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रविवार, 25 जून 2017

"आषाढ़ " एक मास ; दो कालजयी लेखकों की अप्रतिम रचनाएँ !

मेरे लिए हर बार ; "आषाढ़ मास " में अपने इन दो मनस्वी रचयिताओं की जीवनी और उनकी कालजयी महान कृतियों को पढ़ना - - - - एक प्रिय अनुष्ठान सा बना हुआ है। हालाँकि उनके लिखे शब्द वही रहते हैं परंतु अर्थ हर बार हमारे लिए नये होते हैं!! 
{इस बार, मेरा मन - - - - दोनों अप्रतिम कृतियों के अंतिम दृश्य में - - - - मानवीय मन की गहराईयों के बीच ठहरा है } 
⛈️मेघदूतम् - महाकवि कालिदास। 
एतस्‍मान्‍मां कुशलिनमभिज्ञानदानाद्विदित्‍वा
मा कौलीनाच्‍चकितनयने! मध्‍यविश्‍वासिनी भू:।
स्नेहानाहु: किमपि विरहे ध्‍वंसिनस्‍ते त्‍वभोगा-
दिष्‍टे वस्‍तुन्‍युपचितरसा: प्रेमराशीभवन्ति।।
इस पहचान से मुझे सकुशल समझ लेना।
हे चपलनयनी, लोक के विचारों को सुनकर कहीं मेरे प्रति अपना विश्‍वास मत खो देना।कहते हैं कि विरह में स्‍नेह कम हो जाता है। पर सच तो यह है कि सानिध्य के अभाव में प्रियतम का स्‍नेह रस के संचय से प्रेमका भंडार ही बन जाता है
* * * *



