनि के वचन समुझि मन भाए।।</div><div>सरसिज लोचन बाहु विसाला।जटा मुकुट सिर उर वनमाला।</div><div>स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई।।</div><div>प्रेममगन मुख वचन न आवा। पुनि पुनि पदसरोज सिर नावा।</div><div>सादर जल लै चरन पखारै। पुनि सुंदर आसन बैठारे।।</div><div>कंदमूलफल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।</div><div>प्रेम सहित प्रभु खाये, बारंबार बखानि।। "</div><div>महर्षि वाल्मिकी रचित रामायण के अनुसार </div><div>शबरी को श्रमणी, सिद्धा और तपस्विनी कहा गया है। वह शबर जाति की थी और मुनि मतंग की सेवा करती थी। वे अपने तपोबल से सिद्धा और तपस्विनी के रूप में विख्यात थीं। राम और लक्ष्मण को आया देख कर वे उठी और उनके पैर पकड़ लिए। राम इस सिद्धा तपस्विनी श्रमणी शबरी से पूछते हैं कि आपकी तपस्या कैसी चल रही है। तप में कोई विघ्न तो नहीं है।</div><div>"तौ पुष्करिण्याः पम्पायास्तीरमासाद्य पश्चिमम्।</div><div>अपश्यतां ततस्तत्र शबर्या रम्यमाश्रमम्।।</div><div>तौ तु दृष्ट्वा ततः सिद्धा समुत्थाय कृताञ्जलिः।</div><div>पादौ जग्राह रामस्य लक्ष्मणस्य च धीमतः।।</div><div>समुवाच ततो रामः श्रमणीं संशितव्रताम्।</div><div>कच्चित्ते निर्जिता विघ्नाः कच्चित्ते वर्धते तपः।। </div><div>शबरी कहती हैं कि मैं आपकी ही प्रतीक्षा करती रही हूँ। मैंने आपके लिये इस पंपा सरोवर के किनारे उगने वाली वन की अनेक वस्तुएँ एकत्र कर रखी हैं –</div><div>"मया तु विविधं वन्यं संचितं पुरुषर्षभ।</div><div>तवार्थे पुरुषव्याघ्र पम्पायास्तीरसम्भवम्।।" </div><div>इसके बाद श्रीराम ने विज्ञान में अबहिष्कृत शबरी से कहा कि तुमने जिस वन को संवर्द्धित किया है हम उसे देखना चाहते हैं। यहाँ शबरी को विज्ञान में अबहिष्कृत अर्थात् तरह तरह की शिल्प, शास्त्र और कलाओं को जानने वाली कहा गया है।शबरी ने अपनी वह विस्तीर्ण वन दोनों भाइयों को दिखाया</div><div>"शबरी दर्शयामास तावुभौ तद्वनं महत् " </div><div>शबरी ने मतंगवन दिखाया और अपने वन में लगाए हुए भांति - भांति के फल उन्हें अर्पित किए। इस प्रसंग का मात्र एक पंक्ति में फल अर्पित करने का वर्णन महर्षि वाल्मीकि जी ने किया है। </div><div>माँ शबरी के रामकथा में वर्णित व्यक्तित्व में आध्यात्मिकता के सूर्य का तेज, पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता व भक्ति की ऐसी पराकाष्ठा है जो भारतीय नारी की गरिमा का प्रत्यक्षीकरण करवाती है।</div><div>🌷 भारतीय संस्कृति की महान विभूती के जन्मदिवस पर कोटि-कोटि नमन व विनम्र श्रद्धासुमन समर्पित हैं ।🙏🌷🌷</div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-51741982032661104722022-02-03T14:30:00.001-08:002022-02-04T05:24:54.595-08:00भारतीय संविधान में नागरिकता और गुरुकुल। <div>🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता का अमृत-महोत्सव 🌷<br></div><div><div>भारतीय संविधान की मूल प्रति में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को दर्शाते कई दृश्यों के चित्रांकन से इसका अलंकरण किया गया है। चित्रों का यह सुरुचिपूर्ण विन्यास संविधान के प्रणेताओं की उस संवेदनशीलता को दर्शाते हैं जिसके विषय में राजनीतिक शास्त्रियों का मानना है कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी राष्ट्र की व्यवस्था लिखित कानूनों, नियमों और अलिखित परंपराओं के अनुसार ही चलती है। </div><div>"त्रीणि राजाना विदथें परि विश्वानि भूषथ:।।"