बहुत पहले पढ़ा , फिर डिस्कवरी चैनल पर देखा – पम्पई नगर । इस नगर को शताब्दियों पहले ज्वालामुखी के भयंकर विस्फोट नें दहला दिया था । आग के उस धधकते समंदर से उमड़ा पिघलता गर्म लावा ; जो कुछ ही क्षणों में,सभ्यता के चरमोत्कर्ष के उस प्रतिनिधी नगर को लील गया । जीवन उस क्षण ठहर गया । प्रकृति की विनाशकारी शक्तियों नें सब समाप्त कर दिया,जो जहाँ था वहीं उसी हाल में पत्थर हो गया । गर्म लावे की पर्तों ने हर धड़कते जिस्म को पत्थर की मूर्तियों में बदल दिया था । आगे आने वाले वक्त ने इस नगर को मनों मिट्टी के नीचे दबाकर उसकी यादों को मिटाना चाहा ,पर पम्पई नगर को गुज़रते समय की धूल-मिट्टी नहीं मिटा पाई – आज सदियों को लाँघ कर - वो वक्त ,वो वज्रपात जो उस घड़ी हुआ ; उसका मौन क्रंदन स्पष्ट सुनाई देता है । - बेशक तीव्र गति से चलती ये ज़िन्दगी रुकी नहीं – पर प्रकृति का दिया वह घाव आज तक भरा नहीं । “ वक्त हर घाव पर मरहम रख देता है “ – इसे स्वीकारने नहीं देता – पम्पई का सच ।
कुछ लोगों का जीवन से चले जाना भी क्या पम्पई से जीवन के चले जाने की तरह नहीं होता ? स्मृतियों में उनकी जीवंतता कभी मद्धिम नहीं पड़ती ॥ वास्तव में जिनकी जगह किसी और को रखा ही ना जा सके उनकी अपूर्णीय क्षति की पूर्ति असंभव है । ४ जुलाई हमारे पिताजी श्री भाग्यचन्द्र सरकैक की जन्म तिथी है । पापा को गए सत्रह वर्ष हो गए हैं – इस बात का ध्यान हम परिवार–जनों को नहीं रहता, अन्य लोग याद दिलाते हैं । कहीं भी हों , बाँसुरी पर बजते – पहाड़ी ,आसावरी ,मालकौंस , अहीर-भैरव आदि राग - पापा की बाँसुरी की याद दिलाते हैं । बरसात की रिमझिम से ‘ पापा के पकौड़ों’ का साथ आज भी वैसा ही है । एक बहुत प्यारी सी बात ;जिसे समझने के लिए हमें( मैं, भय्या-गिरीश,छोटी-बहन ऊषा)कई वर्ष लगे । असल में हमनें बचपन से बड़े होने तक अपने माता –पिता को कभी झगड़ा करते नहीं देखा था । एक धारणा बन गई थी कि माता-पिता बड़े होते हैं इसलिए कभी लड़ते नहीं । तो – होता यूँ था कि पापा कभी दो-चार महीने में एक बार ,कभी एक महीने में दो बार बाज़ार से जलेबी, इमरती व समोसे लाते और हम सब को बुला कर कहते , ‘ चलो सब जल्दी आओ , आज तुम्हारी माँ का जन्मदिन है। जलेबी- समोसे ठंडे हो रहे हैं ! ’ – सच , - तब कभी ये सवाल किसी के मन में नहीं आया कि माँ का जन्मदिन साल में कितनी बार आता है । आता भी कैसे ? माँ भी मुस्कराते हुए अपना जन्मदिन मनातीं और फिर हमारे पापा झूठ भी नहीं बोलते थे ! अपने विवाह के बाद जब इस ‘ अबोले-रूठने’ का रहस्य समझ में आया तब हमनें “ जन्मदिन ” का राज़ समझा ।
पापा को तो रूठना – लड़ना – झगड़ना कुछ नहीं आता था -आता था बस - खुशियाँ बाँटना । हमें उन्होनें
यही कहा था कि मुझे मेरे जाने के बाद जब भी याद करो तो याद रखना कि – “ मेरी यादों से खुशियों की सुगन्ध बिखरे , मैं प्रकृति-पुत्र हूँ और प्रकृति में मिटता कुछ भी नहीं सिर्फ़ रूप और स्थान बदल जाता है ठीक वैसे ही जैसे धरती के सागर का जल , आकाश का बादल बनता है और फिर कभी बारिश बन खेतों में – तो कभी बर्फ़ बन पर्वतों पर बिखर जाता है । ”
पापा हमने आपका जन्मदिन – हर बार की तरह इस बार भी आपके कहे अनुसार मनाया ।
समसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!
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