महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का जन्मदिवस आज पूरे भारत में हर्षोल्लास व भक्तिभाव के साथ मनाया जा रहा है l हिन्दी साहित्य की विद्यार्थिनी होने के कारण अष्टछाप के कवियों की कृष्ण भक्ति से सराबोर रचनाओं के निर्मल रस का पान भाव -विभोर होकर किया है l
सूरदास ,कुम्भनदास ,परमानंददास,कृष्णदास के भजनों को गाते-गुनगुनाते हमने शुद्ध अद्वैतवाद के उस दर्शन को भी समझने का भी प्रयास किया जिसके प्रकाश स्तम्भ पुष्टिमार्ग के संस्थापक वल्लभाचार्य जी के 'अधरं मधुरं ,वदनं मधुरं ----'का आलौकिक नाद स्वयमेव ही प्राणों को वीणा के तारों सा झंकृत कर कृष्ण भक्ति में निमग्न कर देता है l यह मेरा सौभाग्य ही था कि 'कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय ' द्वारा कला,संस्कृति और पत्रकारिता विषय पर आयोजित राष्ट्रीय -संगोष्ठी में भाग लेने की सूचना देरी से मिलने के कारण रेलगाड़ी में जिन तिथियों के टिकिट उपलब्ध थे उन्ही को स्वीकारना पड़ा l थी तो मजबूरी ही क़ि २ ७ -२ ८ अप्रैल को होने वाली संगोष्ठी के लिए हमें २ २ अप्रैल को दिल्ली से रायपुर-छत्तीसगढ़ के लिए चलकर २ मई को वापसी की राजधानी पकड़नी थी l पर हमेशा की तरह 'जो होता है अच्छे के लिए होता है '-की सोच की ऊँगली थाम कर हमने अपना सफ़र शुरू किया तो सब अच्छा होता ही चला गया l
असली मुद्दे पर आऊँ - तो वहाँ पहुंच कर इस पौराणिक ,ऐतिहासिक नगर के सौन्दर्य का दर्शन हर कदम पर हो रहा था । सागौन ,महुआ ,टेसू ,अमलतास ,गुलमोहर ,छिंद ,ताड़ ,नीलगिरी के साथ -साथ पीपल नीम ,वट ,आम के पेड़ों नें इस गर्मी में भी सब ओर लाल ,पीले ,केसरिया और हल्के -गहरे हरे रंगों की अदभुत छटा बिखराई हुई थी । समय का सदुपयोग करते हुए जब हम २ ६ अप्रैल की शाम के साढ़े पाँच बजे चम्पारण्य पहुँचे तब महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के मन्दिर में श्रद्धालुओं की काफ़ी बड़ी संख्या थी । सुंदर ,कलात्मक मन्दिर में वल्लभाचार्य जी के जीवन को दर्शाती कई जीवंत मूर्तियाँ हैं । कथाएँ पढ़ी हुई थीं पर कई से हम अनजान थे ।
यहाँ आकर जाना की महाप्रभु जन्म के समय इतने दुर्बल थे की भयभीत होकर उनके पिता नें अपनी पत्नी को उस नवजात शिशु को वहीं त्याग क्र आगे बढ़ने का आदेश दे दिया। वे उस स्थान से थोड़ी ही दूर आगे बढ़कर जब सुस्ताने के लिए बैठे तो उनको प्रतीत हुआ कि भगवान भोलेनाथ उनको उस शिशु को अपनाने की आज्ञा दे रहे हैं। भगवान शिव की आज्ञा शिरोधार्य कर जब वे पति-पत्नी वापस उस स्थान पर लौटे तो यह देख कर आश्चर्य से भर गए कि स्वयं अग्निदेव उस नन्हे बालक की रक्षा कर रहे थे।
इस सम्पूर्ण कथा का वास्तविक सत्य कुछ भी रहा हो - - - -
मेरे दृष्टिकोण में इस कथा का श्लाघनीय पक्ष यह है कि ; यह समय वह था जब भारतीय समाज शैव और वैष्णव मतभेदों के कारण बँटने की कगार पर खड़ा था। ऐसे समय में यह स्थान एकता का पर्याय बना। एक कथा इस स्थान के प्राचीन शिव मन्दिर की भी है जिसमें एक बन्ध्या गाय रोज़ जंगल की दिशा में जाकर कुछ देर के लिए झुण्ड से अलग हो जाती थी ,बाद में खोज करने पर ग्वालों ने देखा कि गाय के थन से दूध की धारा लगातार एक ही स्थान पर पड़ रही है । उसी स्थान पर शिव-पार्वती-गणेश के तीन विग्रह वाले शिवलिंग का प्राकट्य हुआ । बाद में यही स्थान वल्लभाचार्य जी की जन्मभूमि बना ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें