धरती की हरी चूनर पर बिखरे
गुनगुनी धूप से चटख रंग ,
पुरवा की ठंडक लिए मन प्राणों को सहलाते रंग
आज आकाश से धरती तक बिखरे हैं रंग ही रंग
फागुन के सतरंगे मौसम को
बंद खिड़की के रंगीन काँच से -
इतनी दूरी पर खडे हो कर देखो गे तो -------
कैसे छू पाओगे - महकते -धड़कते रंग तुम !
अबीर - गुलाल ,चंदन-कसर की कोमल मदिर आंच से
कच्चे रंगों वाले अपने प्राणों के बदरंग होते लिबास को
आज ---इन्द्रधनुषी रंगों में रंग लो तुम !
समसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!
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