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बुधवार, 22 अगस्त 2018

हरिशंकर परसाई





लगातार खोखली होती जा रही हमारी सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था
में पिसते मध्यमवर्गीय  सच्चाइयों को निकटता से पकड़ने वाले हरिशंकर
परसाई जी नें, सामाजिक रूढ़िवादिता, राजनैतिक आडंबर और तथाकथित
मूल्यहीन जीवन-मूल्यों पर व्यंग्य करते हुए उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से----
सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है। उनकी भाषा–शैली में ख़ास किस्म का
अपनापा है, जिससे पाठक यह महसूस करता है कि लेखक उसके सामने ही
बैठ कर उसी के मन के भावों को वाणी दे रहे हैं।उनकी क़लम की धार की
कुछ बानगी प्रस्तुत हैं------
१).रेडियो टिप्पणीकार कहता है-;घोर करतल ध्वनि हो रही है। मैं देख रहा हूं,

नहीं हो रही है। हम सब लोग तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं.बाहर निकालने का
जी नहीं होता। हाथ अकड़ जायेंगे, लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं फिर भी
तालियां बज रही हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं ,जिनके पास
हाथ गरमाने को कोट नहीं हैं.लगता है गणतन्त्र ठिठुरते हुये हाथों की तालियों
पर टिका है। गणतन्त्र को उन्हीं हाथों की तालियां मिलती हैं,जिनके मालिक के
पास हाथ छिपाने के लिये गर्म कपडा नहीं है।
२)सरकार कहती है कि हमने चूहे पकडने के लिये चूहेदानियां रखी हैं। एकाध

चूहेदानी की हमने भी जांच की.उसमे घुसने के छेद से बडा छेद पीछे से
निकलने के लिये है। चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है.पिंजडे
बनाने वाले और चूहे पकडने वाले चूहों से मिले हैं। वे इधर हमें पिंजड़ा दिखाते हैं
और चूहे को छेद दिखा देते हैं। हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ़ रहा है।
३)इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं,पर वे सियारों की बरात में बैंड बजाते हैं।
४)जो कौम भूखी मारे जाने पर सिनेमा में जाकर बैठ जाये ,वह अपने दिन कैसे बदलेगी!!

५)अद्भुत सहनशीलता और भयावह तटस्थता है इस देश के आदमी में ,कोई उसे
पीटकर पैसे छीन ले तो वो दान का मंत्र पढ़ने लगता है |
६) जिस समाज के लोग शर्म की बात पर हँसें ,उसमें क्या कोई कभी क्रांतिकारी हो
सकता है ?होगा शायद पर तभी होगा जब शर्म की बात पर ताली पीटने वाले हाथ
कटेंगे और हँसने वाले जबड़े टूटेंगे | आम जनमानस की सोच को ,आक्रोश को प्रतिष्ठा दिलाने वाले कालजयी साहित्यकार
परसाई जी को विनम्र नमन एवं श्रद्धासुमन|
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