जाड़ों का मौसम

जाड़ों का मौसम
मनभावन सुबह

लोकप्रिय पोस्ट

लोकप्रिय पोस्ट

Translate

लोकप्रिय पोस्ट

रविवार, 14 जनवरी 2024

'ढील तेरी बीर मोहिं पीर ते पिराती है' मेरी दुर्दांत पीड़ा और हनुमान बाहुक।

दर्द का, पीड़ा का साहित्य से गहरा सम्बन्ध होता है।मानते हैं " वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान। निकल कर आँखों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान - - - - ।" सुमित्रानंदन पंत जी के इन शब्दों के सत्य को। परंतु हमारी व्याधि हमें संत शिरोमणि तुलसीदास के साहित्य तक इस तरह पहुंचाएगी! ये नहीं जानते थे। पूरी बात जानने के लिए मेरी तन मन को----" पीर से पिराती " यात्रा में थोड़ी दूर तो चलना ही होगा !! 
बात २४ दिसंबर२०२३ की है। हमारी बांई ओर की पसलियों में तेज़ दर्द हुआ। फ्लेक्सोंन एम आर सुबह शाम लेनी शुरू की। २५ को दर्द के साथ दो तीन दाने (दर्द के साथ) के उरोस्थि(स्टेर्नम) के पास निकले।२६ को दाने बाईं ओर बढ़ने लगे। दर्द बढ़ा। सुबह लगभग ४ बजे के करीब उठने पर संतुलन बिगड़ा और ना जाने कैसे हम पीठ के बल गिरे। पीठ में अत्यधिक दर्द था। बच्चे रात-दिन हमारी सेवा-सुश्रुषा में जुटे थे। अगले दिन उरोस्थि (स्टेर्नम) से रीढ़ की हड्डी तक, फोड़ों के मोतियों की माला नें अपना जाल बिछा दिया था। उसके साथ पीड़ा निरंतर बढ़ती जा रही थी। पतिदेव अनिल जी कैलाश अस्पताल में भर्ती थे इसलिए हमनें उन्हें बताना ठीक नहीं समझा था। 
२९ दिसंबर तक दाने रीढ़ की हड्डी तक फैल गए। असहनीय दर्द शुरू। दवा, बर्फ का पैक और लैक्टो कैलामाइन लोशन थोड़ा आराम देता। दर्द जब रुलाने पर आ गया तो उस दिन हमनें, अनिल जी को फोन पर दानों की फोटो भेजी। एम्स के डॉक्टर ने व्याधि का निदान किया - "हर्पीस जोस्टर" !! आवश्यक दवाएं दी गईं। डॉक्टर के परामर्श के अनुसार,रोग की संक्रामकता देखते हुए हम एक कमरे तक सीमित हो गए।  दानों में थोड़ी सी कमी आई परन्तु शूल सा बेंधने वाला दर्द बना रहा। पतिदेव हमारी स्थिति देखकर परेशान थे पर बच्चों ने उन्हें शांत किया। 
हम अजब सी बेचैनी और झुंझलाहट अनुभव कर रहे थे। जाने क्यों व्यवहार में निराशा सी हावी हो रही थी जो हमारे स्वभाव के विपरीत था। 
५जनवरी को नाक (बांई ओर) से खून आया प्लेटलेट की जांच हेतु रक्त की जांच हुई परन्तु परिणाम ठीक थे। 
१२जनवरी की रात हमें काफी तेजी से चक्कर आए। पूरे कमरे का सामान गोल घूमते हुए दिखाई देता रहा, हमनें दूसरे कमरे में सोए पतिदेव को फोन किया। वे तुरंत आए। हमें घबराहट के साथ उल्टी भी होती रही। पतिदेव नें हमारी अवस्था देखी तो रक्तचाप लिया। बीपी १८५/९७ था। साधारणतया हमारा रक्तचाप निम्न स्तर पर रहता है। इसके बाद डॉक्टर ने दवाई बंद करवा दी परंतु अभी भी चक्कर-उल्टी की स्थिति बनी रही। रात को कमरे में रोशनी जलाए रखने के बावजूद चीजों का घूमना बंद नहीं हुआ। दानों में दर्द की स्थिति बनी हुई थी। लोशन व बर्फ से थोड़ी देर आराम मिलता था। डॉक्टर साहब ने उच्च रक्तचाप और सरदर्द के कारण दवा बंद करवा दी और बताया की दर्द की समाप्ति में कुछ महीनों की अवधि लग सकती है
१५ जनवरी को मकर संक्रांति पर,  हिमाचल प्रदेश में "माघो साज्जो" बड़ा त्यौहार है। हम हर बार अम्मा जी की चरण वंदना (सुइ) करते हैं। परंतु इस बार हमारी अम्मा जी (भाभी की माता जी) का फोन आया। उन्हें भाभी ने हमारी स्थिति बताई थी। आशीर्वाद देकर अम्मा जी ने हमसे पूछा कि दाने कैसे निकलने शुरू हुए थे और अब कितनी दूर तक फैले हैं। हमने दानों का पूरा विवरण बताया परंतु दर्द के बारे में नहीं बताया। उन्होंने कहा, "बेटा इसमें छुरा घोंपने जैसा तीखा दर्द होता है। दर्द के साथ ऐसी जकड़न लगती है कि राड़ी (चीखें) निकलती हैं। दाने नहीं बढ़ने चाहिए मगर "अग्निबाहु " का दर्द खत्म होने में ३-४ महीने लग सकते हैं।अम्माजी जो कुछ कह रहीं थीं वो मेरी पीड़ा की शब्दशः अभिव्यक्ति थी। परंतु जिस शब्द पर मैं चौंकी मैंने उसे दोबारा पूछा, " अम्माँ, अग्निबाहु या अग्नि बाहुक।" तब अम्मा जी ने स्पष्ट किया कि पहाड़ी में हमअग्निबाहुक को अग्निबाहु ही बोलते हैं। 
सच्चाई यह है कि मेरा ध्यान अपनी पीड़ा से  हट कर, हनुमान बाहुक के "मोहिं पीर ते पिराती है।" पर ठहर गया। दर्द घटे ना घटे परंतु संत शिरोमणि तुलसीदास जी जिस व्याधि की पीड़ा से त्रस्त होकर "हनुमान बाहुक" लिखने को बाध्य हुए मैं उसी से गुज़र रही हूं इस सोच ने मेरे दृष्टिकोण को सकारात्मक्ता में बदल दिया। मैंने अम्माजी को कोटिश धन्यवाद दिया क्योंकि तुलसी साहित्य पढ़ते हुए हनुमान बाहुक पढ़ा तो था पर अब तक वो विस्मृति के गर्भ में था। जिसे अम्मा जी के "अग्नि बाहुक" शब्द ने पुनः सामने लाकर खड़ा कर दिया था। 
  इस समय पढ़ने की सामर्थ्य कम जुटा पा रही हूं इसलिए सुनने का काम अधिक कर रही हूं। नेट पर "हनुमान बाहुक" को खोजा। मुझे सुप्रसिद्ध गायक नितिन मुकेश जी की मधुर वाणी में हनुमान बाहुक का पाठ मिल गया। अब मैं प्रतिदिन भोर और संध्या काल में आंखें बंद करके इसे सुनती हूं और तुलसीदास जी के शब्दों से सान्त्वना पाती हूं। 
मुख्य रूप से उनके ४४ पदों में से निम्न- लिखित पद सुनकर घनी पीड़ा में भी मुस्कुरा उठती हूं। भक्त के लिए भगवान से बड़ा सहायक और कौन हो सकता है और भक्त के पास ही यह शक्ति है कि वह कि वह अपने आराध्य से झगड़ा करके भी अपनी बात मनवा सकता है आजकल मैं वही कर रही हूं ! 
हनुमान बाहुक की मेरी प्रिय पंक्तियां हैं:--

