जाड़ों का मौसम

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शनिवार, 17 फ़रवरी 2024

कालजयी दिगम्बर संत आचार्य विद्यासागर जी के महाप्रयाण पर विनम्र श्रद्धाँजलि ।

दिगम्बर परम्परा के जिनेन्द्र आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी के महासमाधि लेने पर विनम्र श्रद्धासुमन 🌷🌷

"आदिम ब्रह्मा,
आदिम तीर्थंकर आदिनाथ से
 प्रदर्शित पथ का
आज अभाव नहीं है माँ ! 
परन्तु - - - - 
उस पावन पथ पर
दूब उग आई है! 
खूब वर्षा के कारण नहीं, 
चारित्र से दूर रह कर
केवल कथनी में
करुणा रस घोल
धर्मामृत-वर्षा करने वालों की 
भीड़ के कारण !"
माटी की मूकता को वाणी देकर कितने ही समसामयिक प्रश्नों के उत्तर देती आचार्यश्री की भारतीय साहित्य की विख्यात महाकाव्य " मूकमाटी " के उपर्युक्त शब्द, शायद इस कारण मेरे अंतस में उभरे क्योंकि मोक्ष के उस पथ को केवल कथनी नहीं कर्म से चरितार्थ करने वाले आदिनाथ की परंपरा वाले सच्चे पथप्रदर्शक -- पंचतत्वों में विलीन हो गए हैं। 
२२ वर्ष की आयु में आचार्य ज्ञानसागर जी ने मुनि विद्यासागर को 'दिगंबर साधु' के रूप में दीक्षा दी थी। २६वर्ष की आयु में आचार्य बनने वाले विद्यासागर महाराज जी को हिन्दी, संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी भाषाओं का ज्ञान था जबकि उन्होंने शिक्षा कन्नड़ भाषा में प्राप्त की थी। कन्नड़ भाषी होते हुए भी विद्यासागरजी ने हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़, प्राकृत, बंगला और अँग्रेजी में लेखन किया है। उन्होंने 'निरंजन-शतकं', 'भावना-शतकं', 'परीषह-जय-शतकं', 'सुनीति-शतकं' व 'श्रमण-शतकं' नाम से पाँच शतकों की रचना संस्कृत में की है तथा स्वयं ही इनका पद्यानुवाद भी किया है। उनके द्वारा रचित संसार में सर्वाधिक चर्चित, काव्य प्रतिभा की चरम प्रस्तुति है- 'मूकमाटी' महाकाव्य। यह रूपक कथा काव्य, अध्यात्म, दर्शन व युग चेतना का संगम है। संस्कृति, जन और भूमि की महत्ता को स्थापित करते हुए आचार्यश्री ने इस महाकाव्य के माध्यम से भारतीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया है।
मैं, आचार्य प्रवर के ही शब्दों के माध्यम से, उनको शब्दांजलि अर्पित कर, उनके दिए संदेश को आत्मसात करने का प्रयास कर रही हूं।
                  मूकमाटी 📖
"इस मोक्ष की शुद्ध दशा में, 
अविनश्वर सुख होता है ! 
जिसे प्राप्त होने के बाद, 
यहां संसार में आना 
कैसे संभव है तुम ही बता दो ! 
दुग्ध का विकास होता है ! 
फिर अंत में घृत का विलास होता है। 
घृत का दुग्ध के रूप में 
लौट आना संभव है क्या? 
तुम ही बता दो !"
 दल की भाव भंगिमा देखकर 
पुनः संत ने कहा कि
" इस पृथ्वी पर भी 
यदि तुम्हें श्रमण साधना के विषय में 
और अक्षय सुख के संबंध में
 विश्वास नहीं हो रहा हो 
तो ---- फिर अब 
अंतिम कुछ कहता हूं कि 
क्षेत्र की नहीं, 
आचरण की दृष्टि से 
मैं जहां पर हूं वहां आकर देखो मुझे।
 तुम्हें होगी, मेरी सही-सही पहचान। 
क्योंकि ऊपर से नीचे देखने से 
मुझे चक्कर आता है और - - 
नीचे से ऊपर का अनुमान 
लगभग गलत निकलता है। 
इसलिए इन शब्दों पर विश्वास लाओ। विश्वास की अनुभूति मिलेगी। 
अवश्य मिलेगी, मगर---- 
मार्ग में नहीं, मंजिल पर।" 
और महा-मौन में डूबते हुए संत
---- और माहौल को, 
अनिमेष निहारती - सी 
---- मूक माटी। 
            *****आचार्य विद्यासागर।
संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के कालजयी विचार, उनका दर्शन सदा सबका मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे। 
इसी माह ११ फरवरी२०२४ को आचार्य विद्यासागर महाराज को 'गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड' द्वारा 'ब्रह्मांड के देवता' (God of the Universe) के रूप में सम्मानित किया गया था। 
मैं इसे दिव्य संयोग मानती हूं कि वर्ष १९४६ की शरद पूर्णिमा को जन्मे आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी नें चन्द्रगिरि तीर्थ पर देह त्याग किया। शनिवार १७ फरवरी को देर रात २.३५ पर उन्होंने छत्तीस गढ़ के डोंगरगढ़ स्थित चन्द्रगिरि तीर्थ में, तीन दिन के उपवास और मौनव्रत के बाद शरीर त्याग दिया। 
🙏 अपनी दिव्यता से भूलोक को आलोकित करने वाले जिनेन्द्र आचार्य विद्यासागर जी महाराज के चरणों में कोटि-कोटि नमन व विनम्र श्रद्धासुमन।🌷🌷🌷