(ऋग्वेद मं-३ सू-३८/६)</div><div> भारतीय आदि ग्रंथ ऋग्वेद के तीसरे मंडल के सूक्त में कहा गया है कि राजा और प्रजाजन मिल कर, सुख प्राप्ति और विज्ञान की वृद्धि करने वाले राज्य के व्यवहार हेतु तीन सभाओं- विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्य सभा एवं राजार्य्यसभा नियत करके समग्र प्रजा को सब ओर से विद्या, स्वतंत्रता, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।</div><div>भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥ (अथर्ववेद १९/१४/१)</div><div>वैदिक राष्ट्र जिसको स्वर्गिक जीवन जीने वाले ऋषियों ने भद्र इच्छा से पहले तप और फिर दीक्षा की शरण ली। उसके बाद राष्ट्र, राष्ट्रीय बल और राष्ट्रीय तेज उत्पन्न हुए। ए देवजनों! इन तीनों को प्राप्त करो और एक होकर इन्हे नमन करो। भारतीय राष्ट्रीय व्यवस्था अपने कलेवर में राजतंत्र न होकर गणतांत्रिक व्यवस्था थी। लोकतंत्र की अवधारणा वेदों की देन है। गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौं बार और ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है।</div><div>ऋग्वेद में सभा और समिति का वर्णन है जिनके सदस्य पुरुष और स्त्री दोनों होते थे। राजा सभा व समिति के मंत्रियों और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई निर्णय लेता था। वैदिक काल में इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। इंद्र नाम का एक पद होता था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था। </div><div>मेरा निजी मन्तव्य यह है कि भारतीय संविधान की हस्तलिखित मूलप्रति में, शांतिनिकेतन के विश्वविख्यात चित्रकार श्री नंदलाल बोस जी और श्री व्यौहार राम मनोहर सिंहा जी की सिद्धहस्त तूलिका से उकेरे गए अप्रतिम चित्रों के माध्यम से, भारतीय संस्कृति को जानना, पहचानना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ये चित्र भारतीय संविधान की मूल आत्मा को समझने का सबसे सशक्त माध्यम हैं । </div><div>इन चित्रों में से एक चित्र है- "भारतीय गुरुकुल का। " संविधान में, "नागरिकता" के अंतर्गत गुरुकुल का चित्रांकन किया गया है। इस भाग की विषय वस्तु और चित्र से भारतीय मनीषा का यह सत्य पुनः सामने आता है कि किसी व्यक्ति या समाज की समायोजित प्रगति के लिए शिक्षा को केंद्रीय धुरी है। वैदिक गुरुकुल के इस चित्र को देख कर, जो विचार मेरे चित्त में उभरआए हैं उनका फलक अत्यंत विस्तृत है। - - - - भारतीय संस्कृति के आदिकाल से ज्ञान के मूल स्रोत रहे ऋग्वेद में, गुरु को वाचस् अर्थात उच्च ज्ञान से परिपूर्ण माना जाता रहा है परंतु वैदिक गुरु के लिए आचार्य की संज्ञा का प्रयोग अधिक हुआ है। इसका कारण मेरे दृष्टिकोण में, आचार्य के व्यक्तित्व में ज्ञान के साथ-साथ आचरण या व्यवहार की शुद्धता को महत्व देने की ओर इंगित करते हैं क्योंकि भारतीय परंपरा में गुरु, स्वयं को शिष्य के सर्वांगीण विकास के लिए उत्तरदायी मानते थे। </div><div>साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण गुरुकुलों में जन्मे शब्दों नें अपने प्रारंभिक अर्थों से रूढ़ अर्थों तक पहुंचने की अपनी यात्रा में हमारे सामने गुरुकुल का एक स्वरूप निर्मित किया है वैदिक- पौराणिक विवरणों और वर्तमान के गुरुकुलों के अनेक चित्रों नें इन शब्दचित्रों से जुड़कर आँखों के सामने वैदिक कालखंड से द्वापर युग तक के महान गुरुओं के आश्रमों का जो जीवंत स्वरूप उभारा वो भारतीय लोकचित्त का सामाजिक दायित्वों अर्थात नागरिकता के प्रति जागरूक दस्तावेज है।