समाचार ; जब समाचार-पत्रों के माध्यम से आते थे,उनसे नज़र चुराना कुछ-कुछ संभव हो जाता था परंतु इन दिनों टी,वी पर लगातार दिखाये जा रहे प्रसंग केवल ख़बर कहाँ रह जाते हैं वे तो हमारा ऐसा सच बन जाते हैं जिसे भोगने को हम बाध्य हैं ।यह मेरी किश्तवाड़ ,भद्रवाह; ढोडा की फातिमा ,शबनम,फरहा जैसी दुनिया की मासूम बेटियों की भोगी हुई मानसिक् पीड़ा है , असहनीय परिवेश के प्रति आक्रोश् है जो फूट पड़ा है मेरी इस कविता “अवाँछित कौन ” में –
“अवाँछित कौन ”
बड़ा युद्ध हो - -या - -मामूली लड़ाई
मुद्दा धर्म से जुड़ता हो .तथाकथित व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से
या राजनैतिक महत्वाकाँक्षाओं से
उसका कहर क्यों टूटता है – औरत पर ही !
अपने घर की औरत –क्या सिर्फ वही माँ–बहन-बेटी है !
क्यों ‘इन’ पुरुषों की निगाह में - शेष हर औरत - -
केवल एक जिस्म रहती है - सिर्फ एक जिस्म ?
उसकी कोमलता, उसके सपने .उसकी रूह की पाकीज़गी
वो आदिम – बर्बर आदमी क्यों नहीं देखता ? ? ?
उसकी सृजन की पवित्र शक्ति को ,उसकी कोख को ,
अभद्र गाली की तरह अपमानित कर
भविष्य के हाथों में जबरन् सौंपता है नई पीढ़ी की ऐसी पौध -
जिसे देख कर माँ की आँखों में ममता का दूधिया सागर नहीं लहराता ।
याद रखना ! ममता की पयस्विनी को ज़बरदस्ती सुखा कर ,
दुर्दमनीय घृणा का ज्वालामुखी सुलगाने वालों –
रतन गर्भा वसुधा को बंजर भूमि में बदलने वालों -
स्वयं को जगत का नियंता घोषित करने वाले तुम !
तुम ही हो धरती की अवाँछित-संतान |
संभल जाओ ! आसुरी ताक़तों तुम्हे समूल उखाड़ने को
शक्ति फिर दुर्गा बनने को तैयार हो गई है |
समसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!
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