बारह फरवरी को अपनी आँखों के आप्रेशन से लेकर आज सत्रह अप्रैल तक -एक लंबा समय गुज़र गया है !
बिना कुछ पढ़े लिखे रहना हमारे लिए किसी सज़ा से कम नही है | इसलिए पढ़ा चाहे ना हो पर आँखे बंद करके लिखने का काम हमने बंद नही किया | अब भी पूरी तरह से डॉक्टर साहब की आज्ञा तो नही मिली पर -- नया न सही पुराने को सहेजने का लोभ हमे लैपटॉप तक ले ही आया
हम अपनी डायरी के पन्नों से उस दौर की बातों को- जो हमने सिर्फ़ खुद से कहकर खुद को ही सुनाई थी, आज पढने की भरपूर कोशिश के बाद लिखने में जुटे हैं -प र आसान यह काम भी नही है | अपने आप से किया गया वादा है इसलिए किश्तों में ही सही काम सिलसिलेवार करेगे । फरवरी माह की तिथि तेरह , गुरु नानक देव जी की तरह 'तेरा ' तुझको अर्पण का आध्यात्मिक संदेश लेकर - मुझ तक - वसंत ऋतु में चाहकर भी आ ही नही पाई । चाहकर इसलिए कह रही हूँ क्योंकि सुनती आई हूँ कि दर्द की इन्तहा में भगवान की ही याद आती है - -और मेरे तो देह और मन दोनों पीड़ा में थे । - -यूँ भी अपने देश में कोई भी मौसम ,कोई भी त्यौहार पीड़ा से जुड़ता ही नही है । फिर वसंत ऋतु तो ऋतुराज है जिसमें दर्दभरे तन-मन की हूक कोयल की कूक में ही ढल जाती है |
बिना कुछ पढ़े लिखे रहना हमारे लिए किसी सज़ा से कम नही है | इसलिए पढ़ा चाहे ना हो पर आँखे बंद करके लिखने का काम हमने बंद नही किया | अब भी पूरी तरह से डॉक्टर साहब की आज्ञा तो नही मिली पर -- नया न सही पुराने को सहेजने का लोभ हमे लैपटॉप तक ले ही आया
हम अपनी डायरी के पन्नों से उस दौर की बातों को- जो हमने सिर्फ़ खुद से कहकर खुद को ही सुनाई थी, आज पढने की भरपूर कोशिश के बाद लिखने में जुटे हैं -प र आसान यह काम भी नही है | अपने आप से किया गया वादा है इसलिए किश्तों में ही सही काम सिलसिलेवार करेगे । फरवरी माह की तिथि तेरह , गुरु नानक देव जी की तरह 'तेरा ' तुझको अर्पण का आध्यात्मिक संदेश लेकर - मुझ तक - वसंत ऋतु में चाहकर भी आ ही नही पाई । चाहकर इसलिए कह रही हूँ क्योंकि सुनती आई हूँ कि दर्द की इन्तहा में भगवान की ही याद आती है - -और मेरे तो देह और मन दोनों पीड़ा में थे । - -यूँ भी अपने देश में कोई भी मौसम ,कोई भी त्यौहार पीड़ा से जुड़ता ही नही है । फिर वसंत ऋतु तो ऋतुराज है जिसमें दर्दभरे तन-मन की हूक कोयल की कूक में ही ढल जाती है |
सन्दर्भ और अर्थ (१ ४ फरवरी २ ० १ ३ )
सन्दर्भों की पृष्ठभूमि बदलते ही;शब्दो को पहनाए गए अर्थों के लिबास बदल जाते हैं ,
समय की ठोकर से लड़खड़ा कर ;सहमी सी ज़िंदगी के सारे हालात बदल जाते हैं ।
जब भी अल्हड़ मौसम दबे पाँव आकर वादी के पेड़ों और पर्वतों के काँधों पर ,
फूलों और घास के मखमली, रंगभरे दरीचों पर कोहरे की चादर उड़ा जाता है ।
वसंत में हर बार कुहूकते सुर सज जाते जब-जब; बौराए आम की शाखों पर ,
तब महकते सपनों के अनगिनत दीप जला, जाने कौन बाँसुरी पर गाता है ।
आज वो वादी नहीं, वो मंज़र भी नहीं-पर वो कोहरा; जो मेरी आँखों रह गया ठहर कर ,
आस-उम्मीद की जतन से बाँधी मजबूत दीवारों को; आँसुओं के सैलाब से ढहाता है ।
गीतों का मौसम भी कुछ परेशाँ सा है; गगन छूने के हौसलेवाला क्यों नहीं आया झूलों पर,
धुआँ-धुआँ से बादलों की शरारत ने वो जाल बुने कि अब दिन में भी अँधेरा ही मुस्कराता है ।
फूलों और घास के मखमली, रंगभरे दरीचों पर कोहरे की चादर उड़ा जाता है ।
वसंत में हर बार कुहूकते सुर सज जाते जब-जब; बौराए आम की शाखों पर ,
तब महकते सपनों के अनगिनत दीप जला, जाने कौन बाँसुरी पर गाता है ।
आज वो वादी नहीं, वो मंज़र भी नहीं-पर वो कोहरा; जो मेरी आँखों रह गया ठहर कर ,
आस-उम्मीद की जतन से बाँधी मजबूत दीवारों को; आँसुओं के सैलाब से ढहाता है ।
गीतों का मौसम भी कुछ परेशाँ सा है; गगन छूने के हौसलेवाला क्यों नहीं आया झूलों पर,
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1 टिप्पणी:
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