पौष की ठंड से कंपकंपाते दिन
नभ से नहीं पर हम सबके जीवन से
जाने क्यों, उषा का उजाला गया छिन
रौशन यादों की अगरबत्तियाँ,
तब से सुलगती रहती हैं रात-दिन !
उनका धुँआ आँखों को समंदर बना,
समसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!
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