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

वसंत-पंचमी : भारतीय सांस्कृतिक, ऐतिहासिक अस्मिता का दिवस।

ऋतुराज वसंत की पंचमी तिथि ; भारतीय जनजीवन में अनादि काल से वर्तमान युगों की अविस्मरणीय विरासत को सहेजे हुए है।
 माघ मास की शुक्ल पक्ष की इस पंचमी को देवी सरस्वती के अवतरण की मान्यता के अनुसार इस दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की पूजा की जाती है। ज्ञान और कला की देवी मां सरस्वती को समर्पित किया गया है। भारतीय आदिग्रंथ ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है-
"प्रणो देवी सरस्वती वाजेभिर्वजिनीवती धीनामणित्रयवतु।" 
अर्थात ये परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में ये हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हममें जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं।
सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा, वीणावादनी और वाग्देवी सहित अनेक नामों से पूजा जाता है। माँ सरस्वती के प्रकटोत्सव के रूप में वसंत पंचमी के पावन पर्व को मनाया जाता है ।
देवी सरस्वती का वर्णन वेदों के मेधा सूक्त में, उपनिषदों, रामायण, महाभारत के अतिरिक्त कालिका पुराण, वृहत्त नंदीकेश्वर पुराण तथा शिव महापुराण, श्रीमद् देवी भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण इत्यादि में मिलता है।
 पौराणिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मांड के निर्माता ब्रह्माजी ने जीवों और मनुष्यों की रचना की। उन्होंने सृजित सृष्टि को देखा। उन्होंने अनुभव किया कि ये सभी सृजन निस्तेज हैं । वातावरण में अत्यधिक नीरवता थी। कोई ध्वनि या वाणी नहीं थी। उस समय, भगवान विष्णु के आदेश पर, ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल से पृथ्वी पर जल छिड़का। धरती पर गिरे जल ने पृथ्वी को कम्पित कर दिया तथा एक अप्रतिम सुंदरी स्त्री एक अद्भुत शक्ति के रूप में, चार भुजाओं के साथ प्रकट हुई। वे देवी एक हाथ में वीणा, दूसरे हाथ वरमुद्रा धारण किए तथा अन्य दो हाथों में पुस्तक व सुमरनी माला थी। भगवान ने महिला से वीणा बजाने का आग्रह किया। वीणा के स्वरों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों एवं मनुष्यों को वाणी प्राप्त हुई। देवी सरस्वती ने वाणी सहित सभी आत्माओं को ज्ञान और बुद्धि प्रदान की यही कारण है कि भारत में चिरकाल से विद्यारंभ संस्कार के लिए यह दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण माना जाता है। 
माघ मास का विशेष धार्मिक-आध्यात्मिक महत्व भी है। इस महीने तीर्थ क्षेत्र में स्नान का विशेष महत्व है। भक्त इस दिन गीत, संगीत और नृत्य कर उत्सव मनाते इस दिन का उद्देश्य, सृष्टि में नव चेतना और नव निर्माण के कारण हुए आनंद को व्यक्त करना और आनंदित होना है। कृषि प्रधान संस्कृत के कारण हम भारतीय, इस दिन नवान्न इष्टी यज्ञ भी करते है। इस दिन खेतों में उगाई गई नई फसल को घर में लाया जाता है और भगवान को अर्पित किया जाता है। इस दिन गणपति, इंद्र, शिव और सूर्यदेव की उपासना भी की  जाती है। वसंत ऋतु में वृक्षों में नए पल्लव आते हैं। प्रकृति के इस बदलते स्वरूप के कारण मनुष्य उत्साही और प्रसन्नचित्त हो जाता है। यह पर्व सूर्य के संक्रमण का प्रतीक है। इस दिन कुंभ मेले में शाही स्नान होता है।
भारतीय जनमानस, अपने सांस्कृतिक पर्व के साथ-साथ लोक-चेतना में रची-बसी अनेक महान ऐतिहासिक विभूतियों को भी अपने श्रद्धासुमन अर्पित कर अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
आईए आज के दिन के हर संदेश को आत्मसात कर कृतकृत्य हो जाएं। 
🌼वसंत पंचमी ; बुद्धि, प्रज्ञा और समग्र कलाओं की देवी सरस्वती के अवतरण का पावन दिवस ।      
 🌼लोक परंपराओं में इस दिन को श्रीराम द्वारा दंडकारण्य में शबरी के प्रेम रस से भरे जूठे बेर खाने का अभूतपूर्व दिवस  माना जाता है।          
🌼भारतीय अस्मिता के रक्षक सम्राट पृथ्वीराज चौहान द्वारा अपने मित्र और राजकवि चन्द बरदाई के शब्दों "चार बांस चौबीस गज, अँगुली अष्ट प्रमाण। ता ऊपर सुल्तान है मत चूको चौहान।।" पर आक्रमणकारी मोहम्मद गौरी पर शब्दभेदी बाण चलाना , (सोलह बार पराजित कर जीवनदान देकर) और... पृथ्वीराज-बरदाई का आत्मबलिदान दिवस।
🌼लाहौर में जन्मे वीर बालक हकीकत राय को माँ दुर्गा के अपमान के प्रतिरोध और धर्मपरिवर्तन को अस्वीकार करने के कारण१७३४ की वसंत पंचमी को लाहौर में मृत्युदंड दिया गया।चौदह वर्ष के बालक द्वारा धर्म के लिए दिए गए बलिदान को याद करते हुए उन्हे श्रद्धासुमन सुमन अर्पित कर उनके आकाशगामी शीश को याद कर आज भी पतंगें उड़ा कर उनकी स्मृतियों का स्मरण किया जाता है। 
🌼मान्यताओं के अनुसार दशमेश गुरु गोविंद सिंह जी का विवाह वसंत पंचमी को हुआ था। 
🌼गुरू रामसिंह कूका जी (कूका पंथ) जिन्होंने अँग्रेजी शासन के विरोध में अपनी प्रशासन व्यवस्था और डाक सेवा चलाई तथा स्वदेशी, गोरक्षा एवं देश के स्वाभिमान हेतु बलिदान दिया उनका जन्मदिवस  (१८१६ई.की वसंत पंचमी ) । 
🌼सरसों के पीले फूलों की चुनरी धरती को उढ़ाकर, ऋतुराज वसंत का स्वागत करने वाली ये पावन वसंत पंचमी सब ओर शुभता, समृद्धि और शान्ति लाए।
 हम सब सम्राट पृथ्वीराज चौहान-चंद बरदाई, वीर बालक हकीकत राय, गुरु रामसिंह कूका जी के देश और धर्म-रक्षा के मार्ग पर सर्वस्व अर्पित करने वाले अमर बलिदान के सम्मुख नतमस्तक हो, श्रद्धासुमन अर्पित करें , श्रीराम-शबरी के पावन चरित्रों को नमन कर, निश्छल प्रेम की मर्यादा को अपनाने का प्रयास करें। उत्तरायण के सूर्य की सुनहरी किरणों से उभरते बसंती रंग की ऊर्जा---- देवत्व के गुणों, भक्ति और प्रेम के मकरंद और देश व धर्म के उच्चत्तम आदर्शों के लिए सर्वत्यागी बनने के शौर्य से परिपूर्ण वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
🙏डॉ स्वर्ण अनिल ।
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मंगलवार, 23 जनवरी 2024

भेद खुला तउ कटीं अजीजनगईं धरती से असमान मा।।

  

🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता का अमृत-महोत्सव 🌷
भारतीय स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व समर्पित करने वाली वीरांगना अज़ीज़न के जन्मदिवस २२जनवरी को, कृतज्ञ श्रद्धाँजलि 🙏🌷🌷🌷🌷
जिसका पुण्य तेज हर दिन, योद्धा शूरवीर बन जाता था! 
उसकी घुंघरु की झनकार से, शत्रु का रक्त भी जम जाता था !!
अजीजन के नृत्य-संगीत की प्रसिद्धि और ब्रिटिश सैनिकों के उसके पास आने-जाने की सूचना और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों के प्रति उसके आक्रोश के कारण पुरुष वेश धारण कर अंग्रेजों से बदला लेने की उसके विद्रोही तेवरों की सूचना तात्या टोपे जी को मिली तो उन्होंने अजीजन बाई को होलिका दहन पर बिठूर आने का न्योता दिया। अजीजन बाई ने उनका आमंत्रण स्वीकार कर लिया। उन्होंने होलिका दहन के दिन अपने नृत्य से सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया । तात्या जब उन्हें पुरस्कार स्वरूप धन देने लगे, तो अजीजन बोलीं कि अगर कुछ देना है, तो अपनी सेना के सिपाही की वर्दी दे दें। यह सुनकर तात्या टोपे प्रसन्न हो गए और उन्होेंने गुप्तचर के रूप में अजीजन को अपनी टोली में शामिल कर लिया।
अजीजन बाई ने होली मिलन के रूप में मूलगंज में विशेष नृत्य कार्यक्रम का आयोजन किया, जिसमें सिर्फ अंग्रेज अधिकारियों को ही बुलाया। वहां पर  क्रांतिकारी पहले से ही घात लगाए बैठे थे। अंग्रेजों के आते ही उन्होंने धावा बोल दिया और उन्हें मौत के घाट सुला दिया।
नाना साहब ने अजीजन से राखी बंधवा कर उन्हें अपनी धर्म बहन बनाया था । अजीजन बाई ने अपनी सारी संपत्ति स्वतंत्रता संग्राम के लिए नाना साहब को दान कर दी थी।
अजीजन बाई ने अपनी महिला साथियों के साथ मिलकर 'मस्तानी टोली' बनाई और उन्हें युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया। यह टोली दिन में वेष बदल कर अंग्रेजों से मोर्चा लेती थी और रात में छावनी में नृत्य प्रदर्शन करके वहां से गुप्त सूचनाएं एकत्र करके नाना साहब तक पहुंचाती थी। इसके साथ युद्ध में घायल सैनिकों की सेवा तथा भोजन आदि पहुंचाने का काम भी वे सब कुशलतापूर्वक करती थीं। 
अजीजन की प्रेरणा से अंग्रेजी सेना में काम कर रहे हजारों भारतीय सैनिक अंग्रेज़ी सत्ता के विरुद्ध नाना साहेब की सेना में सम्मिलित हुए। उनकी मदद से नाना साहेब ने कानुपर से अंग्रेजों को उखाड़ फेंका और ८ जुलाई १८५७ में स्वतंत्र पेशवा घोषित कर दिये गये।
परंतु १७ जुलाई को जनरल हैवलाक अपनी विशाल सेना लेकर कानपुर पहुँच गया। उसने कुछ विश्वासघातियों की मदद से नाना साहेब की विजय को पराजय में बदल दिया। नाना साहब तो वहां से बच कर निकलने में सफल हो गये, परंतु अजीजन अंग्रेजों की कैद में आ गयीं।
जनरल हैवलाक ने क्रांतिकारियों का पता बताने के बदले में उन्हें प्राण दान देने की शर्त रखी पर राष्ट्रसेवा को समर्पित अजीजन ने,अंग्रेजों की गोलियों का निर्भीक होकर सामना किया।
देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की बलिवेदी पर हंसते-हंसते हुए कुर्बान होने वाली भारत माता कीअमर बेटी अजीजन बाई का नाम चाहे उपनिवेशवादी मानसिकता के गुलामों नें इतिहास के पृष्ठों से मिटाने के लिए कितने भी प्रयास किए। परंतु लोक-संस्कृति अपने नायक - नायिकाओं को कभी नहीं भुलाती। कानपुर की साधारण सी अज़ीज़न के असाधारण राष्ट्रप्रेम नें उसे अपने लोकगीतों में निरंतर जीवित रखा है। लोक-मानस नें अपनी इस अद्वितीय योद्धा को भुलाया नहीं वरन् अपनी लोकवाणी अवधी के इस गीत में उस क्रांति की ज्वाला को अमर कर दिया है:-
”फौजी टोपे से मिली अजीजन
हमहूँ चलब मैदान मा। 
बहू-बेटिन कै इज्जत लूटैं
काटि फैंकब मैदान मा। 
अइसन राच्छस बसै न पइहैं
मारि देब घमसान मा। 
भेद बताउब अंग्रेजन कै
जेतना अपनी जान मा। 
भेद खुला तउ कटीं अजीजन
गईं धरती से असमान मा।। ”
अर्थात अजीजन बाई स्वातंत्र्य-युद्ध के लिए लड़ने को तैयार होकर वीर सेनानी तात्या टोपे से मिलीं। युद्ध के मैदान में, फौज में लड़ने का अनुरोध किया। उस वीरांगना ने कहा कि ये अंग्रेज हिन्दुस्तानी बहू-बेटियों की इज्जत लूटते हैं, इन्हें मैं मैदान में काट कर फेंकू दूंगी। जब घमासान युद्ध होगा, ऐसे राक्षसों को बच कर जाने नहीं दूंगी, घमासान युद्ध में उन्हें मार डालूंगी। तात्या ने उनसे कहा कि मुझे अंग्रेजों का भेद बताइए। उन्होंने कहा कि जितना भी मेरी जानकारी में होगा, अंग्रेजों का सारा भेद मैं आपको बताऊंगी। फिर एक दिन अजीजन का भेद अंग्रेजों के सामने खुल गया। अंग्रेज़ों द्वारा वे काट डाली गयीं। इस धरती से उठ कर वे दिव्य आकाश में चली गयीं।
स्वतंत्रता की ज्योति को अपनी जीवन ज्योति देकर प्रज्जवलित रखनेवाली भारतीय वीरांगना की स्मृतियों को कोटि-कोटि नमन व विनम्र श्रद्धासुमन    🔥🔥🔥🔥स्वर्णअनिल

