जाड़ों का मौसम

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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

बापू के देश में ३० जनवरी २००९

मेरा देश प्रजातांत्रिक् था, है - -और रहेगा
परन्तु - तुम राजा हो और -हम ‘तुम्हारी’ प्रजा ,
हमें ख़बर हुए बिना – ये फैसला कब हो गया?
हम - - - - - बराबर थे, हमारे विश्वास को,
हमारे आदर को तुमने ग़ुलामी का अर्थ क्यों और कैसे दे दिया
हमने ही तुम्हे सत्ता के आसन पर बिठाया
सत्ता मिलते ही तुम दाता हो गए और - - याचक हो गए हम ! --
ये
क्या हुआ ? क्यों स्वीकार कर लिया हमने इस विसंगति को?
आज गाँधी के स्वराज्य में ऐसा क्यों है कि - -
छोटी –बड़ी कुर्सी पर बैठा -प्रत्येक - व्यक्ति
मनुष्य नहीं केवल पदनाम बन गया है
स्वयं को पौराणिक कथाओं का इन्द्र मान बैठा है
जिसे अधिकार है राजा हरिश् चंद्र,कर्ण- से लेकर--
सती
अहिल्या तक सभी की परीक्षा लेने का
और विसंगति ये है कि परीक्षा से उभरती चोटों
उनसे
टपकते लहू ,अन्दर घुटती सिसकियों से –
किसी को - - - कोई सरोकार नहीं, कही कुछ नहीं बदलता - -
पर अब बद्लेगा - -क्योंकि वर्तमान ;
इन्द्रासन
या स्वर्ग नहींचाहता
वह तो मनुष्य बनकर जीने को कृतसंकल्प् है
इसलिए तुम भी अच्छी तरह समझ लो कि - -
प्रजा
और सत्ता के मध्य का सम्बन्ध –
बापू के इस् जनतान्त्रिक देश में ,
आदर
पर नहीं टिक पाया तो - - - - -
तिरस्कार
पर जाकर ठहरेगा

6 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है।बधाई स्वीकारें।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

विसंगति ये है कि परीक्षा से उभरती चोटों
उनसे टपकते लहू ,अन्दर घुटती सिसकियों से –
किसी को - - - कोई सरोकार नहीं, कही कुछ नहीं बदलता - -

अंतर्मन की व्यथा को सुंदर तरीके से उभरा है......
परन्तु इस व्यवस्था को बदलने में बहूत वक़्त लगेगा

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति........
शुभकामनाऎं........

रचना गौड़ ’भारती’ ने कहा…

सुंदर रचना
भावों की अभिव्यक्ति मन को सुकुन पहुंचाती है।
लिखते रहि‌ए लिखने वालों की मंज़िल यही है ।
कविता,गज़ल और शेर के लि‌ए मेरे ब्लोग पर स्वागत है ।
मेरे द्वारा संपादित पत्रिका देखें
www.zindagilive08.blogspot.com
आर्ट के लि‌ए देखें
www.chitrasansar.blogspot.com

Mishra Pankaj ने कहा…

very nice thinking

बेनामी ने कहा…

हमारी सामाजिक-राजनैतिक विडंबनाओं और विसंगतियों का बहुत भावपूर्ण वर्णन किया है आपको। बहुत बहुत बधाई कविता के लिए भी, और इस सुंदर ब्लॉग के लिए भी।