जाड़ों का मौसम

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शनिवार, 5 जून 2010

“ शीरी ज़बान “

“ ज़िंदगी जिससे तल्ख़ होती है कितनी शीरी ज़बान है प्यारे ।“ मानव की वाणी, इस शीरी ज़बान के रहस्यों को हम एक उम्र गुज़ार कर भी शायद ही समझ पाए हैं । बस समझ में इतना ही आया कि हर व्यक्ति का अपना दृष्टिकोण होता है इसलिए किसी का दृष्टिकोण हमारे नज़रिए से मेल खाए ये ज़रूरी तो नहीं । कई बार - - या यूँ कहें अधिकांशतः शब्दों का – ख़ूबसूरत शब्दों मुल्लमा चढ़ा कर लोग कितना भ्रमित कर दें इसका अन्दाज़ा हमें तब तक नहीं होता जब तक हम स्वयं उस परिस्थिती से दो-चार नहीं होते । जो सीधा है, सच्चा है – उसकी भलमनसाहत को पराए तो अपने निहित स्वार्थों के लिए इस्तेमाल करते ही हैं , अपने भी उसके शोषण में कोई कोर–कसर उठा नहीं रखते । एक बार आप अपनी भलमनसाहत में कोई ज़िम्मेदारी, कोई उत्तरदयित्व अपने कंधों पर उठा लीजिए – बस – सब ‘ अपनों ’ को अधिकार मिल जाता है अपनी शीरी ज़बान से आपकी ज़िंदगी तल्ख़ करने का।“आप तो समझदार हैं”, ”आप ही इस स्थिती को अच्छी तरह समझ सकते हैं”,“हमें तो सिर्फ़ आप में ही आशा की किरण दिखाई देती है”, “इस मक्कारी भरी ख़ुदग़र्ज़ दुनिया में बस एक आपका ही सहारा है,“आप तो हमारे लिए भगवान हैं“ आदि-आदि - - कितने ही वाक्य जिनके शब्दों में छिपे व्यंग्यार्थ पूरी उम्र समझ नहीं आत्ते – और जब तक अर्थ तक पहुँचने की सामर्थ्य आने लगती है- -उम्र बहुत आगे निकल चुकी होती है। भलेमानसों की यह विलुप्त प्रायः जाति शब्दों के अभिधेयार्थ पर अटक कर जीवनभर अपना शोषण स्वयं करवाने को तत्पर रहती है और खुश होती है कि हमने अपना फ़र्ज़ पूरा किया –हमने | अच्छे इंसान, अच्छे संबंधों के पालनकर्त्ता का दायित्व निभाया | ? ? ?

कई बार – कई संबंधों में – अपनेपन की नज़दीकियों के हिसाब से हमने इन तथाकथित विनम्रता दर्शाते , गिड़गिड़ाते शब्दों को आदेशात्मक ऊँचे स्वरों में बदलते देखा है । “ ये तुम्हारा फ़र्ज़ है, कोई एहसान नहीं है हम पर”, “अगर दूसरों से ही कहना पड़े तो तुम्हारे होने का क्या फ़ायदा”, “इतने छोटे से काम के लिए भी अब हम औरों के सामने ज़लील हों तब तुम्हे ठंड पड़ेगी”! ! ! - बात मुख़्तसर सी यह है कि कभी अहम- भाव को पोषित कर और कभी हीन- भावना को आरोपित कर – आपको भावनात्मक स्तर पर निरा मूर्ख बनाया जाता है और आ- मतलब भलेमानस ; जीवन की अपनी प्राथमिकताओं को तिलांजलि देकर, दूसरो की इच्छापूर्ति का साधन बन अपना वर्तमान और भविष्य दोनो ही सलीब पर टाँग देते हैं। अपने लिए आज को जीने का तो समय ही नहीं बचता पर भविष्य को चैन से जीने के साधन व सामर्थ्य भी इस भलमनसाहत की भेंट चढ़ जाते हैं ।

“काज पड़े कुछ और हैं काज सरे कुछ और, रहिमन भँवरी के भए नदी सिरावत मौर ॥” ये सच रहीम दास जी ने तो उदाहरण देकर समझाया । सीधे-सीधे जीवन से सत्य उठाया और कहा – चेतो मेरे भाई, काम पड़ने पर मौर की तरह शीश पर धारण करने वाले काम पूरा होने पर तुम्हे पहचानेंगे भी नहीं , पास भी नहीं फटकने देंगे – नदी में बहा देंगे ,मौर की तरह । इस व्यवहारिक पाठ को नहीं सीखा?अब कुछ-कुछ समझ आने लगा कि नेकी करके दरिया में डालना– आसान नहीं, मज़ाक भी नहीं क्योंकि इस मोड़ पर जहाँ वर्तमान व भविष्य दोनों ही अतीत की ओर झाँक कर खिल्ली उड़ाने के लिए कमर कस कर खड़े हैं वहाँ अपने से नज़र मिलाना आसान बात नहीं - - आसान ना हो पर सीखने की तो कोई उम्र, कोई समय-सीमा नहीं होती – हाँ ,कह्ते हैं कि एक उम्र तक आते-आते विचार इतने पक्के हो जाते हैं कि उन्हे बदल पाना दुष्कर लगता है मगर यह बदलाव ही तो जीवन की गतिशीलता का पर्याय है- अब भी शब्द की शक्तियों (अभिधा, लक्षणा, व्यंजना) के व्यवहार-कुशल लोगों द्वारा किए जाने वाले अर्थ पहचानने में कुशल हो पाए तो ।इस नन्ही सी शीरी ज़बान पर- किसी भी ज़िंदगी को तल्ख़ बनाने का इल्ज़ाम नहीं आएगा ।

1 टिप्पणी:

के सी ने कहा…

आप बहुत सुंदर लिखती हैं लेकिन बहुत कम लिखती हैं