रविवार, 14 जनवरी 2024

'ढील तेरी बीर मोहिं पीर ते पिराती है' मेरी दुर्दांत पीड़ा और हनुमान बाहुक।

दर्द का, पीड़ा का साहित्य से गहरा सम्बन्ध होता है।मानते हैं " वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान - - - - ।" सुमित्रानंदन पंत जी के इन शब्दों के सत्य को। परंतु हमारी व्याधि हमें संत शिरोमणि तुलसीदास के साहित्य तक इस तरह पहुंचाएगी! ये नहीं जानते थे। पूरी बात जानने के लिए मेरी तन मन को----" पीर से पिराती " यात्रा में थोड़ी दूर तो चलना ही होगा !! 
बात २४ दिसंबर२०२३ की है। हमारी बांई ओर की पसलियों में तेज़ दर्द हुआ। फ्लेक्सोंन एम आर सुबह शाम लेनी शुरू की। २५ को दर्द के साथ दो तीन दाने (दर्द के साथ) के उरोस्थि(स्टेर्नम) के पास निकले।२६ को दाने बाईं ओर बढ़ने लगे। दर्द बढ़ा। सुबह लगभग ४ बजे के करीब उठने पर संतुलन बिगड़ा और ना जाने कैसे हम पीठ के बल गिरे। पीठ में अत्यधिक दर्द था। बच्चे रात-दिन हमारी सेवा-सुश्रुषा में जुटे थे। अगले दिन उरोस्थि (स्टेर्नम) से रीढ़ की हड्डी तक, फोड़ों के मोतियों की माला नें अपना जाल बिछा दिया था। उसके साथ पीड़ा निरंतर बढ़ती जा रही थी। पतिदेव अनिल जी कैलाश अस्पताल में भर्ती थे इसलिए हमनें उन्हें बताना ठीक नहीं समझा था। 
२९ दिसंबर तक दाने रीढ़ की हड्डी तक फैल गए। असहनीय दर्द शुरू। दवा, बर्फ का पैक और लैक्टो कैलामाइन लोशन थोड़ा आराम देता। दर्द जब रुलाने पर आ गया तो उस दिन हमनें, अनिल जी को फोन पर दानों की फोटो भेजी। एम्स के डॉक्टर ने व्याधि का निदान किया - "हर्पीस जोस्टर" !! आवश्यक दवाएं दी गईं। डॉक्टर के परामर्श के अनुसार,रोग की संक्रामकता देखते हुए हम एक कमरे तक सीमित हो गए।  दानों में थोड़ी सी कमी आई परन्तु शूल सा बेंधने वाला दर्द बना रहा। पतिदेव हमारी स्थिति देखकर परेशान थे पर बच्चों ने उन्हें शांत किया। 
हम अजब सी बेचैनी और झुंझलाहट अनुभव कर रहे थे। जाने क्यों व्यवहार में निराशा सी हावी हो रही थी जो हमारे स्वभाव के विपरीत था। 
५जनवरी को नाक (बांई ओर) से खून आया प्लेटलेट की जांच हेतु रक्त की जांच हुई परन्तु परिणाम ठीक थे। 
१२जनवरी की रात हमें काफी तेजी से चक्कर आए। पूरे कमरे का सामान गोल घूमते हुए दिखाई देता रहा, हमनें दूसरे कमरे में सोए पतिदेव को फोन किया। वे तुरंत आए। हमें घबराहट के साथ उल्टी भी होती रही। पतिदेव नें हमारी अवस्था देखी तो रक्तचाप लिया। बीपी १८५/९७ था। साधारणतया हमारा रक्तचाप निम्न स्तर पर रहता है। इसके बाद डॉक्टर ने दवाई बंद करवा दी परंतु अभी भी चक्कर-उल्टी की स्थिति बनी रही। रात को कमरे में रोशनी जलाए रखने के बावजूद चीजों का घूमना बंद नहीं हुआ। दानों में दर्द की स्थिति बनी हुई थी। लोशन व बर्फ से थोड़ी देर आराम मिलता था। डॉक्टर साहब ने उच्च रक्तचाप और सरदर्द के कारण दवा बंद करवा दी और बताया की दर्द की समाप्ति में कुछ महीनों की अवधि लग सकती है
