आज की कृष्ण-जन्माष्टमी के विषय में विद्वानों का कथन है कि वर्ष २०१३ की अष्टमी ५२३६ वर्षों बाद रोहिणी नक्षत्र ,भाद्रपद मास ,बुधवार ,अष्टमी और कृष्ण पक्ष का अदभुत संयोग लेकर आई है ।द्वापर के 'परजन हिताय' अवतार लेने वाले गिरिधारी ,युद्ध के दुष्परिणामों से समस्त जीवों को बचाने के लिए द्वारकाधीश होकर भी राजदूत बनकर कौरवों को समझाने का बीड़ा उठाने वाले कृष्ण , पांडवों के वंशधर परीक्षित को जीवनदान देने वाले गोविन्द ,लक्ष्य की ओर बने से पहले ही दुविधा में फंसे अर्जुन के मोह बंधन को काट कर निष्काम कर्म का संदेश देने वाले योगेश्वर कृष्ण का जीवन समर्पित था - जन कल्याण को -जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा को ।
आज जन्माष्टमी का पावन पर्व है ।"सर्वधर्मान परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज " की उद्घोषणा करने वाले योगेश्वर कृष्ण के अवतार का पावन पर्व है आज । मुझे सदा ही वर्तमान युग द्वापर युग की ही भाँति संक्रान्ति काल लगता है । कंस की तरह के राजाओं / सत्ताधारी वर्ग का वर्चस्व आज भी है जो प्रजा और बच्चों के मुँह का निवाला अपनी सुविधाओं की पूर्ति के लिए छीनने में ज़रा सा भी संकोच नही कर रहे हैं । कान्हा ने जब तक गोकुल के दूध-मक्खन को मथुरा जाने से रोकने के लिए मटकियाँ नहीं फोड़ी थीं तब तक ग्वाल-बालों की चिंता करने का साहस कौन जुटा पाया था ।यमुना ही नही भारत की सभी नदियाँ आज कालिया नाग जैसे विषाक्त प्रदूषण की शिकार हैं ।समाज में आज भी दुधमुंहे बच्चों को, मासूम किशोर-किशोरियों को - कई पूतनाओं ,केशी ,तृणाव्रत,बकासुर , अघासुर, धेनुकासुर जैसे दुष्ट प्रकृति वालों का शिकार बन कर कई अत्याचार झेलने पड़ रहे हैं । आज की नारी भी, कौरव सभा में द्रौपदी और बाणासुर के राज्य में स्त्रियों की तरह अपने शील अपने सम्मान की सुरक्षा को लेकर भयभीत है क्योंकि वो जानती है चाहे उसके साथ परिवार-जन हों या राज्य का संरक्षण ; सब उसके अपमान के क्षणों में मौन साध कर अपनी तथाकथित लाचारी की रेत में मुँह छिपा लेते हैं । सर्वोच्च पदों पर परिवार-वाद का बोलबाला है फिर उसके लिए चाहे धृतराष्ट्र का अंधा सन्तान-मोह , एक दुर्योधन को गद्दी पर बिठाने की चाह में सम्पूर्ण भारत की कई पीढ़ियों को कुरुक्षेत्र के युद्ध से उपजी भयानक तबाही के ज्वालामुखी में धकेलने को तत्पर हो जाए। भारतीय जीवन मूल्यों में आए परिवर्तनों ने उस युग के महानायक को ,"यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानम् अधर्मस्य
तदात्मानं सृजम्यहम् ॥ " की घोषणा कर सज्जनों की आस्था का केंद्र बनने का जोखिम उठाने वाले सारथि वासुदेव कृष्ण को , गांधारी के श्राप को स्वीकारने को बाध्य कर दिया था । आज भी सत्य के पक्षधरों को जीवन भर कई अभिशापों का बोझ अपने कंधों पर उठाना पड़ता है ।गिनना शुरू करें तो ऐसी कितनी ही सामाजिक और राजनैतिक घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है ।
हम जिस परिवेश में ,जिस कालखंड में जीते हैं उस से कुछ सीखना कठिन होता है पर अतीत से सीखना आसान होता है क्योंकि वहाँ कार्य और उससे जुड़े सभी परिणाम और प्रभाव हम तटस्थ रहकर समझ सकते हैं - - - इस कृष्ण जन्माष्टमी को अर्जुन की तरह अपने -अपने कार्यक्षेत्र में निष्ठा पूर्वक भगवदगीता के संदेश को समझ कर अपनाने का संकल्प है ।
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