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सोमवार, 20 जुलाई 2009

सुख – दु:ख

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सुख और दु:ख के ताने-बाने से जीवन को कुछ इस तरह बुना गया है कि एक के साथ दूसरा गुँथा हुआ चला आता है । मेरे लेखन को पढ़ने के लिए अपना बहुमूल्य समय निकालने वाले मेरे अपनों नें ई-मेल पर मुझसे बहुत बार पूछा है कि मैं बीच -बीच में लिखना बन्द क्यों कर देती हूँ ।आज उसका संक्षिप्त उत्तर दे रही हूँ क्योंकि आज का दिन मेरे लिए , सन् १९९० के जीवन-मरण के प्रश्न जैसा तो नहीं परंतु थोड़ी परेशानी और घबराहट भरा तो अवश्य था । सन् १९९०; डॉक्टरों द्वारा मेरे कैंसर की पुष्टि का वर्ष था । उस समय मेरा बड़ा बेटा १० वर्ष और छोटा ६ वर्ष का था –मैं ज़िन्दगी जीना चाहती थी और ये बीमारी मेरा हाथ खींच कर जीवन से परे ले जाने के लिए ज़ोर लगा रही थी । - ख़ैर – परमात्मा , मेरी डॉक्टर डॉ प्रतिमा मित्तल (सफ़दरजंग अस्पताल) और मेरे अपनों की प्रार्थनाओं के कारण मैं आज भी हूँ –इसलिए इसका ज़िक्र फिर कभी – अभी तो मैं २० जुलाई की बात कर रही हूँ । गर्भाशय के मुँह के कैंसर के इलाज से जुड़े बाद के प्रभावों में ऑस्टोपरोसिस भी है सो उसके लिए प्रभावशाली इलाज हेतु दिसंबर २००७ में मुझे “बोन-वीवा” नामक दवा दी गई(दोष किसी का नहीं) जिसके प्रभाव से,नवम्बर २००८ तक मेरी आँखों की पुतलियाँ फैली रहीं फिर २० जनवरी २००९ में पी.वी.डी. (पोस्टीरियर विट्रूअस डिटेचमेंट) का पता चला ,१६ जुलाई को ग्लूकोमा की शंका जाहिर कर २० जुलाई को परीक्षण व निदान हेतु बुलाया गया । ग्लूकोमा या काले मोतिया से मैं सचमुच डर रही थी क्योंकि हमारा कार्यक्षेत्र और मनोरंजन भी लेखन से जुड़ा है इसीलिए शीघ्र (ग्लूकोमा की पूरी सच्चाई हमें नहीं पता) नेत्र–ज्योति जाने का भय हावी हो रहा था – परंतु एक बार फिर सबकी शुभकामनाएँ काम आ गईं । डॉक्टरों नें पूर्णत: आश्वस्त किया है कि ग्लूकोमा नहीं है – हम सब बहुत प्रसन्न थे परंतु ये प्रसन्नता बहुत देर टिक नहीं पाई क्योंकि अभी शाम को मेरे छोटे बेटे का संदेश आया कि उसके मित्र की जीवन-ज्योति दिल्ली की सड़कों पर होने वाले हादसों नें छीन ली। मैं अपने नेत्रों के प्रकाश के लिए बेशक चिंतित थी पर एक ऊर्जा से भरपूर युवक के जीवन का प्रकाश बुझ गया यह बात असहनीय है ,बहुत पीड़ा देने वाली है ।

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