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बुधवार, 3 जून 2009

वो - - जो परितोष है **** २२ मई 2009


नन्ही कोमल हथेलियों में बेला के फूलों की                   
भीनी-भीनी सुगंध को सहेजने वाले - मासूम हाथ ;       
रिश्तों की सारी महक को मज़बूती से थाम कर            
आज - अपने स्पर्श से कह देते हैं दिल की बात !           
                                                - ऐसा सब कहते हैं !! 
अपनी ओर उठी गुस्से भरी नज़र को , मृग-छोने की      
हैरान – प्रश्नों भरी जिज्ञासा से निहारते - अबोध नयन ;   
दुनिया भर के अनचीन्हे नज़रियों को समझदारी से         
आज – अपनी सोच की तराज़ू में तोल कर करते हैं चयन !!
                                                  - - ऐसा सब कहते हैं !! 
प्यार में गुनगुनाता ,क्रोध में तमतमाता ,मचलता ,इतराता ,
बचपन की देहरी से झाँकता जो नटखट कान्हा सा मनभाया ;
गोकुल की गलियों से निकल कर मथुरा पहुँचने की यात्रा में
आज – जीवन के कुरुक्षेत्र का कृष्ण बन कितना निखर आया !!!
                                                - - ऐसा सब कहते हैं !!
बाहर कितना बदलाव आया , मेरी ममता नहीं परख पाती है ,
आज भी – जब मेरी नज़र जब उसे सब कहीं खोज लौट आती है ;
तब – दबे पाँव पीछे से आकर , बरबस ही मुझे चौंकाता है ,
गले में दोनों बाँहें डाल - अम्मी कह – खिलखिलाता है   ,
 मेरे सुलगते दर्द को , अनसुलझे सवालों के बोझ को –
पिघलते मन के साथ – मज़बूत कँधों पर उठा लेता है      
बिना कुछ बोले एहसास भरता है ममता का ,अपनेपन का   
वो - - जो परितोष है मेरे प्राणों का - -           मेरे मन का !!!!