महिला -दिवस की शताब्दी मनाता विश्व | आज के दिन अर्थात ८ मार्च २०११ , पीछे मुड़कर देखती हूँ तो नारी -समाज का कहीं-कहीं कुछ-कुछ बदलता सा चेहरा दिखाई पड़ जाता है | पूरे विश्व के विशाल फलक पर नारी स्वातंत्र्य की वेगवती धारा जब सामाजिक ,राजनैतिक ,आर्थिक , आध्यात्मिक ,वैज्ञानिक क्षेत्रों की हर चुनौती से जूझ कर सब ओर अपनी विजय की घोषणा करती दिखाई देती है तो मेरा मन भारतीय अतीत के उस राजमार्ग पर जाकर खड़ा हो जाता है जहाँ हर मिल के पत्थर पर स्वर्णाक्षरों में कई नाम लिखे दिखाई देते हैं | वैदिक ऋचाओं की द्रष्टा ऋषि-परम्परा की गार्गी,मैत्रेयी से प्रारंभ होकर- पुराणों की सती अनसूया ; जिनके तेज के सम्मुख ब्रह्मा-विष्णु-महेश को भी शिशु रूप धारण करना पड़ा व महारानी मदालसा जिनकी लोरी की मर्म को छूती स्वरलहरी में वो शक्ति थी जिससे प्रेरित होकर उनके तीन पुत्र विक्रांत ,सुबाहू ,शत्रुमर्दन आध्यात्म -तत्व की खोज में सन्यासी बने तो पति राजा ऋतुध्वज के आग्रह पर चौथे पुत्र अलर्क को उसी लोरी के स्वरों में "मासानष्टौ यथा सूर्यस्तोयं हरति रश्मिभि: | सूक्ष्मेणेवाभ्युपायेन तथा शुल्कादिकं नृप:" की अनुगूंज भर - उसे श्रेष्ठ राजा के कर्तव्य -बोध से परिचित करवाती है | सीता ,सावित्री , दमयन्ती ,द्रोपदी आदि का जीवन संघर्षों की ऐसी वृहद् -गाथा है जिनसे हर पीढ़ी ने हरबार नई जीवन -दृष्टि पाई है | वर्तमान युग भी मीराबाई , अक्का महादेवी ,आंडाल, माँ सारदा, आदि की आध्यात्मिकता और काकतीय महारानी रुद्र्माम्बा,केलदि व कित्तूर की चेन्नम्मा ,अहल्याबाई होल्कर ,रानी लक्ष्मीबाई आदि की शौर्य कथाओं को अपने मील के पत्थरों पर गर्व से संजोये हुए है |
जब लिखने बैठी थी तब सोचा था महिलाओं और समाज के सकारात्मक पहलुओं की चर्चा आज की , इस इक्कीसवीं शताब्दी के सन्दर्भ में करूँगी - - - -? परन्तु ! ! अब ये संभव नहीं | अभी सुबह की ठंड पूरी तरह गरमाई भी नहीं है पर एक खबर नें मन -प्राणों को दग्ध कर दिया है | हमारे घर के निकट के पुल पर एक कॉलिज-छात्रा की गोली मारकर नृशंस हत्या कर दी गई है | जानती हूँ ; इस २२ वर्षीय युवती राधिका की हत्या पर राजनैतिक बयानबाज़ी अभी गरमाएगी ,कुछ दिन समाचारों में इसे ब्रेकिंग न्यूज़ बनाकर परोसा जाएगा | इसी स्थान पर कुछ महीनों पहले घटी बलात्कार और उत्पीड़न की शर्मनाक घटनाओं की तरह इसको भी भुला कर नारी-जाति की सुरक्षा को भगवान भरोसे छोड़कर - अपराधियों के समक्ष दयनीय बन कर खड़ी लचर व्यवस्था अपने ढर्रे पर चलती रहेगी | मैं हैरान भी हूँ और परेशान भी कि क्यों हर अन्याय के लिए जब तक जनता संगठित होकर आवाज़ ना उठाए पूरी व्यवस्था का कोई भी हाथ रक्षा के लिए नहीं उठता ? ? शायद ! शायद नहीं सच यही है - -
तालीम का शोर इतना ,तहज़ीब का गुल इतना | बरकत जो नही होती नीयत की ख़राबी है |
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें