पिछले कुछ दिनों से सभी संचार साधनो में पूर्वोत्तर के अंचलों से आए युवाओं से संबंधित समाचारों की बाढ़ सी आ गई है । इन समाचारों में - युवाओं की आपसी मारपीट से लेकर- किसी भावुकतापूर्ण क्षण में लिए गए आत्महत्या जैसी पीड़ादायी घटनाओं को पूर्वोत्तर के प्रति दिल्लीवालों के परायेपन या सौतेले व्यवहार से जोड़ दिया गया।नही जानते किसने !किस साजिश के तहत !इस दुष्प्रचार की आग को हवा देने की कोशिश की है । ये बातें अगर आज से पन्द्रह-बीस वर्ष पहले की होती तो हमें इसे स्वीकारने में संकोच नही होता क्योंकि तब दिल्ली और पूर्वोत्तर के लोगों में एक अबोला सा उपेक्षा भाव दोनों और दिखाई देता था। उस दौर में मिज़ोरम पहुँचने पर मुझे जब दूसरे देश से आया हुआ माना गया था तो मैनें उसे वहां के लोगों का तर्क संगत व्यवहार माना था।अपना कार्यक्षेत्र अध्यापन का होने के कारण दिल्ली वापस लौटते ही युवावर्ग को प्रत्येक प्रांतीय संस्कृति के प्रति सम्वेदनशीलता और सम्मान देने के लिए प्रेरित किया।हमें गर्व है हमारे बच्चे (छात्र-छात्राएं) इन संकीर्ण मानसिकता वाले दायरों में नही बंधे। इन बातों को बीते कई वर्ष हो चुके हैं। आज तो हमारे पूर्वोत्तर और दिल्ली के कई बच्चे सुखी दाम्पत्य जीवन बिता रहे हैं ।वर्तमान समय में जब;असम, अरुणांचल ,त्रिपुरा,मेघालय,मिज़ोरम, मणिपुर,नागालैंड और सिक्किम की युवाशक्ति दिल्ली में शिक्षा, रोज़गार और सामाजिक दायित्वों से लेकर संसद तक अपनी योग्यता का लोहा मनवा कर अपने को दिल्लीवाले ही कहते हैं ( ऐसा हम पूर्वोत्तर के अपने साथियों से, बातचीत में उनके नजरिये से कह रहे हैं ) तब कुछ समाचार-पत्रों व टी .वी पर दिखाई देती, अलगाव और अविश्वास की खबरे हमें बेचैन कर जाती हैं ।
मैं स्वयं हिमाचल की बेटी हूँ,शायद इसलिए हिमालय की छाया तले बसे प्रदेशों में मुझे मायके की महक मिल ही जाती है। इस अंचल के आठों राज्यों में आज हमें घर की बेटी सा दुलार व सम्मान मिलता है। हाँ! यहाँ एक बात स्पष्ट करना मैं आवश्यक मानती हूँ कि भारत के कई प्रदेशों की तरह यहाँ बेटियाँ अवांछित नही हैं । नारी-जाति के प्रति आदर और समानता का भाव पूर्वोत्तर के समाज का विशिष्ट गुण है। नारी-उत्पीडन और दहेज जैसी सामाजिक बुराईयों से सर्वथा मुक्त है यहाँ का समाज । इसी विशिष्टता के कारण यहां की स्त्रियों में आत्मविश्वास व निर्भीकता सहज रूप में मिलती है जिसे नारी के प्रति संकीर्ण धारणा रखने वाले लोग स्वच्छंदता का पर्याय मान लेते थे,आज यह मानसिकता भी समाप्त प्राय: है । भारतवर्ष के ईशानकोण से जुड़ी कई भ्रांतियां हैं जिनके बीज, ' फूट डालो और राज करो ' की नीति को अपनाने वाले अंग्रेजों ने, अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ती हेतु बोए थे।आज का स्वतंत्र भारत हम सब का राष्ट्र है। हम सबको एक ही सांस्कृतिक विरासत मिली है-बस- परायों की सुनी सुनाई बातों पर आँखें मूँद कर भरोसा करने की जगह अपनों से जुड़े सत्य को स्वयं खोजना है| पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में भारतीय संस्कृति के पौराणिक अवशेष बिखरे हुए हैं ।सबके बारे में लिखना सम्भव नही है इसलिए मैं परिचित नामों में से कुछ नामों का उल्लेख कर शेष भारत से इस अंचल के प्रगाढ़ सम्बन्धों पर प्रकाश डालना चाहती हूँ ।
श्री राम;समग्र भारत को एक सूत्र में जोड़ने वाला ऐसा नाम, जिनकी कथा विश्व के अनेक देशों में प्रचलित है।उन्ही श्रीराम के जन्म की कथा एक नाम से जुड़ती है - श्रृंगी ऋषि ।पुराणकालीन विहंगम ऋषि के पुत्र श्रृंगी ने ही महाराजा दशरथ के आग्रह पर पुत्रेष्ठी यज्ञ सम्पन्न किया था।यज्ञ के प्रसाद को ग्रहण करने के बाद दशरथ की तीनों रानियों- कौशल्या,सुमित्रा और कैकेयी नें चार पुत्रों -श्रीराम ,लक्षमण ,भरत ,शत्रुघ्न को जन्म दिया।इस कथा को हम सभी जानते हैं परन्तु श्रृंगी ऋषि का आश्रम ब्रह्मपुत्र नद के किनारे सिंगरी में आज भी विद्यमान है इसे कितने लोग जानते हैं ?
श्रीकृष्ण; द्वापर युग से वर्तमान युग तक सब कोअपनी बांसुरी की तान पर नचाने वाले श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मिणी अरुणांचल की राजकुमारी थीं।किरातवंशीय भीष्मक की पुत्री रुक्मिणी का विवाह उसका भाई रुक्मी चेदी नरेश शिशुपाल से करवाना चाहता था।रुक्मिणी हरण के लिए आए श्रीकृष्ण से रुक्मी ने युद्ध किया और पराजित हुआ।भाई के वध से रुक्मिणी दुखी ना हो इसलिए श्रीकृष्ण ने रुक्मी के कान के थोड़े उपर से,सिर के बाल काटे और उसे जीवित छोड़ दिया। रुक्मी के वंशज; इदू मिश्मी आज भी उस परम्परा का निर्वाह पूरी निष्ठा से करते हुए अपने सिर के बाल कान के कुछ इंच उपर काटते हैं और चूलिकाटा कहलाते हैं ।
पूर्वोत्तर में वैदिक काल से लेकर स्वतन्त्रता संग्राम के भारतीय इतिहास के ढेरों दस्तावेज बिखरे पड़े हैं। पर आज मैं केवल इस सत्य को पुष्ट करना चाहूंगी कि हम सब एक ही वंशवृक्ष की हरे-भरे पत्तों वाली शाखाएं - प्रशाखाएं हैं जो साथ मिलजुल कर इस धरा को हर आपदा से सुरक्षित रखने वाले अक्षय वट का निर्माण करती हैं। हमारी सांस्कृतिक एकता पूरे देश को एक सूत्र में पिरोए हुए है इसका मात्र एक उदाहरण प्रस्तुत है :----
राजा विरोचन का पुत्र दानवीर बलि; जिनकी स्मृति में आज भी दक्षिण भारत ओणम मनाता है, उनका सदाचारी पुत्र बाणासुर जिनके साहस के गीत उत्तर में बसे हिमाचल प्रदेश में आज भी गाए जाते हैं क्योंकि वे प्रजा के हित के लिए शतद्रु (सतलुज )को हिमाचल की धरती पर लेकर आये थे |यहाँ श्रीखंड कैलाश के मार्ग में उनकी शिवभक्त पुत्री उषा को माता पार्वती से वरदान में मिला गर्म पानी का कुंड आज भी तीर्थ- यात्रियों के लिए सम्बल है। प्रतापी बाणासुर के अजेय दुर्ग के अवशेष, बूढ़े लोहित के उत्तरी किनारे पर आज भी , श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की गाथा सुनाते हैं जो पश्चिमी छोर पर बसी द्वारिका से बाणासुर की पुत्री विदूषी ,अनिन्द्य सुन्दरी उषा से विवाह के लिए यहाँ आए थे,गुजरात की उखा माता भी इसी गाथा का विस्तार हैं ।अंत में , मैं यही कहना चाहती हूँ कि कोई भी भारतीय अपने को अपने ही घर में उपेक्षित क्यों समझेगा यदि वो इस सत्य को मानता है ,जानता है कि हम सब की विरासत सांझी है । पूर्व -पश्चिम -उत्तर -दक्षिणकी दूरियां भौगोलिक धरातल पर कितनी भी दूरी को दर्शायें परन्तु ये दूरियां हमारी भारतीय अस्मिता के लिए चुनौती नहीं बन सकती ।
2 टिप्पणियां:
Dr.swaran anil,you changed my perseption about my arunachal & rest of india .thanx
auroop apatani
यह सत्य है कि हम सब की विरासत सांझी है ।
anil.
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