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बुधवार, 31 दिसंबर 2025

भारतीय संस्कृति के उन्नायक : कन्हैयालाल मणिकलाल मुंशी जी।

🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता का अमृत काल 🪷🪷
🇮🇳 भारतीय सांस्कृतिक अस्मिता के उन्नायक"श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी" को श्रद्धाँजलि 🪷🪷
स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता, कानून विशेषज्ञ, साहित्यकार तथा शिक्षाविद मुंशी जी (२९ दिसंबर,१८८७ - ८फरवरी, १९७३) महर्षि श्री अरविन्द जी के प्रभाव से,परतन्त्र भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रांतिकारी आन्दोलन की ओर झुके। मुंबई में बसने के बाद, वे 'भारतीय होमरूल आंदोलन' में शामिल हो गए और १९१५ में इसके सचिव बने। १९२७ में, वे बॉम्बे विधान सभा के लिए चुने गए, लेकिन 'बारदोली सत्याग्रह' के बाद उन्होंने इससे त्याग पत्र दे दिया था। स्वाधीनता संग्राम में अपने योगदान के लिए उन्होंने दो वर्ष जेल में बिताए। मुंशी जी वर्ष १९३७ के बॉम्बे प्रेसीडेंसी चुनाव में चयनित होकर वहां के गृह मंत्री बने। गृहमंत्री के रूप में उन्होंने बॉम्बे में सांप्रदायिक दंगों को दबाया। वर्ष १९४० में 'व्यक्तिगत सत्याग्रह' में भाग लेने के बाद मुंशी को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। 
मुंशी जी अगस्त १९४७ में भारत के राष्ट्रध्वज का चयन करने वाली तदर्थ ध्वज समिति में थे और डॉ अंबेडकर जी की अध्यक्षता में भारत के संविधान का मसौदा तैयार करने वाली समिति के सदस्य भी थे।राजनीतिज्ञ और शिक्षक होने के अलावा मुंशी एक पर्यावरणविद् भी थे राष्ट्रीय शिक्षा के समर्थक थे। वे पश्चिमी शिक्षा के अंधानुकरण का विरोध करते थे। मंत्री के रूप में   वन महोत्सव का शुभारंभ उन्होंने आरंभ किया था।   वे उत्तर प्रदेश के राज्यपाल भी रहे थे। भारत सरकार के खाद्य मंत्री पद पर रहे। स्वाधीनता से लगभग दस वर्ष पूर्व उन्होंने मुंबई में, नवम्बर, १९३८ में उन्होंने 'भारतीय विद्या भवन' की स्थापना की ताकि भारत के वर्तमान तथा भविष्य को भारत के सांस्कृतिक एवं वैचारिक पुनर्जागरण से संजोया जा सके। भारतीय विद्या भवन के आज सारे विश्व में लगभग १२० केंद्र और इनसे जुड़े हुए ३५० से अधिक शैक्षणिक संस्थान हैं।
"कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जी का स्पष्ट कथन है कि " मेरे लिए भारतीय संविधान के पहली पंक्ति 'इण्डिया दैट इज़ भारत' वाक्यांश का अर्थ केवल एक भूभाग नहीं बल्कि एक अंतहीन सभ्यता है, ऐसी सभ्यता जो अपने आत्म-नवीनीकरण के ज़रिये सदैव जीवित रहती है।--भविष्य को ध्यान में रखकर वर्तमान में कार्य करने की शक्ति मुझे अतीत के प्रति अपने विश्वास से ही मिली है। भारत की स्वतंत्रता अगर हमें 'भगवद्गीता से दूर करती है या हमारे करोड़ों लोगों के इस विश्वास या श्रध्दा को तोड़ती है, जो हमारे मंदिरों के प्रति उनके मन में है और हमारे समाज के ताने-बाने को तोड़ती है तो ऐसी स्वतंत्रता का मेरे लिए कोई मूल्य नहीं है। सोमनाथ मंदिर के पुनरुध्दार का जो सपना मैं हर रोज देखता आया हूं, उसे पूरा करने का मुझे गौरव प्राप्त हुआ है। इससे मेरे मन में यह एहसास और विश्वास उत्पन्न होता है कि इस पवित्र स्थल के पुनरुद्धार से हमारे देशवासियों की धार्मिक अवधारणा अपेक्षाकृत और शुध्द होगी तथा इससे अपनी शक्ति के प्रति उनकी सजगता और भी बढ़ेगी।"
स्वतंत्र भारत में सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण भी मुंशी जी  की प्रमुख कार्यसूची में था। उनकी इस सक्रियता के कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने एक कैबिनेट बैठक के बाद कन्हैयालाल मुंशी से कहा था, "आप सोमनाथ मंदिर की पुनःस्थापना के लिए जो प्रयास कर रहे हैं, वे मुझे पसंद नहीं हैं।" 
१९५२ से १९५७ तक  उत्तर प्रदेश राज्य के राज्यपाल रहे  कन्हैयालाल मुंशी जी नें १९५९ में कांग्रेस पार्टी की सदस्यता से त्यागपत्र देकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी को अपनाया ।  कुछ समय बाद उन्होंने भारतीय जनसंघ की सदस्यता ग्रहण कर ली।
प्रख्यात साहित्यकार के रूप में उन्होंने गुजराती, हिंदी व अंग्रेज़ी में सौ से ज्यादा उत्कृष्ट ग्रंथों की रचना की थी। इन्होंने मुंशी प्रेमचंद के साथ 'हंस' पत्रिका का संपादन भी संभाला था। ‘यंग इंडिया’ के संयुक्त सम्पादक और 'भवन्स जर्नल’ के सम्पादक रहे। सन् १९३८ से भारतीय विद्या भवन के आजीवन अध्यक्ष और ‘ सन् १९३७-५७ के मध्य, दस वर्षों तक गुजराती साहित्य परिषद के अध्यक्ष, सन् १९४४ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष। सन् १९५१ से मृत्युपर्यन्त संस्कृत विश्व परिषद के भी अध्यक्ष रहे। 
हिन्दी में उनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं :---- ‘लोमहर्षिणी’, ‘लोपामुद्रा’, ‘भगवान परशुराम’, ‘तपस्विनी’, ‘पृथ्वीवल्लभ’, ‘भग्नपादुका’, ‘पाटण का प्रभुत्व’, कृष्णावतार के सात खंड—‘बंसी की धुन’, ‘रुक्मिणीहरण’, ‘पाँच पांडव’, ‘महाबली भीम’, ‘सत्यभामा’, ‘महामुनि व्यास’, ‘युधिष्ठिर’ (उपन्यास); ‘वाह रे मैं वाह’ (नाटक); ‘आधे रास्ते’, ‘सीधी चढ़ान’, ‘स्वप्नसिद्धि की खोज में’ (आत्मकथा के तीन खंड)।
आदरणीय मुंशी जी सांस्कृतिक एकीकरण के बिना किसी भी सामाजिक -राजनीतिक कार्यक्रम का कोई महत्व नहीं मानते थे।भारतीय संस्कृति के पुरोधा कन्हैयालाल माणिकलाल मुशी जी के जन्मदिवस पर कोटि-कोटि नमन व श्रद्धासुमन - - 🪷🪷🪷🪷🪷 स्वर्णअनिल।

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