१५ जनवरी को मकर संक्रांति पर,  हिमाचल प्रदेश में "माघो साज्जो" बड़ा त्यौहार है। हम हर बार अम्मा जी की चरण वंदना (सुइ) करते हैं। परंतु इस बार हमारी अम्मा जी (भाभी की माता जी) का फोन आया। उन्हें भाभी ने हमारी स्थिति बताई थी। आशीर्वाद देकर अम्मा जी ने हमसे पूछा कि दाने कैसे निकलने शुरू हुए थे और अब कितनी दूर तक फैले हैं। हमने दानों का पूरा विवरण बताया परंतु दर्द के बारे में नहीं बताया। उन्होंने कहा, "बेटा इसमें छुरा घोंपने जैसा तीखा दर्द होता है। दर्द के साथ ऐसी जकड़न लगती है कि राड़ी (चीखें) निकलती हैं। दाने नहीं बढ़ने चाहिए मगर "अग्निबाहु " का दर्द खत्म होने में ३-४ महीने लग सकते हैं।अम्माजी जो कुछ कह रहीं थीं वो मेरी पीड़ा की शब्दशः अभिव्यक्ति थी। परंतु जिस शब्द पर मैं चौंकी मैंने उसे दोबारा पूछा, " अम्माँ, अग्निबाहु या अग्नि बाहुक।" तब अम्मा जी ने स्पष्ट किया कि पहाड़ी में हमअग्निबाहुक को अग्निबाहु ही बोलते हैं। 
सच्चाई यह है कि मेरा ध्यान अपनी पीड़ा से  हट कर, हनुमान बाहुक के "मोहिं पीर ते पिराती है।" पर ठहर गया। दर्द घटे ना घटे परंतु संत शिरोमणि तुलसीदास जी जिस व्याधि की पीड़ा से त्रस्त होकर "हनुमान बाहुक" लिखने को बाध्य हुए मैं उसी से गुज़र रही हूं इस सोच ने मेरे दृष्टिकोण को सकारात्मक्ता में बदल दिया। मैंने अम्माजी को कोटिश धन्यवाद दिया क्योंकि तुलसी साहित्य पढ़ते हुए हनुमान बाहुक पढ़ा तो था पर अब तक वो विस्मृति के गर्भ में था। जिसे अम्मा जी के "अग्नि बाहुक" शब्द ने पुनः सामने लाकर खड़ा कर दिया था। 
  इस समय पढ़ने की सामर्थ्य कम जुटा पा रही हूं इसलिए सुनने का काम अधिक कर रही हूं। नेट पर "हनुमान बाहुक" को खोजा। मुझे सुप्रसिद्ध गायक नितिन मुकेश जी की मधुर वाणी में हनुमान बाहुक का पाठ मिल गया। अब मैं प्रतिदिन भोर और संध्या काल में आंखें बंद करके इसे सुनती हूं और तुलसीदास जी के शब्दों से सान्त्वना पाती हूं। 
मुख्य रूप से उनके ४४ पदों में से निम्न- लिखित पद सुनकर घनी पीड़ा में भी मुस्कुरा उठती हूं। भक्त के लिए भगवान से बड़ा सहायक और कौन हो सकता है और भक्त के पास ही यह शक्ति है कि वह कि वह अपने आराध्य से झगड़ा करके भी अपनी बात मनवा सकता है आजकल मैं वही कर रही हूं ! 
हनुमान बाहुक की मेरी प्रिय पंक्तियां हैं:--

*"आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ।।
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, 
को है जगजाल जो न मानत इताति है 
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ।।३०।।"
भावार्थ  मेरे ही पापों या तीनों ताप अथवा किसी श्राप के कारण बाहुक पीड़ा बढ़ी है। यह पीड़ा ना तो शब्दों में कही जाती और न ही सहन होती है। अनेक ओषधि, यन्त्र- मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ और यह पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और जगत का समूह-जाल ; कौन ऐसा है जो आपकी आज्ञाको न मानता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है। आपने मुझेअपना सेवक कहा है। हे वीर ! कष्टनिवारण में आपकी यह ढील मुझे इस अफनी पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही है॥३०