*"आपने ही पाप तें त्रिपात तें कि साप तें, बढ़ी है बाँह बेदन कही न सहि जाति है ।
औषध अनेक जन्त्र मन्त्र टोटकादि किये, बादि भये देवता मनाये अधिकाति है ।।
करतार, भरतार, हरतार, कर्म काल, 
को है जगजाल जो न मानत इताति है 
चेरो तेरो तुलसी तू मेरो कह्यो राम दूत, ढील तेरी बीर मोहि पीर तें पिराति है ।।३०।।"
भावार्थ  मेरे ही पापों या तीनों ताप अथवा किसी श्राप के कारण बाहुक पीड़ा बढ़ी है। यह पीड़ा ना तो शब्दों में कही जाती और न ही सहन होती है। अनेक ओषधि, यन्त्र- मन्त्र-टोटकादि किये, देवताओं को मनाया, पर सब व्यर्थ हुआ और यह पीड़ा बढ़ती ही जाती है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कर्म, काल और जगत का समूह-जाल ; कौन ऐसा है जो आपकी आज्ञाको न मानता हो। हे रामदूत ! तुलसी आपका दास है। आपने मुझेअपना सेवक कहा है। हे वीर ! कष्टनिवारण में आपकी यह ढील मुझे इस अफनी पीड़ासे भी अधिक पीड़ित कर रही है॥३०