</div><div>"भारतीय गुरुकुल" ज्ञान का ऐसा केंद्र था जहां आने वाले हर बालक-बालिका को "छात्र" अर्थात गुरु की छत्रछाया में रहने वाला कहा गया। छात्र, माता-पिता के पद, जाति, वैभव, कुल से दूर केवल गुरु के कुल का, गुरु के वंश का होकर विद्या प्राप्ति के लिए समर्पित रहता था। वो विद्या +अर्थी बनकर रहता था धन+अर्थी नहीं ! समाज के हर वर्ग के परिवार पूरे विश्वास से,अपनी संतान को ७-८ वर्ष की कोमल आयु से ज्ञान की परिपक्वता तक आचार्य के संरक्षण में भेज देता था। आचार्य जिनके आचरण का छात्र अनुकरण करते हुए। कुशा एकत्र करते हुए, अपनी एकाग्रता से, अपने हाथ को चोट पहुंचाए बिना उनका संग्रह कर कुशाग्र बनते ! वीणा बजाने में अपनी महारत से प्रवीण बनते ! श्रम की गरिमा को समझते ! गुरुकुलों के लिए आर्थिक आपूर्ति समाज व शासक का दायित्व था। भिक्षाटन, आश्रम के गोधन, खाद्य उत्पादों से भी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। शिक्षा की समाप्ति पर गुरुजन छात्र की सामर्थ्य के अनुसार गुरुदक्षिणा स्वीकार करते थे। वे तीन प्रकार के ऋणों से मुक्ति की बात अपने शिष्यों के सम्मुख रखते थे - पितृऋण, गुरुऋण तथा देवऋण। मैनें जब भी इन तीनों ऋणों पर विचार किया है तब मुझे यही सत्य प्रतीत हुआ कि हमारे गुरुओं नें ; "पितृ ऋण " से उऋण होने के लिए पारिवारिक उत्तरदायित्वों के निर्वहण का, "देवऋण"में सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण व संवर्द्धन का दायित्व और "गुरुऋण" में समसामयिक समाजिक व राष्ट्रीय मूल्यों के विकास व प्रसार की दिशा में पूरी जागरूकता से कार्यरत होने के संकल्प की सिद्धी को अपने शिष्यों के सम्मुख रखा था। गुरु अपने शिष्यों से इन ऋणों से मुक्त होने के प्रयास हेतु उत्प्रेरित करते थे। इस प्रकार गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करने वाला छात्र जब सर्वांगीण रूप से विकसित होकर समाज में एक प्रबुद्ध युवा के रूप में वापस लौटता तो वो उत्तम नागरिक बनकर अपने उत्तरदायित्व निभाने को तत्पर हो जाता था। </div><div>यहां कुछ गुरुओं व गुरुकुलों का उल्लेख हमें समीचीन लगता है। वास्तव में भारतीय गुरुओं की परंपरा के बारे में ज्ञात जानकारी के अनुसार यह सत्य भी सामने आता है कि गुरु शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगत होते थे और समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार नवीन अनुसंधानों से अपने शिष्यों को परिचित करवाते थे। योग्यता को परिलक्षित कर हमारे ऋषियों नें अपना शिष्य ना होने पर भी उपयुक्त पात्र को विद्या प्रदान की ऐसे अनेक प्रमाण भी हमारे वेद-पुराणों में हैं। </div><div>देवगुरु बृहस्पति अपनी शिक्षा और नीतियों के शिक्षण के साथ रक्षोघ्र मंत्रों के प्रयोग की शिक्षा देकर देव समाज को अपने पालन और रक्षण के लिए तैयार करते थे। देव-असुर संग्राम में देवताओं को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करते थे।दैत्यों को गुरु शुक्राचार्य से ज्ञान प्राप्त होता है। मान्यता है कि भगवान शिव ने इन्हें मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया था, जिसकी सहायता से वे यह मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर देते थे। हालाकि गुरु शुक्राचार्य असुरों के गुरू थे परंतु कई बार इन्होंने देवों को भी विद्या दान दिया क्योंकि वही उनका कर्म और गुरुधर्म था। यहां तक कि देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने भी असुर गुरु शुक्राचार्य से ही मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की थी।</div><div>परशुराम के शिष्यों में भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान विद्वानों और शूरवीरों का नाम शामिल है। परशुराम केरल के कलरीपायट्टु (मार्शल आर्ट) की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु माने जाते हैं।</div><div>दशरथनंदन श्रीराम के गुरु बेशक ऋषि वशिष्ठ थे परंतु अस्त्र-शस्त्र विद्या ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में और विभिन्न जीवनोपयोगी विद्याएं उन्होंने ऋषि अगस्त्य से सीखीं। </div><div>कृष्ण-सुदामा जाति-वर्गभेद से परे संदीपनी ऋषि के शस्त्र और शास्त्रों के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध गुरुकुल में, गुरुमाता की आज्ञा से लकड़ियां बीनते और भुने चने खाते हैं ! एक साथ रहते हैं परंतु अपनी योग्यता के अनुसार विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। </div><div>पौराणिक युग के ऋषि धौम्य का गुरुकुल जहां देश-विदेश से छात्र वेद-वेदांग का अध्ययन करनेआते थे। उनके प्रख्यात शिष्य आरुणि और उपमन्यु ! बचपन में पढ़ी, गीताप्रेस की " गुरुभक्त बालक" पुस्तक के हमारे नायक ! शीत ऋतु में आरुणि आश्रम के खेत की टूटी मेढ़ को वर्षाजल में बहने से बचाने के लिए स्वयं लेट जाते हैं और चेतनाशून्य होने पर भी गुरु की आज्ञा पालन के कठिन व्रत का पालन करते हैं। दूसरे शिष्य उपमन्यु गुरु आज्ञा के पालन के लिए , भिक्षान्न को अन्य आश्रम - वासियों के लिए, गाय के दूध को बछड़ों के निमित छोड़कर अंत में आक के पत्तों का अनजाने में सेवन कर अंधे होकर कुएं में गिर जाते हैं। आचार्य धौम्य अपनी दिव्य दृष्टि से उनकी स्थितियां देख, द्रवित हो उठे थे। अन्य शिष्यों की सहायता से उन्होंने दोनों ही कुमारों को उनके संकट से उबारा और अश्विनि कुमारों से प्राप्त आयुर्वेद के ज्ञान का प्रयोग कर उन्हें पुनः निरोगी बना दिया। गुरुभक्त शिष्यों को ऋषि धौम्य नें वरदान में वेद-वेदांग का अनुपम ज्ञान दिया। </div><div>गुरु-शिष्य की ऐसी कितनी ही अमर कथाएं गुरुकुल के अनुशासन, ज्ञान के व्यवहारिक उपयोग, पर्यावरण के हर जड़-चेतन तत्व के प्रति संवेदनशीलता, चरित्र निर्माण, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक गुणों के विकास की विरासत हम तक पहुंचाती रही हैं। इन सबके साथ ही हमने अनुभव किया है कि निरंतर व्यक्तिगत, सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़े गुरुजन -</div><div> " वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः" का गुरुमंत्र भी अपने शिष्यों को दे रहे थे। </div><div>भारतीय नागरिकता को परिभाषित करने वाले संविधान के इस भाग में अलंकरण के लिए बनाए गए इस चित्र की पृष्ठभूमि में वृक्षों, वनस्पतियों से घिरा हरा-भरा पर्यावरण है जिसमें सरोवर और हंस है। विभिन्न पशु-पक्षी हैं। वैदिक काल के इस गुरुकुल में उपनिषदों का पाठ हो रहा है। वैदिक ऋषि द्वारा किए जा रहे हवन की प्रज्ज्वलित अग्नि भारतीय संस्कृति की चिरंतन ऊर्जा व प्रकाश की द्योतक है तो स्वाध्याय में निमग्न होकर बैठा चिंतक, आध्यात्मिकता के तेज को भी दर्शाता है। मंदिर, कुटिया, सभामंच और पूरा परिवेश - - - - पुर अर्थात नगर का हित करने वाले, नागरिकों से, राष्ट्र को जीवंत एवं जागृत बनाए रखने के संकल्प का उद्घोष करता है। यजुर्वेद की " वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः" प्रतिध्वनि को हम अपने भारतीय संविधान के नागरिकता के अध्याय के संदर्भ में समझें तो राष्ट्र के कल्याण के लिए, उत्तम नागरिकों के निर्माण लिए शिक्षा के महत्व को अवश्य स्वीकार करेंगे।<br></div></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2VqpZTCcxtYe7SB0J7i9ryFspB4GUdXFe5b6v-6tkT6DkFtda_KwIF1XA1r9Sb0EaFjnpm7XKWIPtn_WCZBKL4HGDU-FEwPGSaKjAq-HFz0WQoVYQ3IZw8RCTknPT8hFDyNXrHxtKPyU/s1600/1643927410827061-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2VqpZTCcxtYe7SB0J7i9ryFspB4GUdXFe5b6v-6tkT6DkFtda_KwIF1XA1r9Sb0EaFjnpm7XKWIPtn_WCZBKL4HGDU-FEwPGSaKjAq-HFz0WQoVYQ3IZw8RCTknPT8hFDyNXrHxtKPyU/s1600/1643927410827061-0.png" width="400">