"घेरि लियो रोगनि,कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।।
करुनानिधान हनुमान महा बलवान,
हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है।।३५"
भावार्थ – रोगों, बुरे योगों एवं दुष्ट लोगों ने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिन में बादलों का घना समूह आकाश को घेरकर दौड़ता है। पीड़ारूपी जल बरसाकर इन्होंने क्रोध करके बिना अपराध यशरूपी जवासे को अग्निकी तरह झुलसा कर मूर्च्छित कर दिया। हे दयानिधान महाबलवान हनुमान जी ! आप हँसकर निहारिये और ललकार कर विपक्ष की सेना को अपनी फूँक से उड़ा दीजिए। हे केसरी के किशोर वीर ! तुलसी को कुरोग रूपी निर्दय राक्षस खा रहा है, आप अपने बल से मेरी रक्षा कीजिए ॥ ३५ ॥
"राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।।
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ।।३६।। "
भावार्थ – हे गोस्वामी हनुमान जी ! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा श्रीरामचन्द्रजी के सेवकों के पक्षमें रहनेवाले हैं। आनन्द-मंगल के मूल दोनों अक्षरों (राम-नाम)-ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। हे भुजाओंका आश्रय देनेवाले(बाहु पगार )! बाहुकी पीड़ा से मैं सारा आनन्द भुलाकर दु:खी होकर, आर्तभाव से तुम्हें पुकार रहा हूँ। हे रघुकुल के वीर !पीड़ा को दूर कीजिए मैं दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबारमें पड़ा रहूँगा ॥ ३६ ॥
इस सत्य को मैं नहीं जानती कि "हर्पीज जोस्टर" वास्तव में "बाहुक पीड़ा" है या नहीं परंतु हिमाचल के लोक में प्रचलित "अग्निबाहुक" से इसका संबंध अवश्य है वरना गांव में बैठी मेरी अम्माजी मेरे दर्द का हूबहू वर्णन कैसे करतीं? हमें विश्वास है कि मकर संक्रांति पर मिला मां का यह आशीर्वाद मेरा सुरक्षा कवच बनकर रक्षा करेगा।

शनिवार, 6 जनवरी 2024

महान विभूति - भारतेंदु हरिश्चंद्र " जी की पुण्यतिथि (६ जनवरी १८८५) " पर उन्हें कोटि- कोटि नमन व श्रद्धासुमन समर्पित हैं । 🌺🏵️🌻🌸🌻🏵️🌺

🙏बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारतेंदु हरिश्चंद्र की पुण्यतिथि पर विनम्र श्रद्धाँजलि 💐💐
हिंदी साहित्य की महानत्तम विभूति "भारतेंदु हरिश्चंद्र " केवल ३४ वर्ष चार महीने की छोटी सी आयु में दुनिया को छोड़ने से पहले वे हिंदी के क्षेत्र में इतना कुछ कर गए कि हैरत होती है कि कोई इंसान इतनी छोटी सी उम्र में इतना कुछ कैसे कर सकता है।हमें मालूम हो या न हो लेकिन यह सच है कि आज का हिंदी साहित्य जहां खड़ा है उसकी नींव का ज्यादातर हिस्सा भारतेंदु हरिश्चंद्र और उनकी मंडली ने खड़ा किया था. उनके साथ ‘पहली बार’ वाली उपलब्धि बार- बार जुड़ी है, खड़ी बोली के काव्य, कथा, नाटक, निबंध, पत्रकारिता आदि सभी विधाओं की 'पहली बार' वाली ख्याति के कारण आलोचकों नें उनको आधुनिक हिंदी का 'पितामह' और हिंदी साहित्य का महान ‘अनुसंधानकर्ता’ भी माना हैं।  नौ सितंबर, १८५० को इस धरा पर अवतीर्ण हुई यह महान विभूति - ६ जनवरी १८८५ को ब्रह्मलीन हो गई।
" भारतेंदु हरिश्चंद्र " जी की पुण्यतिथि पर उन्हें कोटि- कोटि नमन व श्रद्धासुमन समर्पित हैं ।
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गुरुवार, 16 नवंबर 2023

🔱 भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता का पर्व : नागुला चाविथि।

🔱 कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को दक्षिण भारत में श्रद्धापूर्वक मनाए जाने वाले पर्व नागुला-चाविथि (नाग-चतुर्थी ) की शुभेच्छाएँ 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
" सर्वे नागाः प्रीयन्तां मे ये केचित् पृथ्वीतले।
ये च हेलिमरीचिस्था येऽन्तरे दिवि संस्थिताः॥
ये नदीषु महानागा ये सरस्वतिगामिनः।
ये च वापीतडगेषु तेषु सर्वेषु वै नमः।।"
भारतीय संस्कृति में नागवंश का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। नागों का वेद, पुराण, उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि में देवताओं के रूप में मान्यता है। भारतीय परंपरा में नाग-पूजा का प्रचलन आदिकाल से रहा है। मोहनजोदड़ो, हड़प्पा और सरस्वती-सिंधु सभ्यता की खुदाई में प्राप्त प्रमाणों से पता चलता है कि उस काल में भी नागों की पूजा होती थी।
 आदिदेव भगवान आशुतोष का आभूषण नाग देवता हैं। श्री हरि नारायण /श्री विष्णु शेषशैय्या पर विराजमान रहते हैं। रामायण में विष्णु भगवान के अवतार श्री राम के छोटे भाई लक्ष्मण और महाभारत के श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम को शेषनाग का अवतार माना गया है।  
 उत्तर भारत में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की पंचमी नाग पंचमी के पर्व के रूप में मनाई जाती है और दक्षिण भारत के आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना और तमिलनाडु के कई भागों में   "नागुला चाविथि" (नाग चतुर्थी ) मनाई जाती है।
 नाग देवताओं की पूजा करने के लिए " नागुला चाविथी" पर्व को कार्त्तिक माह में दीपावली वाली अमावस्या के चौथे दिन मनाया जाता है। नौ नाग देवता- अनंत, वासुकी, शेष, पद्मनाभ, कंबाला, शंखपाल, धृतराष्ट्र, तक्षक और कालिया आदि नागों की इस दिन विशेष पूजा की जाती है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, अमृत की खोज में देवताओं और दानवों द्वारा सागर- मंथन के समय जब वासुकी को एक बड़े रस्सी के रूप में प्रयुक्त किया गया था। इस प्रक्रिया में हलाहल विष निकला। इस भयावह विष का मारक प्रभाव संसृति को समाप्त कर सकता था अतः सबकी प्रार्थना पर भगवान आशुतोष ने आज के ही दिन, लोक कल्याण के लिए हलाहल पी लिया। विष को कंठ में धारण करने के प्रभाव से उनका कंठ नीला हो गया। भगवान शिव का यह विषपायी स्वरूप  "नीलकंठ" के रूप में जाना जाता है। विषपान करते समय हलाहल की कुछ बूंदें धरती पर गिर गईं। विष (जहर) के हानिकारक प्रभावों को रोकने के लिए, संताप को शांत करने और हानिकारक प्रभावों से खुद को बचाने के लिए, देव-दानव व मानवों नें नागों की पूजा करना शुरू कर दी। नागों नें सबकी प्रार्थना स्वीकार कर ब्रह्मांड पर छाए संकट के निवारण हेतु कालकूट को पी लिया। सबने नागों की सभी प्रजातियों के लिए कृतज्ञता प्रदर्शित करते हुए कार्त्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को उत्सव का स्वरूप दिया।
कार्तिक मास की  दीपावली वाली अमावस्या के चौथे दिन "नागुला चाविथि" मनाई जाती है। नगुला चविथी नाग देवताओं (नाग देवताओं) की पूजा करने का त्योहार है जो मुख्य रूप से विवाहित महिलाओं द्वारा संतति के कल्याण की कामना से मनाया जाता है।
" अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कम्बलम्।
शङ्ख पालं धृतराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा॥
एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्।
सायङ्काले पठेन्नित्यं प्रातःकाले विशेषतः।
तस्य विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्॥"
प्रकृति तभी जीवित और फलती-फूलती है जब संतुलन हो। चूहे कृंतक हैं जो पारिस्थितिकी तंत्र में एक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं। 
प्रकृति संरक्षण की दृष्टि से देखें तो प्रकृति का हर तत्व तभी जीवित रहता है। सकल चराचर तभी फलता-फूलता है जब उचित संतुलन हो। पारिस्थितिक तंत्र में चूहे भी एक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं।परंतु उनकी  अधिकता घातक बीमारियों की वाहक भी बन जाती हैं और कृषि प्रधान देश में फसलों के विनाश का कारण भी। इससे बचने के लिए प्रकृति में चूहों की आबादी को संतुलित रखने के लिए सर्पों का विशेष योगदान है।  नागुला चाविथी हमारे कृषि प्रधान देश के जन समुदाय द्वारा सभी सांपों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने वाला अवसर भी है और भारत की सांस्कृतिक विरासत की पमुख घटना " समुद्र - मंथन " में अमृत के साथ उपजे प्रलयंकारी हलाहल को निष्क्रिय करने में भगवान नीलकंठ के सहयोगी बनी नाग जाति के प्रति आस्था व विश्वास अर्पित करने का पावन पर्व भी। शुभकामनाएँ 🙏
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷डॉ स्वर्ण अनिल ।