जाड़ों का मौसम

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गुरुवार, 4 जून 2009

सच ******* ४ जून २००९

अपनी किरणों को समेट कर
घर लौटते सूरज के साथ-साथ ,
साँझ के सुरमई आँचल को थाम कर ,
वो एक अकेली फ़ाख्ता यूँ उड़ रही है
जैसे – अपने पँखों की मज़बूती को तोल रही है ।
उसकी उड़ान में घर लौटने का उछाह नहीं ,
अभी- अभी , कुछ क्षण पहले मिली आज़ादी की
पर तोलती सी कँपकंपाहट है ।
अँधेरे के बढ़ते – लम्बे होते साये
उसके उल्लास के आगे बौने हो चले हैं ।
अपनी साँसों में – अपने रोम-रोम में
इस खुली – खुली ताज़ी हवा को बाँध कर
इतनी खुश है – वो - - कि आज उससे
अपने पँखों की थिरकन संभाले नहीं संभलती ।
वापस लौटने के ख़्याल तक को ;
उसने - सिर झटक कर , आँखें मूँद कर
चकनाचूर कर , पुर्ज़ा – पुर्ज़ा कर , बिखेर दिया है ।
कोई बाधा , कोई बंदिश , कोई दीवार ,
उसे - इस पल को भरपूर जीने से रोक सके
ऐसी हिम्मत ना गुज़रे कल में है ना आने वाले कल में
क्योंकि फ़ाख्ता ने आज को –इस पल को जीने का सच पा लिया है ।

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