आज अक्षय तृतीया है । मान्यता है कि आज के दिन की गयी प्रार्थना अक्षय फलदायी होती है अर्थात यदि आज हम यदि दिल से, पूरी निष्ठा से कोई भी कामना करते हैँ तो उस कामना की सिद्धि दीर्घ् काल तक अक्षय रह्ती है । पूरे भारतवर्ष मेँ अभी लोकतंत्र की हमारी चुनावी प्रक्रिया मेँ हर दिन जैसे दृष्य उपस्थित हो रहे हैँ उन्हेँ देख-देख कर मैँ आज के दिन उस सर्वशक्तिमान परमसत्ता से यही प्रार्थना करती हूँ कि हमारे राष्ट्र की लोकसत्ता उन हाथोँ मेँ जाये जो वास्तव मेँ राष्ट्र के भक्त होँ : केवल अपने परिवार या अपने समुदाय विशेष के भक्त ना होँ । समाज - सेवा जिनके जीवन का मुख्य लक्ष्य हो : राजनीति के “कमाऊ व्यापार” पर कब्ज़ा करने के लिए ओढ़ा गया मुखौटा ना हो । जानती हूँ कि इस प्रार्थना की ,इस कामना की सिद्धि होगी हमारे वोट से । “वोट” - जिसकी शक्ति और महत्व को हम जानते तो हैँ पर मानने के लिये तैयार नहीँ हैँ तभी तो पढ़ा – लिखा प्रबुद्ध वर्ग चाय – कॉफ़ी की चुस्कियोँ के साथ क्राँति की बड़ी-बड़ी बहसोँ मेँ तो उलझता है पर वोट की मौन , सरल राह को नहीं अपनाता ।स्वतंत्रता के बासठ वर्षोँ के बाद आज के राजनैतिक परिवेश को देखकर मैँ इस सत्य को स्वीकारने को बाध्य हूँ कि जनतंत्र् / गंणतंत्र को - गनतंत्र में बदलने की साज़िश में केवल तथाकथित बाहुबली लोग ही नही ; तटस्थ लोग भी शामिल हैं । तटस्थ लोग -कविता कई बरस पहले जन्मी थी –एक किशोर के साथ हुए अन्याय से । आज के वातावरण नें वैयक्तिक स्तर पर घटे उन कष्टदायी अनुभवों को राष्ट्रीय स्तर से एकाकार कर फिर जीवंत कर दिया है । यदि इस कविता के शब्द तटस्थ लोगों की गिनती थोड़ी भी कम कर पायेंगे तो मेरा विश्वास कीजिए हमारे भारत का गंणतंत्र गंनतंत्र नहीं बनेगा ।
तटस्थ लोग
अपने किसी अपराध के लिए नहीं, बुज़दिलों की गूँगी बस्ती में –सच को सच की तरह् कहने के - दुस्साहस के लिए,
समाज के तथाकथित ठेकेदार - अपने मुखौटों के उतर जाने के डर से ,
जब उस ‘ एक ’ को सलीब पर टाँगने के लिए ,
काँटों का ताज पहना नंगे पैर पत्थरों पर चलाएँ– तो –हम- , हम सब तमाशबीन बनकर रह जाएँ !
वो मसीहा है –हमारा मसीहा-ये तो मानें पर दो कदम भी साथ निभाने का साहस ना जुटाएँ ।
एक ही युग में कितनी बार दोहराओगे इस घटना को तुम ?
अब तो छोड़ दो अपनी कायरता को बेबसों की मजबूरी कहना तुम ।
बहुत प्यारी है अपनी जान तुम्हे तो सीना तान कर विपक्ष में खड़े होकर उनके साथ हो जाओ
जो हर मसीहा को सलीब तक पहुँचा कर अपनी आसुरी शक्ति का लोहा मनवाते हैं ।
या - - फ़िर - - मसीहा के बदन पर गड़्ने वाली हर कील को अपने बदन की ढाल पर झेलो ।
ग़ौर से देखो ‘उसने’ अपने कंधों पर जो सलीब उठाया है- वो तुम्हारी मुक्ति के लिए है,
साहस है तो उस बोझ को अपने कंधों पर उठाओ –चुप मत रहो काय्र्रों की तरह
परिस्थितियों से भागो मत भगोड़ों की तरह ,सच को सच की तरह स्वीकारो ।
मत प्रमाण दो इतिहास का कि हर युग में ऐसा ही होता रहा है – अतीत से वर्तमान और वर्तमान से भविष्य तक ।
इतिहास को मेरी आँखों से देखो –सत्य पर अपने स्वार्थों का मुलम्मा मत चढ़ाओ
सत्य को बिना किसी पर्दे के सामने आने दो – वो गवाही देगा- चीख चीख कर कहेगा
मसीहा को काँटों का ताज़ पहनाने में , उसे सूली पर चढ़ाने में- क़ातिलों की उस टोली में ,
शामिल हैं वे ‘ तटस्थ लोग ‘ भी –जो अपने को सत्य का पक्ष्धर कहते हैं –
जो उसकी जय बोलने के लिए - उसके सूली पर चढ़्ने की रस्म को पूरा होते देखते रहते हैं –
वो- जिनकी चुप्पी हर कील के अँगों के आर पार होने पर ,
घावों से टपकते ताज़ा लहू की धार पर बिल्कुल नहीं टूटती ।
आज तोड़ दो तटस्थ रहने का ये ढ़ोंग ।दाँत भींचकर आँखें कसकर ,आँसू ट्पकाकर –अपनी नपुंसकत को बेबसी मत कहो ।
और - -मत शामिल हो क़ातिलों की उस भीड़ में- -जो सच्चाई को सलीब तक पहुँचाती है ।
समसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!
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5 टिप्पणियां:
Bahut Badhiya Swar ji
Wah-wah
स्वर्ण जी रात की पारी में पढ़ना अच्छा लगा । एक सच बताऊँ नई पीढ़ी तटस्थ लोगों की पीढ़ी नही है। यकीन रखिएगा हम सब वोट डालेगे। आप लिखती रहिएगा - सागर
we, the people...is where our preamble starts to address the Indian people. We, the people who have forgotten the meaning of what a soverign, socialist democracy means...
We, the people who have perhaps forgotten how much power a single Vote has in this country our forefathers freed at the price of several million lives...
We, the people who need to relax and read the news papers and comment for hours together but fail to see the need to stand in a 15 minute lineup and avail a chance to change the news that upsets them so much over a cup of tea...
What a dichotomy are We, the people...
dear swarananil , today i am not ashamed of accepting this this truth that since 3 yrs i was becomihg 'TATTASTH LOG' ? yes i was not voting but after reading / feeling your words ,i VOTED this year.I am sending to YOU ; REGARDS from the bottom of my heart .
Pragati chandran, bidar.m.p
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