आश्‍वास्‍यैवं प्रथमविरहोदग्रशोकां सखीं ते
शैलादाशु त्रिनयनवृषोत्‍खातकूटान्निवृत:।
साभिज्ञानप्रहितकुशलैस्‍तद्वचोभिर्ममापि
प्रात: कुन्‍दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथा:।।
पहली बार विरह के तीव्र शोक की दु:खिनी
उस अपनी प्रिय सखी को धीरज देना।
फिर उस कैलास पर्वत से, जिसकी चोटी
पर शिव का नन्‍दी धावा बोलकर खेल करता
है, तुम शीघ्र लौट आना। और गूढ़ पहचान
के साथ उसके द्वारा भेजे गए कुशल सन्‍देश
से मेरे उस सुकोमल जीवन को भी, जो प्रात:काल के कुन्‍द पुष्‍प की तरह शिथिल हो गया है, सांत्वना देना। 
* * * *
कच्चित्‍सौम्‍य! व्‍यवसितमिदं बन्‍धुकृत्‍यं त्‍वया मे
प्रत्‍यादेशान्‍न खलु भवतो धीरतां कल्‍पयामि।
नि-शब्‍दो∙पि प्रदिशसि जलं याचितश्‍चातकेभ्‍य:
प्रत्‍युक्‍तं हि प्रणयिषु सतामीप्सितार्थक्रियैव।।
हे प्रिय मित्र! क्‍या तुमने निज बन्‍धु का यह
कार्य करना स्‍वीकार कर लिया ? मैं यह
नहीं मानता कि तुम उत्तर में कुछ कहो
तभी तुम्‍हारी स्‍वीकृति समझी जाए। तुम्‍हारा
यह स्‍वभाव है कि तुम गर्जन के बिना भी
उन चातकों को जल देते हो, जो तुमसे
माँगते हैं। सज्‍जनों का याचकों के लिए
इतना ही प्रतिवचन होता है कि वे उनका
काम पूरा कर देते हैं
* * * *
एतत्‍कृत्‍वा प्रियमनुचितप्रार्थनावर्तिनो मे
सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्ध्‍या।
इष्‍टान्‍देशाञ्जलद! विचर प्रावृषां संभृत श्री-
र्मा भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोग:!! 
हे मेघ, मित्रता के कारण, अथवा मैं विरह हूँ इस कारण मेरे ऊपर दया करके यह अनुचितअनुरोध भी मानते हुए मेरा कार्य पूरा कर देना। फिर वर्षा ऋतु की शोभा लिये हुए मनचाहे स्‍थानों में विचरना। हे जलधर,तुम्‍हें अपनी प्रियतमा दामिनी (विद्युता) से क्षण-भर केे लिए भी मेरे जैसा वियोग न सहना पड़े !! 
* * * * * * * * 
🌥️आषाढ़ का एक दिन : मोहन राकेश 
कालिदास :आकृति बहुत बदल गई है,परंतु व्यक्ति आज भी वही है। 
विलोम : स्वर भी परिचित है और शब्द भी।(आँखें स्थिर कर के देखने का प्रयत्न करता है। फिर सहसा हँस उठता है।) तो तुम हो, तुम ?...गिरने और चोट खाने का सारा कष्ट दूर हो गया ! कितने दिनों से तुम्हें देखने की लालसा मन में थी आओ ...। (उसकी ओर बाँहें बढ़ाता है , परंतु कालिदास उसके सामने से हट जाता है।) गले नहीं मिलोगे ? मेरा शरीर मैला है, इसलिए ? या मुझी से घृणा है ? परंतु इस तरह मेरा-तुम्हारा संबंध नहीं टूट सकता। तुमने कहा था न कि हम एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं। नहीं कहा था ? मैंने इन वर्षों में उस निकटता में अंतर नहीं आने दिया। मैं तो समझता हूँ कि अब हम एक-दूसरे के और भी निकट पड़ते हैं।(मल्लिका की ओर मुड़ता है) क्यों मल्लिका, मैं ठीक नहीं कहता ?...तुम वहाँ स्तंभित-सी क्यों खड़ी हो ? विलोम इस घर में अब तो अयाचित अतिथि नहीं है। अब तो वह अधिकार से आता है। नहीं ? अब तो वह इस घर में कालिदास का स्वागत और आतिथ्य कर सकता है। नहीं ?(फिर कालिदास की ओर मुड़ता है।) कहोगे कितनी आकस्मिक बात है कि तब भी मुझसे इसी घर में भेंट हुई थी और आज भी यहीं हुई है। परंतु सच मानो, यह आकस्मिक बात नहीं है। तुम जब भी आते, हमारी भेंट यहीं होती।(मल्लिका की ओर मुड़ता है।) तुमने अब तक कालिदास के आतिथ्य का उपक्रम नहीं किया ? वर्षों के बाद एक अतिथि घर में आए और उसका आतिथ्य न हो ? जानती हो ? कालिदास को इस प्रदेश के हरिणशावकों का कितना मोह है.... ?(फिर कालिदास की ओर मुड़ता है।) एक हरिणशावक इस घर में भी है।.... तुमने मल्लिका की बच्ची को नहीं देखा ? उसकी आँखें किसी हरिणशावक से कम सुंदर नहीं हैं। और जानते हो अष्टावक्र क्या कहता है ? कहता है...।(मल्लिका सहसा आगे बढ़ जाती है।) मल्लिका : आर्य विलोम।। (विलोम हँसता है।) विलोम : तुम नहीं चाहतीं कि कालिदास यह जाने कि अष्टावक्र क्या कहता है। परंतु मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं होता। मैं इसलिए कह रहा था कि संभव है कालिदास ही देख कर बता सके कि अष्टावक्र की बात कहाँ तक सच है । क्या बच्ची की आकृति सचमुच विलोम से मिलती है या.... ?(मल्लिका हाथों में मुँह छिपाए आसन पर जा बैठती है। विलोम कालिदास के पास चला जाता है।) चलो, देखोगे ? कालिदास : यहाँ से चले जाओ , विलोम ।विलोम : चला जाऊँ ?(हँसता है।)इस घर से या ग्राम-प्रांतर से ही ? सुना है शासन बहुत बली होता है।प्रभुता में बहुत सामर्थ्य होती है।। कालिदास : मैं कह रहा हूँ इस समय यहाँ से चले जाओ। 
विलोम : क्योंकि तुम यहाँ लौट आए हो? ...क्योंकि वर्षों से छोड़ी हुई भूमि आज फिर तुम्हें अपनी प्रतीत होने लगी है ? ....क्योंकि तुम्हारे अधिकार शाश्वत हैं ?(हँसता है।) जैसे तुमसे बाहर जीवन की गति ही नहीं है। तुम्हीं तुम हो और कोई नहीं है। परंतु समय निर्दय नहीं है। उसने औरों को भी सत्ता दी है। अधिकार दिए हैं। वह धूप और नैवेद्य लिए घर की देहली पर रुका नहीं रहा। उसने औरों को अवसर दिया है ! निर्माण किया है।...तुम्हें उसके निर्माण से वितृष्णा होती है ? क्योंकि तुम जहाँ अपने को देखना चाहते हो, नहीं देख पा रहे ?(कई क्षण उसकी ओर देखता रहता है। फिर हँसता है।) ....तुम चाहते हो इस समय मैं यहाँ से चला जाऊँ। मैं चला जाता हूँ। इसलिए नहीं कि तुम आदेश देते हो। परंतु इसलिए कि तुम आज यहाँ अतिथि हो, और अतिथि की इच्छा का मान होना चाहिए ।(द्वार की ओर चल देता है। द्वार के पास रुक कर मल्लिका की ओर देखता है।) देखना मल्लिका, आतिथ्य में कोई कमी न रहे। जो अतिथि वर्षों में एक बार आया है वह आगे जाने कभी आएगा या नहीं।(अर्थपूर्ण दृष्टि से दोनों की ओर देखता है और चला जाता है। मल्लिका मुँह से हाथ हटा कर कालिदास की ओर देखती है। कुछ क्षण दोनों चुप रहते हैं।) 
मल्लिका : क्या सोच रहे हो ? 
(कालिदास झरोखे के पास चला जाता है।) कालिदास : सोच रहा हूँ कि वह आषाढ़ का ऐसा ही दिन था। ऐसे ही घाटी में मेघ भरे थे और असमय अँधेरा हो आया था। मैंने घाटी में एक आहत हरिणशावक को देखा था और उठा कर यहाँ ले आया था। तुमने उसका उपचार किया था। (मल्लिका उठ कर उसके पास चली जाती है।) मल्लिका : और भी तो कुछ सोच रहे हो !कालिदास : और सोच रहा हूँ कि उपत्यकाओं का विस्तार वही है। पर्वत-शिखर की ओर जाने वाला मार्ग भी वही है। वायु में वैसी ही नमी है। वातावरण की ध्वनियाँ भी वैसी ही हैं।
मल्लिका : और ?
कालिदास : और कि वही चेतना है जिसमें कंपन होता है। वही हृदय है जिसमें आवेश जागता है। परंतु...।(मल्लिका चुपचाप उसकी ओर देखती रहती है। कालिदास वहाँ से हट कर आसन के पास आ जाता है और वहाँ से ग्रंथ उठा लेता है।) परंतु यह कोरे पृष्ठों का महाकाव्य तब नहीं लिखा गया था। 
मल्लिका : तुम कह रहे थे कि तुम फिर अथ से आरंभ करना चाहते हो। 
(कालिदास नि:श्वास छोड़ता है।) 
कालिदास : मैंने कहा था मैं अथ से आरंभ करना चाहता हूँ। यह संभवत: इच्छा का समय के साथ द्वंद्व था। परंतु देख रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली है क्योंकि.... ।
मल्लिका : क्योंकि.... 
(फिर अंदर से बच्ची के रोने का शब्द सुनाई देता है।मल्लिका झट से अंदर चली जाती 

