जाड़ों का मौसम

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शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

पतँग- - लोकतंत्र में - ?

पतँग लाख दफ़ा बेहतर है  ; 
काग़ज़ के उस बेतरतीब फटे टुकड़े से ,
जिसे हवा का नन्हा सा झकोरा 
इधर -उधर दौड़ता है और --
कभी बड़ा बवंडर गोल -गोल घुमाता है 
पर --अपने दम से वो कुछ कहाँ कर पाता है ,
अपनी सोच ,अपने हौसलों का वहाँ कोई अर्थ नहीं । 
और ---पतँग ? वो तो बनी ही है, 
आकाश की ऊँचाइयों में उड़ने के लिए ,
पर --अकाट्य सत्य यही है कि ----
एक पतंग जिन हाथों में होती है ,
उन हाथों द्वारा दी गई ढील और
 मज़बूती से खींची गई डोर ही उसे;
 आकाश की बुलंदियों तक पहुँचाने
या दूसरी पतंग से कटवा कर ,
ज़मीन पर गिराने की ताकत रखती है - -
लोकतंत्र में - - 
निर्णय हमें खुद करना है --कि --
पतँग कौन है और उसे ------
आकाश की बुलंदियों पर ले जाने वाले हाथ किसके हैं ?
मेरी सोच कहती है लहराती पतँग को 
थामने की शक्ति, लोक के हाथों में है। 
 जनता के सामर्थ्य में ही वह ताकत है ,
बस - लोक को अपनी मज़बूती पर ,
अपने फैसले पर -पूरा विश्वास होना चाहिए ,
अधूरा भरोसा ,अपनी क्षमताओं को नकारना , 
किसी की भी काबलियत को,
कोई दिशा नही दे सकता;
ना व्यष्टि को ,ना समष्टि को, ना राष्ट्र को !!!!
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