जाड़ों का मौसम

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गुरुवार, 3 अक्टूबर 2013

|| एहसास के ग़ुंचों से महकती बस्ती ||



उलझ ना जाए रिश्तों की रेशमी डोर कहीं ,
प्यार से हर गाँठ को सुलझाते रहे हैं हम l
दिल जो रोया तो नज़मों में दर्द को ढाल,
खुद के ज़ख्मों को यूँ ही सहलाते रहे हैं हम ॥
झूठ के शोर में सब डूब रहा था लेकिन,
सच ही जीतेगा यही अपने को समझाते रहे हैं हम।
किसी का दिल ना दुखे एक इसी ख्वाहिश में,
उनके बुने जाल में ख़ुद को उलझाते ही रहे हैं हम॥
चुप का ताला होंठों पर लगा जब लिया !
तब क्यों शोर के भँवर में डूबते जा रहे हैं हम।
यारों की अजनबी सी महफ़िल में,
बेवजह हँसी की नुमाइश से ऊबते जा रहे हैं हम ॥`
कितने पुरज़ोर हैं राह में लू के थपेड़े ऐ दोस्त ,
पर तेरी बरगदी छाँह ओढ़, मस्ती में चले जा रहे हैं हम ।     


ज़िन्दगी सहरा है या दरिया, फ़र्क़ नहीं कुछ अब तो,   
एहसास के ग़ुंचों से महकती बस्ती में चले जा रहे हैं हम ॥ 
         
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