आज उस परिवार से अचानक मिलने के बाद आँखो के साथ-साथ मन भी भीग गया है । जब उसने पहली बार अपनी बेटी के बारे में बताया था तब मैनें उसके स्वास्थ्य के बारे में जानने के बाद बहुत भारी मन से अपनी बेटी की थैलेसीमिया जाँच की सलाह दी थी क्योंकि मैं जानती थी कि दस वर्ष की वो बच्ची ,कलकत्ता की झुग्गी बस्ती में अपनी दादी के साथ बिना इलाज के, झाड़-फ़ूँक के सहारे रह रही थी। दिल्ली में कमाने आए उसके माता-पिता हर दूसरे दिन बीमार रहने वाली बेटी को देखें या अपने काम को? कल्पनाओं में नहीं वास्तविक जगत में यह निर्णय ग़रीबी की रेखा से नीचे जी रहे अधिकांश परिवारों को स्वतंत्रता के बासठ वर्षों बाद भी मन मसोस कर लेना पड़्ता है ये विसंगति है हमारे प्रजातंत्र की ! अभी मैं देश नहीं ,इस विशाल देश में रहनें वाली उस रिंकू की बात कर रही हूँ जो अब इस दुनिया में नहीं है । थैलेसीमिया ने नहीं शायद उसके बारे में सही जानकारी ना होने नें – उस नन्ही मासूम बच्ची के प्राण लिए हैं । इस जैनेटिक रोग का उपाय केवल माता-पिता के रक्त की जाँच से हो सकता है । परंतु रोग हो जाने पर रोगी पर छ:-सात हज़ार रूपये मासिक खर्च करने पड़्ते हैं, रोगी को मँहगी दवाओं के साथ- साथ, सप्ताह में ,कभी पन्द्रह दिन ,तो कभी महीने में रक्त चढ़ाना पड़्ता है और रक्त-दान को लेकर हम आज भी किन भ्राँतियों में जी रहे हैं ये बात किसी से छिपी नहीं है और यह एक कठोर सत्य है कि ख़ून कारखानों में नहीं बनता । ‘वोट ‘ को लेकर मिलने वाली प्रतिक्रियाएँ मेरी ताक़त बनी है – थैलेसीमिया को मिटाने की हमारी लड़ाई में भी सबके सहयोग से ही सफलता मिल सकती है । आज यह काव्याँजलि समर्पित कर रही हूँ उन के लिए जो थैलेसीमिया से जूझ रहे हैं –और उनके परिवारों के लिए । { ये मेरी प्रार्थना भी है ,आग्रह भी कि इसे पढ़ने के बाद अगर आप साथ देने की इच्छा से हमारे साथ जुड़्ना चाहें तो हमारा पता है : National Thalassemia Welfare Society(Regd.) KG-1/97 ,Vikas Puri, NewDelhi -110018. (Ph; 9311166711 , 25507483 , E-mail ; ntws91@gmail.com)
• * * मुक्कमल दरिया
मेरे अज़ीज़ ,मेरे अपने - -
तेरे दर्द को सुन मेरी आँखों से जो टपका है
खारा पानी नहीं मेरे लहू का वो क़तरा है
जो दिल की राह यहाँ आ पहुँचा है
छिपाऊँ क्यों ? तुमसे तो कोई पर्देदारी नहीं ,
ज़ुबानी हमदर्दी हो ऐसा भी नहीं !
जानते हो तुम – शामिल है मेरा अपना दर्द इसमें ।
तेरा – मेरा , दोनो का दर्द मिला तो –
सीमाओं की कच्ची मेढ़ पुर्ज़ा –पुर्ज़ा हो ऐसी बिखरी कि -
- किनारों को तोड़ नदी बूँद- बूँद हो बिखरी नहीं ,
देखो वो तो मुक्कमल दरिया बन है बह रही !!!!
समसामयिक परिवेश में जो कुछ घटता है वो कभी लावे की तरह तो कभी बर्फ की तरह पिघल कर मेरी क़लम से अक्षरों में बदलता जाता है | अक्षरों की ये आँच, ये ठँडक उन सब तक पहुँचे जो अपनी बात *अपनी भाषा में कहने में झिझकते नहीं हैं !!!!
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