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शुक्रवार, 4 जून 2010

दर्द पृथ्वी का

पिछले दो दिनों से संचार -माध्यमों में होड़ सी लगी है मृत्यु से कुछ क्षण पूर्व के अनुभवों के वैज्ञानिक उत्तर पाने की और सामरिक हथियारों के क्षेत्र में प्रभुत्व किसका है -इसे प्रमाणित करने की |दोनों ही समाचारों में हमें मानव -स्वभाव की अजीब विसंगति सी दिखाई देती है ; सारा ज्ञान -विज्ञान ,दर्शन -धर्म, साहित्य -विचार ,कल्पना -चिन्तन ; सदा से घोषणा कर रहे हैं - सृष्टि चक्र में सबसे महत्वपूर्ण स्थान है "जीवन" का | चेतन जगत के हर जीव का सारा संघर्ष इस "जीवन "को बचाने से जुड़ा रहता है | धरती की सख्त कोख को दरका कर बाहर झांकता नन्हा बिरवा हो या चिड़िया का नाज़ुक सा बच्चा सभी को जीवन जीने के लिए भरपूर ताकत लगाते देखा है |गली में लावारिस पलते ,सबकी दुत्कार झेलते मरियल से पिल्लों को रोज़ जीने के लिए जूझते देखा है - ये सब जीवन जीने की लड़ाई में लगे हैं और मानव - मौत से कुछ क्षण पहले का सच जानने तथा जीवन नष्ट करने के साधन जुटा कर अपने को बड़ा साबित करने की लड़ाई में|
मृत्यु से तीन मिनट पहले किसी मनुष्य ने प्रकाश देखा ,अपने संबंधियों को देखा या किसी अलौकिक दिव्य सत्ता को ? ये सारे अनुभव किसी अदृश्य शक्ति के कारण हुए या मस्तिष्क की सिमटती विद्युत तरंगों के प्रभाव के परिणाम स्वरूप ? ये सारे प्रश्न और इनके उत्तर हमे बेमानी लग रहे हैं क्योंकि परमाणु बमों से , नए-नए विकसित संहार के हथियारों से झुलसते इन्सानों के घावों पर मरहम नही रख सकते ये अनसुलझे सवाल और इनसे जुडी बहस | मौत के तांडव से आक्रान्त धरती पर आज के वातावरण में ,आज के सुलगते परिवेश में हम चर्चा मृत्यु की नहीं जीवन की करेंगे |हाँ ! इस चर्चा से पहले अपनी आश्रय स्थली - अपने पूर्वज पृथु की पृथ्वी के दर्द को समझेंगे, उसकी पीड़ा को पूरी सच्चाई से महसूस करेंगे |

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                   दर्द पृथ्वी का 
            
युगों पहले तुम पृथु बन कर मुझ तक आए !
तुम्हारे दर्द को पहचान , तुम्हारी भावनाओं को स्वीकार ,
तुम्हे जीवन देने के लिए मैं चुपचाप पृथ्वी बन गई ।
तुम मेरी संतान हो – इसलिए मुझे प्रिय हो ,
मैनें काले-गोरे ,लम्बे-छोटे ,मालिक-नौकर ,पूँजीपति-मज़दूर में
कभी ! कहीं ! कोई अंतर ,  कोई भेद नहीं किया ।
सबको अपनी ममता के आँचल में छिपा कर ,
दुलार देकर , प्यार से , मेहनत से पाला है ।
मैनें तुम्हारे लोहे से – हल की फाल से ;
अपने तन पर उभर आई गहरी खरोचों के लिए ,
बार – बार कुरेदे गए , गहरे होते ज़ख्मों के लिए ,
बिना किसी मरहम की उम्मीद किए बिना - -
तुम्हारे लिए - ज़िन्दगी की भरपूर फ़सलें उपजाईं ।
हल की फाल को – 
प्यार से चूम कर एक बार क्या स्वीकारा ,
कि – तुम्हारे स्वार्थ ने –
हर लोहे से मुझे विदीर्ण करने की शपथ ले ली ?
तुम ! तुम जो मेरी अपनी संतान हो !
 तुम जिसके जीवन की धुरी हूँ – मैं ।
तुम माँ की कोख को उजाड़ने  की ,
मुझे गर्म लोहे से- - - -  बारूद से –घातक हथियारों से ,
पूरी तरह बाँझ बनाने की साज़िश में क्यों जुटे हो ? ?
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1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

Agreed ,really a dangerous trend to destroy our earth & earthlings going on .bravo swaran write more like this.