सुना है - सिर पर देव प्रतिमा की तरह मगन भाव से
आदर्शों को उठाए चलते थे- हम- 'मानव' पिछले युगों में ।
जो मिलता - निर्द्वन्द्व , पावन श्रद्धा से सिर झुकाता
गीतों में आँतरिक आनंद को ढालता,गुनगुनाता– गाता ।
आज सब बदल गया - नया युग – नए प्रतिमान
वो - देवप्रतिमा रह गई – सिर्फ़ - पत्थर बेजान ।
कोई सिर उसके आगे झुकता नहीं ना श्रद्धा से, ना भावना से,
सिर्फ़ जीभ की नोक से – आदर्शों की जय बोलती एक भीड़
जिनके स्वर इतने कमज़ोर इतने धीमे हैं कि - -
दूसरों तक क्या , स्वयं तक भी नहीं पहुँच पाते ।
कथाओं में पढ़ा है – बड़ों से सुना है कि - -
सतयुग – त्रेता – द्वापर – सभी युगों में
धरतीपुत्र की श्रेष्ठता पर – मानवीय सफलताओं पर
देवलोक के देवता पुष्प-वर्षा करते थे
जय-जयकार करते थे मानव के महामानव बनने पर ।
पर आज – वे फूलों और चढ़ावों के बोझ तले दबे से
मंदिरों में चुपचाप – परेशान हैं – असमंजस में हैं –
कि- महामानव बनने की परम्परा तो खो ही गई !
पर धरा पर आज अचानक मानवों की कमी क्यों हो गई ? ?
आदर्शों को उठाए चलते थे- हम- 'मानव' पिछले युगों में ।
जो मिलता - निर्द्वन्द्व , पावन श्रद्धा से सिर झुकाता
गीतों में आँतरिक आनंद को ढालता,गुनगुनाता– गाता ।
आज सब बदल गया - नया युग – नए प्रतिमान
वो - देवप्रतिमा रह गई – सिर्फ़ - पत्थर बेजान ।
कोई सिर उसके आगे झुकता नहीं ना श्रद्धा से, ना भावना से,
सिर्फ़ जीभ की नोक से – आदर्शों की जय बोलती एक भीड़
जिनके स्वर इतने कमज़ोर इतने धीमे हैं कि - -
दूसरों तक क्या , स्वयं तक भी नहीं पहुँच पाते ।
कथाओं में पढ़ा है – बड़ों से सुना है कि - -
सतयुग – त्रेता – द्वापर – सभी युगों में
धरतीपुत्र की श्रेष्ठता पर – मानवीय सफलताओं पर
देवलोक के देवता पुष्प-वर्षा करते थे
जय-जयकार करते थे मानव के महामानव बनने पर ।
पर आज – वे फूलों और चढ़ावों के बोझ तले दबे से
मंदिरों में चुपचाप – परेशान हैं – असमंजस में हैं –
कि- महामानव बनने की परम्परा तो खो ही गई !
पर धरा पर आज अचानक मानवों की कमी क्यों हो गई ? ?
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