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शुक्रवार, 13 सितंबर 2019

- *वडक्कुमनाथन मंदिर *

भारत के दक्षिण में देवभूमि के नाम से विख्यात केरल राज्य के "वडक्कुमनाथन मंदिर " का उल्लेख ब्रह्मांड पुराण में मिलता है। आख्यानों के अनुसार भगवान परशुराम ने जब धरती को इक्कीस बार क्षत्रियों से मुक्त किया तो उसके बाद आत्मशुद्धि और अपने कर्मों की नकारात्मकता को दूर करने के लिए उन्होंने यज्ञ करने का निर्णय लिया। यज्ञ के पश्चात भूमि दान में देने के बाद उनको नई भूमि की आवश्यकता हुई। इसके लिए परशुराम जी नें वरुणदेव का आह्वान किया। समुद्र से नई धरती प्राप्त करने के लिए विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी ने अपना परशु सागर पर फेंका और " कन्याकुमारी से गोकर्ण " तक भूमि का अधिग्रहण किया। इस प्रकार जो भूमि समुद्र से बाहर निकली उस अधिगृहित भूमि को ही प्रारंभ में जल की अधिकता के कारण चेर-अलम ( कीचड़ वाला प्रदेश)अर्थात चेरलम कहा गया। जो बाद में चेरलम से > केरल नाम से अस्तित्व में आया। 
ऋषि परशुराम से ही संबंधित है केरल की सांस्कृतिक राजधानी कहे जाने वाले, राज्य के मध्य भाग के वर्तमान त्रिशूर ज़िले की कथा कहता है प्रख्यात - --- *वडक्कुमनाथन मंदिर * !! प्राचीन काल में त्रिशूर को "वृषभाद्रीपुरम् " और "तेन कैलाशम् " कहा जाता था।वर्तमान त्रिशूर का वास्तविक नाम है "तृश्शिवपेरूर " (तिरु+शिव +पेरूर) अर्थात जिसका अर्थ होता है शिव का पवित्र घर। 
पौराणिक आख्यानों के अनुसार भूमि प्राप्ति के बाद परशुराम जी नें इसे प्रतिष्ठित व समृद्ध स्थान बनाने के लिए अथक प्रयास किए। इसी क्रम में वे अपने गुरु सदाशिव के पास कैलाश गए और उनसे केरल को आशीर्वाद देने की प्रार्थना की। भगवान शिव और अपने पुत्रों के साथ परशुराम के साथ यहां आए शिवजी जिस स्थान पर ठहरे। जहां उन्होंने अपना त्रिशूल रखा वह स्थान अब त्रिशूर कहलाता है। आदिगुरु नें अपने शिष्य की प्रिय भूमि पर अपना अनुग्रह बरसाया। उनके अंतर्ध्यान होने के बाद परशुराम ने एक वटवृक्ष के नीचे अत्यंत प्रकाशमान एवं तेजोमय स्वयंभू शिवलिंग देखा। वह स्थान जहां शिव नें अपने स्वयंभू स्वरूप को प्रकट किया वह स्थान आज भी मूलस्थान कहलाता है।
बहुत समय तक शिवलिंग वहीं वट वृक्ष के नीचे मूल स्थान पर ही स्थापित था। बाद में कोचिन के राजा ने यहां मंदिर बनाने का संकल्प कर विशाल मंदिर परिसर का निर्माण किया। समय-समय पर अन्य राजाओं नें भी वडक्कुमनाथन मंदिर के रख-रखाव में अपना योगदान दिया है।
मंदिर शहर के केंद्र में एक ऊंचे पहाड़ी इलाके पर स्थित है। यह प्राचीन मंदिर विशाल पत्थर की दीवारों से घिरा हुआ है। मंदिर परिसर की चारों दिशाओं में अंदर चार गोपुरम हैं। आंतरिक मंदिर और बाहरी दीवारों के बीच, एक बड़ा खुला भाग है।
परंतप महर्षि परशुराम जी द्वारा प्रतिष्ठित आदिदेव भगवान शंकर इस मंदिर के मुख्य देवता हैं जो युगों से यहां एक विशाल स्वयंभू शिवलिंग के रूप में पूजे जाते हैं। युगों की धार्मिक परंपरा के अनुसार शिवलिंग का अभिषेक घी से किया जाता है। शिवभक्तों को यहां केवल १६ फुट ऊँचे घी शिवलिंग के ही दर्शन होते हैं। घी से ढके होने के कारण मुख्य शिवलिंग दिखाई नहीं देता। घी की एक मोटी परत हमेशा इस विशाल शिवलिंग को ढके रहती है। इससे जुड़ा एक आश्चर्यजनक सत्य यह है कि यहां चढ़ाए गए घी में, उसके खराब होने की कोई गंध नहीं आती।त्रिशूर की गर्मियों में भी यह घी पिघलता नहीं है। पारंपरिक अवधारणा के अनुसार यह शिव निवास, बर्फ से ढके कैलाश पर्वत का प्रतिनिधित्व करता है।