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</div>स्वतंत्रता की ज्योति को अपनी लगभग ३४वर्ष की अल्पायु में ही, अपनी जीवन ज्योति देकर प्रज्जवलित रखनेवाली भारतीय वीरांगना की स्मृतियों को कोटि-कोटि नमन व विनम्र श्रद्धासुमन 🔥🔥🔥🔥स्वर्णअनिल</div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-702615941952205632021-03-04T06:11:00.003-08:002021-03-09T06:19:11.099-08:00🌷 माँ के जन्मदिवस की पावनता 🌷<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjNYN8vf3qbr3nO4qpdGg5ChWCj1SE5tE19-L9f4zLEL5q4fQHjk1Pex4qPxov5PKhRcVq-wS-zj1KnJsInIb_9j37pGCYq6YSxUJYkft-dCRHHx3a8ZX1fwZ7n-9SbAUW2cTKxy7n0gJQ/s1600/1615299107015110-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div>आज माँ का जन्मदिन है हमारी भोर जल्दी हो गई। श्रीशैलम के नल्लमला पर्वतों के इस "जंंगल सफारी" के अपने कॉटेेज से बाहर आते ही बसंंती फूूलों से लदे पेड़ को देेेखते ही हमारी आँँखों केे आगे माँ की वो यादेें साकार हो गईं जब पापा उनके लिए कोई भी साड़ी या कोई भी परिधान लाते तो उसका रंंग बसंंती ही होता था।<div>जंगल सफारी में पशु-पक्षियों-पेड़-पौधों को देखने के बाद जब हम इस प्राचीन मंदिर "रुद्र कोटेश्वर मंदिर" पहुंचे तो स्वामी जी नें विधि-विधानपूर्वक पूजा करवाई। माँ की स्मृतियों के बीच ही हमें यह रोमांचित करने वाला अनुभव हुआ। लगा माँ का हाथ हमारे हाथों में है और हम उनके अस्तित्व का अनुभव कर रहे हैं। माँ आपके जन्मदिन पर ये हम तक पहुंचता हुआ आपका आशीष है !! </div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0Srisailam, Andhra Pradesh 518101, India16.0732748 78.8687291-12.236959036178845 43.712479099999996 44.383508636178846 114.0249791tag:blogger.com,1999:blog-7170605150898159692.post-5238370077740238452020-08-31T04:52:00.000-07:002020-09-03T22:50:55.757-07:00एक आज़ाद रूह : अमृता प्रीतम !! <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3SfR3tAs7JDEDvZkX9dqWh09OEhC76Edl61agsw-u1zq81D_TQUJB5Gla_GaOG4rrp1XzadFqXLWbhfMvE-26lK_3l7R2MJN4yhbUzxjntDiBt2NNxlGxQ3_tGL7xd5vOmsOS3_1vIKc/s1600/1598961144283360-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi3SfR3tAs7JDEDvZkX9dqWh09OEhC76Edl61agsw-u1zq81D_TQUJB5Gla_GaOG4rrp1XzadFqXLWbhfMvE-26lK_3l7R2MJN4yhbUzxjntDiBt2NNxlGxQ3_tGL7xd5vOmsOS3_1vIKc/s1600/1598961144283360-0.png" width="400">
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</div><div><div>३१ अगस्त,....अपने लफ़्जों की जादूगरी से शाहकार रचने वाली "अमृता प्रीतम जी" हम आपकी १०१ वीं सालगिरह मना रहे हैं</div><div>📃🖋️क़लम की मल्लिका का जन्मदिन भी क़लम से ही मनाएंगे!!!!</div><div>'रसीदी टिकट' नाम से अपनी आत्मकथा में 'कई घटनाएं जब घट रही होती हैं.... अभी-अभी लगे ज़ख्मों सी तब उनकी कसक अक्षरों में उतर आती है ' लिखने वाली अमृता जी !! कुल मिलाकर लगभग सौ पुस्तकें लिखने वाली.. कवयित्री, उपन्यासकार, लेखिका....''