बचपन की अनेक जिज्ञासाओं के समाधान माता-पिता और गुरूजनों के जवाबों में पाया है ; उनके हर उत्तर में सत्य छिपा था ।अब भी याद आता है अपना प्रश्न – वक्त हर घाव भर देता है ? पिताजी ने सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए मुस्करा कर कहा था “बेटा ,इसका जवाब तुम्हे वक्त स्वयं दे देगा । ” - – सचमुच वक्त नें , जीवन के अनुभवों नें बड़ी कठोरता से स्पष्ट शब्दों में समझा दिया कि कुछ घावों को ,लाख चाहने पर भी वक्त नहीं भर पाता , वे घाव अतीत की गहराईयों में कभी गुम नहीं होते , वे सदा वर्तमान में रहते हैं क्योंकि आँसुओं का खारा –पानी उन घावों पर नमक लगाकर उस दर्द को और ताज़ा करता रहता है । विश्व थैलेसीमिया दिवस ८ मई भी –पिछ्ले चार वर्षों से मुझे ऐसे ही घाव की पीड़ा के साथ अकेला छोड़ जाता है । आज अकेले नहीं रहना चाह्ती [ब्लॉग पर कहना सरल लगता है ]
बात लगभग १५-१६ वर्ष पहले की है । मैं स्टाफ़–रूम में बैठी पढ़ रही थी कि मुझे अपने नन्हे –नन्हे हाथों से छू कर एक प्यारे से बच्चे नें चौंका दिया , मैं कुछ कहती इससे पहले ही उसने अपना दायाँ हाथ बढ़ाया और बेझिझक स्वर में बोला , “आप मेरी दोस्त बनेंगी ” मैनें मुस्कराते हुए उसको गोद में बिठाया और उसकी गुलाबी हथेली को हाथ में लेकर कहा ,” ज़रूर बनेंगे । भई इतने प्यारे दोस्त से दोस्ती ज़रूर करेंगे । ” उसने मेरी बात अनसुनी कर दी ; वो शायद जल्दी में था , ज़िन्दगी नें उसे वक्त कम दिया है इस सच को शायद वो उस कच्ची उम्र से ही जानता था । (मैं उम्र में उससे बहुत बड़ी थी पर थैलेसीमिया का सच नहीं जानती थी ) उसनें अपनी नन्ही हथेली में मेरे हाथ को मज़बूती से पकड़ा और एक सांस में बोला ,” मेरा नाम प्रतीक चौधरी है । आप स्वर्ण अनिल मैडम हैं । आप हैरान हो गईं ! मैं आपका नाम कैसे जानता हूँ ! भई मैनें दोस्त का नाम पहले पता किया तब आपके पास आया “ फिर अपनी खिलखिलाहट पूरे कमरे में बिखेर कर बोला ,” अरे भई मैं शीला चौधरी मैडम का बेटा हूँ ।वो आपकी दोस्त हैं ना । ये थी प्रतीक से मेरी पहली मुलाक़ात । बाद में अपने साथियों के आग्रह पर मैनें शीला से ही पहली बार थैलेसीमिया के बारे में जाना ।
समझ पाई कि - सभी कार्यों – पढ़ाई ,खेल-कूद , साँस्कृतिक –कार्यक्रमों में प्रथम आने वाला सक्रिय बालक दो सप्ताह बाद सुस्त सा क्यों हो जाता है । “मुझे ब्लड चढ़्ना है ”पन्द्रह दिन में कहे गए इस वाक्य के साथ मैनें प्रतीक के , आत्मबल को , सहनशीलता को , निरंतर बलवती होती जिजिविषा को देखा ,महसूस किया । “ प्रतीक ” के कारण ही मैं जुड़ी – नैशनल थैलेसीमिया वैलफ़ेयर सोसाईटी से ; जो उस समय एकमात्र ऐसी संस्था थी - थैलेसीमिया से जुड़ी ।
थैलसेमिक रोगियों और उनके परिवार के लोगों की कठिनाईयों को समझने और उनके हितों के लिए - व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय - सभी स्तरों पर जन-चेतना जगाने के कार्य में आज भी नैशनल थैलेसीमिया वैलफ़ेयर सोसाईटी पूरी कर्मठता से कार्यरत है । “ प्रतीक चौधरी “ मेरा नन्हा दोस्त , थैलेसीमिया के सत्य से रूबरू करवाने वाला मेरा प्यारा बच्चा - उम्र के दो दशक पूरे होने से पहले ही अगली जीवन-यात्रा पर निकल पड़ा । एक संतोष है कि “ प्रतीक “ थैलेसीमिया का शिकार नहीं बना था (अन्य रोग कारण बना ) क्योंकि उसके माता-पिता की जागरूकता नें जब तक वो रहा उसे एक स्वस्थ जीवन दिया । पन्द्रह – बीस वर्ष पूर्व जानकारियों के अभाव नें , थैलेसीमिया के दंश को सहने के लिए लोगों को मजबूर किया परंतु आज परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं । हर बार दो से चार सप्ताह बाद सुरक्षित रक्त चढ़ाने ( आजकल कई रोग दूषित रक्त चढ़ाने से हो रहे है ) तथा दवाईयों के खर्चे , ( प्रति वर्ष जो लगभग पचास हज़ार से दो लाख तक ) – व्यक्तिगत रूप से, इन सब से बचा जा सकता है विवाह-पूर्व रक्त की जाँच और थैलेसीमिया संबंधी अपने ज्ञान को बढ़ा कर । इसके लिए आपकी सहायता के लिए आप निम्नलिखित पते पर सम्पर्क कर सकते हैं । -:
National Thalassemia Welfare Society &
KG-1/97 Vikas puri
New Delhi 110018
Ph. 91-11-25507483, 09311166711
URL: www.thalassemiaindia.org
E Mail;- ntws08@gmail.com
drjsarora@bol.net.in
- - परंतु यदि आप दूसरों की सहायता करना चाहते हैं तो मैं बताना चाहूँगी कि थैलेसेमिक की सहायता का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है “रक्त-दान ”। इसीलिए आज का दिन हमारी संस्था रक्त-दान दिवस के रूप में मनाती है क्योंक
- विज्ञान नें अभी इतनी उन्नति नहीं की है कि कृत्रिम रक्त बना सके । आईए इस विश्व थैलेसीमिया – दिवस पर ; थैलेसेमिक की पुकार सुनें और - - - संकल्प लें – कुछ अपने लिए ,कुछ अपनों के लिए ।
* * * * * * *
तेरे बिन जीना सकूँ ओ ! मेरे रक्त – दाता ।
थैलेसीमिया के इलाज का नहीं , सिर्फ़ दवा से है नाता ॥
कारख़ानों में खूँ बन ना सके ,यही मुश्किल सवाल है |
तुम भुला दो तो क्या हम करें यही डर यही ख़्याल है ॥
हमारी नहीं कुछ ख़ता ,जैनेटिक हम तो बीमार हैं ।
तुम्हारी तरह इन आँखों में भी सपनों का सतरंगा संसार है ॥
अधूरी राहें – अधूरी मंज़िलें - ना अब वो अँधेरी स्याह रात हो ।
रुपहली चाँदनी पे हक़ हमारा भी होगा जब रक्त-दाता का साथ हो ॥
• * * * * * * *
समसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!
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