जाड़ों का मौसम

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सोमवार, 5 जून 2017

५ जून २०१७ ; दिल्ली से वैनकुवर

५ जून २०१७ ;दिल्ली से वैनकुवर की हमारी यात्रा ! एक घर से दूसरे घर तक जाने जैसी ही है। हमें तो ऐसा ही लगता है।- - - - भारत से कैनेडा जाने पर 
कैसा लग रहा है ? इस सवाल को कितने लोगों ने कितने अलग-अलग अंदाज़ में पूछा है। उनमें से ज़्यादातर नें ' घर छोड़कर जाने' की अपनी सोच को सामने रखकर पूछा।हमनें जब " एक घर से दूसरे घर तक जाने " की बात कही तो ' घूमने के लिए कुछ दिन ठीक ही हैं। ' उनकी इसी बात पर  हमनें भी बात ख़त्म की - - - - पर हमें सचमुच ही घर बदलने जैसा ही एहसास हुआ है। हवाई जहाज़  से उतरते ही नन्हे ने उसी चिर-परिचित अंदाज़ में हमें और अनिल जी को गले लगाया। बेटे की मज़बूत बाँहों की अपनेपन की ऊष्मा से भरी कोमल संभाल  भरी पकड़ जैसी दिल्ली में मनु की रहती है यहाँ नन्हे की है। लंबी यात्रा की थकान नन्हे को मिल कर पूरी तरह काफ़ूर हो चुकी थी। परंतु हमें घर पहुंचने की उतावली ज़्यादा इसलिए थी क्योंकि इस घर के बनने और गृहप्रवेश की पूरी प्रक्रिया में बच्चों नें हर क़दम पर हमें जोड़े रखा था।बच्चों ने विदेश में अकेले अपने दम से अपना घर बनाया, हमारे लिए उसे देखना सबसे बड़ी खुशी थी।  चिनारों ,देवदार , रंगबिरंगे फूलों भरे रास्तों से गुज़र कर घर पहुँच कर अपनों के प्यार के बीच कैनेडा का ये ख़ूबसूरत घर कितना अपना  है  इसको शब्दों में बाँधना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है !! पहाड़ों की ख़ुशगवार हवाओं से सजा आषाढ़ का रूमानी मौसम घर के अंदर और बाहर दोनों जगह है। 
 लिखते -लिखते हमारे होंठों पर बेसाख़्ता वही गीत उभर आया है जो ऐसे वातावरण में हमेशा याद आ जाता  है ****************  
झूला धनक का ,धीरे -धीरे हम झूलें। 
अंबर तो क्या है तारों के भी लब छू लें। 
मस्ती में झूलें और सारे ग़म भूलें ,
पीछे न देखें मुड़ के निगाहें - - आजा चल दें कहीं दूर। 
फैली हुई हैं सपनों की बाँहें आजा चल दें कहीं दूर !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!! 

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