अमृता प्रीतम जी '' का जन्मदिवस है। </div><div>२००४ में पद्म विभूषण, १९६९में पद्मश्री, १९८२ में ज्ञानपीठ पुरस्कार, १९५६ में साहित्य अकादमी पुरस्कार १९५७ में पंजाब भाषा विभाग के और १९८८ में बल्गारिया वैरोव के अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित अमृता जी की कृतियों का विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है ।</div><div>“मेरी सारी रचनाएं, क्या कविता, क्या कहानी और क्या उपन्यास, मैं जानती हूं, एक नाजायज़ बच्चे की तरह हैं। मेरी दुनिया की हक़ीकत ने मेरे मन के सपने से इश्क किया और उनके वर्जित मेल से यह सब रचनाएं पैदा हुईं। जानती हूं, एक नाजायज़ बच्चे की किस्मत इसकी किस्मत है और इसे सारी उम्र अपने साहित्यिक समाज के माथे के बल भुगतने हैं ।- - मन का सपना क्या था, इसकी व्याख्या में जाने की आवश्यकता नहीं है। यह कम्बख़्त बहुत हसीन होगा, निजी जिन्दगी से लेकर कुल आलम की बेहतरी तक की बातें करता होगा, तब भी हक़ीकत अपनी औकात को भूलकर उससे इश्क कर बैठी और उससे जो रचनाएं पैदा हुईं , हमेशा कुछ कागजों में लावारिस भटकती रहीं…”</div><div> अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ का यह एक अंश, जो उनके ही शब्दों में उनकी "समूची जीवनी का सार है! "</div><div>वे जानती थीं कि उनके नारी रूप को यहाँ मुक्त आकाश में अपनी मर्ज़ी से परवाज़ की इजाज़त समाज के ठेकेदार नहीं देंगे पर 'कुकनूस की नस्ल' के लेखक तो आग में जलने के बाद उसी राख से फिर ज़िंदा हो जाते हैं - - सो हमारी अमृता जी भी ज़िंदगी को भरपूर जीती रहीं। अपनी क़लम से सिर्फ़ ज़िंदगी को किताबों की सूरत में सबके सामने लाती रहीं।</div><div>आज इमरोज़ जी के इन शब्दों को याद करते हुए कि </div><div> " उन्होंने जिस्म छोड़ा है साथ नहीं छोड़ा है " </div><div>हम उनके जन्मदिन पर, उनकी कालजयी रचनाओं को पढ़ कर, उनके '' नदी, सागर और सीपियाँ " (जिस पर कादंबरी फ़िल्म बनी) उपन्यास की ख़ूबसूरत नज्म के द्वारा विनम्र श्रद्धा सुमन काव्याँजलि के रूप में समर्पित कर रहे हैं !!</div><div>उनके साहित्य को पढ़ने और उसे महसूस करने के कारण हमनें कई बार, अगस्त के इसी दिन - - पारिजात से महकते उनके घर के बाहर खड़े होकर उनकी पूरी ईमानदारी और शिद्दत से ज़िन्दगी जीने के जज़्बे को नमन किया है । आज वो घर नहीं तो क्या ? सच्चे लेखक तो अपनी क़लम के बनाए घरों में हमेशा ज़िन्दा रहते हैं..... वे तो यूँ भी..... अमृता..... हैं ! </div><div>पूरी शिद्दत से ज़िंदगी जीने वालों की कैफ़ियत उन्होंने यूँ बयान की - - - "क़लम नें आज गीतों का काफ़िया तोड़ दिया,</div><div>मेरा इश्क ये आज किस मुकाम पर आ गया!</div><div>उठो, अपने घड़े से पानी का एक कटोरा दो,</div><div>राह के हादसे मैं इस पानी से धो लूंगी...." </div><div> और....</div><div> उनके हर बयान को शिद्दत से महसूस करने वाले हम ; उनकी क़लम की जादूगरी के लिए बेसाख़्ता कह उठे - - - - </div><div> अमृता की क़लम </div><div>उसकी क़लम की सच्चाई भी कितनी</div><div>अजीब है ! </div><div>बगावती तेवर लिए खड़ी है, पर दिल के क़रीब है !! </div><div>ज़िंदगी की ग़ज़ल के काफ़िए तो बहुतों</div><div>ने जोड़े हैं ! </div><div>मगर इस पुख़्तगी से कब,किसने रदीफ़</div><div>यूं तोड़े हैं !! </div><div>उसनें काग़ज़ो पर बिखेरे काले मोतियों के जो हार हैं ! </div><div>उनकी नायाब रौशनी अंधेरों में दिखाती हमें जीने का सार है !! </div><div> 📚🖋️📚🖋️📚🖋️💐 🙏स्वर्णअनिल....🖋️</div><div><br></div></div>swaran anilhttp://www.blogger.com/profile/12514976421674260344noreply@blogger.com0