"घेरि लियो रोगनि,कुजोगनि, कुलोगनि ज्यौं, बासर जलद घन घटा धुकि धाई है ।
बरसत बारि पीर जारिये जवासे जस, रोष बिनु दोष धूम-मूल मलिनाई है ।।
करुनानिधान हनुमान महा बलवान,
हेरि हँसि हाँकि फूँकि फौजैं ते उड़ाई है ।
खाये हुतो तुलसी कुरोग राढ़ राकसनि, केसरी किसोर राखे बीर बरिआई है।।३५"
भावार्थ – रोगों, बुरे योगों एवं दुष्ट लोगों ने मुझे इस प्रकार घेर लिया है जैसे दिन में बादलों का घना समूह आकाश को घेरकर दौड़ता है। पीड़ारूपी जल बरसाकर इन्होंने क्रोध करके बिना अपराध यशरूपी जवासे को अग्निकी तरह झुलसा कर मूर्च्छित कर दिया। हे दयानिधान महाबलवान हनुमान जी ! आप हँसकर निहारिये और ललकार कर विपक्ष की सेना को अपनी फूँक से उड़ा दीजिए। हे केसरी के किशोर वीर ! तुलसी को कुरोग रूपी निर्दय राक्षस खा रहा है, आप अपने बल से मेरी रक्षा कीजिए ॥ ३५ ॥
"राम गुलाम तु ही हनुमान गोसाँई सुसाँई सदा अनुकूलो ।
पाल्यो हौं बाल ज्यों आखर दू पितु मातु सों मंगल मोद समूलो ।।
बाँह की बेदन बाँह पगार पुकारत आरत आनँद भूलो ।
श्री रघुबीर निवारिये पीर रहौं दरबार परो लटि लूलो ।।३६।। "
भावार्थ – हे गोस्वामी हनुमान जी ! आप श्रेष्ठ स्वामी और सदा श्रीरामचन्द्रजी के सेवकों के पक्षमें रहनेवाले हैं। आनन्द-मंगल के मूल दोनों अक्षरों (राम-नाम)-ने माता-पिता के समान मेरा पालन किया है। हे भुजाओंका आश्रय देनेवाले(बाहु पगार )! बाहुकी पीड़ा से मैं सारा आनन्द भुलाकर दु:खी होकर, आर्तभाव से तुम्हें पुकार रहा हूँ। हे रघुकुल के वीर !पीड़ा को दूर कीजिए मैं दुर्बल और पंगु होकर भी आपके दरबारमें पड़ा रहूँगा ॥ ३६ ॥
इस सत्य को मैं नहीं जानती कि "हर्पीज जोस्टर" वास्तव में "बाहुक पीड़ा" है या नहीं परंतु हिमाचल के लोक में प्रचलित "अग्निबाहुक" से इसका संबंध अवश्य है वरना गांव में बैठी मेरी अम्माजी मेरे दर्द का हूबहू वर्णन कैसे करतीं? हमें विश्वास है कि मकर संक्रांति पर मिला मां का यह आशीर्वाद मेरा सुरक्षा कवच बनकर रक्षा करेगा।

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

अति सुन्दर

बेनामी ने कहा…

उत्सावर्द्धन हेतु आभार 🙏

बेनामी ने कहा…

प्रणाम माँ, आप जल्दी ही स्वस्थ्य हो जाइयेगा। ईश्वर आपके साथ हैं।