है।कालिदास ग्रंथ आसन पर रखता हुआ जैसे अपने को उत्तर देता है। ) 
कालिदास : क्योंकि वह प्रतीक्षा नहीं करता।(बिजली चमकती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता है।कालिदास एक बार चारों ओर देखता है , फिर झरोखे के पास चला जाता है। वर्षा पड़ने लगती है। वह झरोखे के पास आ कर ग्रंथ को एक बार फिर उठा कर देखता है और रख देता है। फिर एक दृष्टि अंदर की ओर डाल कर ड्योढ़ी में चला जाता है। क्षण-भर सोचता-सा वहाँ रुका रहता है। फिर बाहर से दोनों किवाड़ मिला देता है। वर्षा और मेघ-गर्जन का शब्द बढ़ जाता है। कुछ क्षणों के बाद मल्लिका बच्ची को वक्ष से सटाए अंदर आती है और कालिदास को न देख कर दौड़ती-सी झरोखे के पास चली जाती है। ) 
मल्लिका : कालिदास ! (उसी तरह झरोखे के पास से आ कर ड्योढ़ी के किवाड़ खोल देती है।) कालिदास !! (पैर बाहर की ओर बढ़ने लगते हैं परंतु बच्ची को बाँहों में देख कर जैसे वहीं जकड़ जाती है। फिर टूटी-सी आ कर आसन पर बैठ जाती है और - - - -बच्ची को और साथ सटा कर रोती हुई उसे चूमने लगती है। बिजली बार -बार चमकती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता रहता है। ) {पर्दा गिरता

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