परशुराम नें वहां इस भार्गव भूमि की समृद्धि के लिए दुर्गा देवी की प्रतिष्ठा भी की। मलयालम साहित्यकार कोडुंगल्लुर भगवती मंदिर जो भद्रकाली पराशक्ति की आराधना से जुड़ा है, इसे परशुराम द्वारा स्थापित मानते हैं।
अम्माथिरुवडी मंदिर जिसे 108 दुर्गा मंदिरों में प्रथम मंदिर कहा जाता है। इसे उराकम का  मंदिर कहा जाता है। इस मंदिर से जुड़ी एक मान्यता यह है कि आदि शंकराचार्य जी की माता सुभद्रा व पिता शिवगुरू भट्ट ने संतान प्राप्ति के लिए यहीं तप किया था। जिसके पश्चात उनके घर आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। आदि शंकराचार्य जी नें ही समग्र भारत की चारों दिशाओं में सनातन हिंदू धर्म के चार धामों की स्थापना की।जो  वर्तमान में सबसे पवित्र धार्मिक स्थान हैं। आदि शंकराचार्य जी द्वारा इस मंदिर में श्री चक्रों को स्थापित किया था। इस मंदिर परिसर में एक मंदिर का निर्माण किया गया है जिसमें आदि शंकराचार्य की मूर्ति स्थापित की गई है। यहां आदि शंकराचार्य जी का एक समाधिस्थल भी बनाया गया है। {ताम्रपत्र अभिलेख में आदिशंकर जी का जन्म युधिष्ठिराब्द २६३१ शक् (५०७ ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द २६६३ शक् (४७५ ई०पू०) में ३२ वर्ष की आयु में केदारनाथ में सर्वमान्य है। इसके प्रमाण सभी शांकर मठों में मिलते हैं।आदि शंकराचार्य की समाधि केदारनाथ मंदिर के पीछे विद्यमान है।}
कूडल माणिक्य मंदिर, जो भगवान राम के भाई भरत की पूजास्थली है।
वडुकनाथन में शंकरनारायण की मूर्ति भी है, जिसमें शिवजी और श्री विष्‍णु एक ही स्‍वरूप में नजर आते हैं।
कोचिन के राजा ने यहां मंदिर बनाने का निर्णय लिया परंतु आशंका यह थी वृक्ष को काटने उसकी बड़ी शाखाओं के कारण के कारण शिवलिंग को को क्षति पहुंच सकती है।। इसका उपाय मंदिर संरक्षण का दायित्व निभाने वाले नंबूदरी  ब्राह्मण जिन्हें उस समय योगातिरीप्पदु ( yogatirippadu) कहा जाता था उन्होंने  सुझाया। पेड़ को काटने के समय वे अपने शरीर से पूरी तरह शिवलिंग को ढक कर लेट गए। वट वृक्ष को काटा गया सबने आश्चर्यचकित होकर देखा कि उस पेड़ से एक भी शाखा स्वयंभू लिंग के पास नहीं गिरी। बाद में शास्त्रोक्त विधि से स्वयंभू शिवलिंग को यहां स्थापित किया गया। बाद में इसका संरक्षण कोचीन के महाराजा द्वारा किया जाने लगा। ऐतिहासिक दृष्टि से माना जाता है कि बाद में मंदिर का पुनर्निर्माण पेरुमोथाचन के समय में अर्थात दूसरी शताब्दी में भी हुआ।
प्राकृतिक सुंदरता से घिरा हुआ अलौकिक, अप्रतिम वडक्कुमनाथन मंदिर श्रद्धालुओं और पर्यटकों को एक आध्यात्मिक और शांतिपूर्ण परिवेश प्रदान करने के साथ-साथ भारतीय संस्कृति की महान और अद्वितीय स्थापत्य कला
 के वैभव से भी परिचित करवाता है।

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