मिर्ज़ा असद उल्लाह बेग खां "ग़ालिब "{२७ दिसंबर १७९६-१५ फरवरी १८६९}
जब की तुझ बिन नहीं कोई मौजूद ,
फिर ये हंगामा-ए-ख़ुदा क्या है !
जान तुझ पर निसार करता हूँ ,
मैं नहीं जानता दुआ क्या है !!****
मैं ये पूरी शिद्दत से इस सच्चाई को मानती हूँ कि " ग़ालिब " ,एक ऐसे सुखनवर हैं जो वक्त की राह में गड़े हर मील के पत्थर पर अपनी क़लम के लासानी जादू का ऐसा अमिटअसर छोड़ गए हैं कि सदियों की दूरियाँ भी उस जादू को बेअसर नहीं कर पाई ना ही आने वाली सदियों में कर पायेंगी। " बाबा-ए-सुख़न " से हमारी मुलाक़ात करवाते वक़्त पिताजी ने समझाया था कि हिंदुस्तान में जन्मी उर्दू की मिठास को पहचानना है तो मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी से शुरुआत करो और एक पच्चीस पन्नों की आसमानी रंग की देवनागरी की पतली सी क़िताब "ग़ालिब की मशहूर ग़ज़लें " थमा दी थी । ये वो वक़्त था जब रेडियो पर भारतभूषण-सुरैया की फ़िल्म मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़लें गूँजती रहती थी।
******* बस तभी से। ...... एक सिलसिला चल निकला देवनागरी में उर्दू को समझने का। .... और उर्दू शायरी को लिखने-पढ़ने का।
******* बस तभी से। ...... एक सिलसिला चल निकला देवनागरी में उर्दू को समझने का। .... और उर्दू शायरी को लिखने-पढ़ने का।
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