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मंगलवार, 14 जुलाई 2009

करगिल विजय दिवस (२६ जुलाई ) शहीद-सम्मान–दिवस या विवाद–दिवस !



१४ जुलाई को संसद के गलियारों में जन-प्रतिनिधी के करगिल के शहीदों की अवमानना करते वक्तव्य ‘ २६ जुलाई को एन.डी.ए करगिल विजय दिवस मनाना चाहती हो तो मनाए ’ नें गहरा आघात पहुँचाया ।हमारी रक्षा सेनाओं के अप्रतिम बलिदान को- राजनैतिक खेमों में , दलों में – बाँट कर देखेगा हमारे स्वतंत्र – प्रजाताँत्रिक राष्ट्र की इक्कीसवीं सदी का राजनेता ! – इसकी कल्पना हमारे लिए असंभव थी पर - - सत्य कल्पना से अधिक आश्चर्यचकित करने वाला होता है इस तथ्य को भी तो नकारा नहीं जा सकता । कैसी विसंगति है – एक और- हमारा राष्ट्र भारतीय सैन्य– टुकड़ी के फ़्राँस-दिवस में शामिल होने पर अपने को गौरवान्वित अनुभव कर रहा था क्योंकि प्रजा के सुख-दु:ख से अनभिज्ञ राजसत्ता को - (‘ अगर लोगों के पास रोटी नहीं है तो उन्हे कहो कि वे केक और पेस्ट्री खाएँ ’–का आदेश देने वाले शासक ) जनता के आक्रोश की आँधी नें, १४जुलाई१७८९ को बास्तील के किले में बंदी बनाए बुद्धिजीवियों को छुड़ा कर स्वतंत्रता का शंखनाद फूँक - ध्वस्त करने का बीड़ा उठाया था । - - दूसरी ओर - - एक सैन्य–टुकड़ी नहीं समस्त रक्षा सेनाओं की वीरता, उनकी शहादत व उनके अदम्य शौर्य का अभिनन्दन करने को उत्सुक देश करगिल-विजय–दिवस मनाने के लिए क्या राजनैतिक इच्छा की बाट जोहेगा ?
मैं रक्षा-सेनाओं से जुड़ी पारिवारिक परम्परा की एक कड़ी हूँ । मुझे गर्व है कि मैनें अपने जीवन के लगभग २९ वर्ष केन्द्रीय विद्यालय को दिए हैं जिनमें अधिकांश बच्चे रक्षा-सेनाओं के परिवारों से ही आते थे । विशेषत: के.वि न0 ४ ,कन्धार लाईंस,दिल्ली कैंट में – अपने आत्मीय–जनों को राष्ट्र –हित में समर्पित करने वाले परिवारों से मेरा संबंध बहुत आत्मीय रहा है । मैं नहीं जानती किस राजनैतिक दल नें इन परिवारों के लिए क्या किया ? इन द्स वर्षों में उनकी सुध ली भी या नहीं ? पर – राजपूताना राईफ़्लज़ और के.वी.न0 ४ नें अपने शहीदों के बच्चों की ज़िम्मेदारी पूरी ईमानदारी से निभाई है ।बच्चों के लिए छात्रावास और पीछे छूटे परिवार-जनों के लिए समुचित रोज़गार (स्वयं काम सिखा कर ) की व्यवस्था की । भाषणों से या बातों से नहीं- कर्म से अपने कर्तव्यों को चरितार्थ करने वाले पुरुषार्थी वीरों से भरी हैं – हमारी रक्षा–सेनाएँ । बड़ों की बात यहाँ नहीं कर रही हूँ क्योंकि उन से मुझे जोड़ने वाली रेशम सी कोमल और् मज़बूत डोर रहे हैं –बच्चे । अपने पिता की अनुपस्थिति (चाहे दीर्घकालीन हो या अल्पकालीन) से जूझते ये बच्चे किन मानसिक, भावनात्मक और आर्थिक संघर्षों से हर पल गुज़रते हैं इसका अन्दाज़ा दूर बैठ कर नहीं लगाया जा सकता । इन बच्चों की निकटता नें मुझे जीवन के ऐसे अनुभव दिए जो मेरी अनमोल थाती हैं । इन अनुभवों में आज भी - के.वी, कन्धार लाईंस के हिमांशु की बातें मेरी आँखें नम कर देती हैं । मैं आज भी अपने आँसू नहीं रोक पाती जब चार दिनों तक गृह – कार्य नहीं करने के कारण मैनें पाँच बच्चों से कहा ,”बेटा ‘आप हमारी बात नहीं सुनते। आपको अच्छा लगेगा कि हम आपके पापा को आपकी वजह से विद्यालय बुलाएँ ? ” ( मुझे बताया गया कि यहाँ अधिकांश बच्चे माँ से नहीं डरते क्योंकि पिता की अनुपस्थिति के कारण ,वे बच्चों के प्रति अधिक ममतालु और अति-भावुक हो जाती हैं परंतु पिता के आने की प्रतीक्षा करने वाले ये बच्चे ‘ कुछ दिनों के लिए ’ मिले पिता के लाड़-प्यार-दुलार में कोई कमी नहीं चाहते इसलिए पिता के सामने ‘अच्छे बच्चे ’बने रहना चाहते हैं ।) – सब बच्चों नें सिर झुका कर ‘ कल हम काम करके ले आयेंगे ’ कहा, हमनें सब बच्चों से पक्का वादा लिया और बिठा दिया । अभी हम ने पढ़ाना शुरू किया ही था कि हिमांशु को देखकर हम हतप्रभ रह गए ।उसके मासूम चेहरे पर आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी ।बच्चों के आँसु हमारी कमज़ोरी है इसलिए हम परेशान हो गए । उसकी डबडबाई आँखों को पोंछ कर प्यार से दुलरा कर हमने पूछा ,’ बेटा हमने तो आपको डाँटा नहीं फिर आप क्यों रोए ?’ तो उसने रोते-रोते कहा ,’पापा की याद आ गई । मेरे ये कहने पर कि आपके पापा छुट्टी मिलते ही आपके पास आ जायेंगे, हाँ वादा करो कि फ़ौजी पापा का बहादुर बेटा कभी रोएगा नहीं , ठीक । उसनें कहा ,’मेरे पापा नहीं आ सकते वे करगिल में शहीद हो गए । मैं बहादुर बेटा हूँ पर क्या करूँ याद आती है तो रोना आ जाता है क्योंकि मेरी मम्मी भी तीन साल पहले भगवान के घर चली गईं –बस दादाजी हैं गाँव में । ’ उस मासूम से बच्चे के सच नें मुझे झकझोर कर जीवन के यथार्थ को समझाया ।
अपने कार्यकाल में मैनें करगिल-विजय के लिए शहीद हुए राजपूताना राईफ़्लज़ के परिवारों का दर्द बहुत नज़दीक से देखा और उनके जीवन – मरण के बीच ठहरे समय की बेचैनी बढ़ाती आहटों को अपनी तेज़ होती धड़कनों के बीच सुना है , दिल से अनुभव किया है । कहीं गरदन को छू कर निकली गोली की सिहरन , कहीं शूल सी बेधती ठंड और भूख की परवाह किए बिना शत्रु को लोहे के चने चबवाने वाले सपूतों ,भाईयों ,पतियों और पिताओं के अदम्य शौर्य को , राष्ट्र- हित में दिए गये सर्वोच्च बलिदान को - दबी–दबी सिसकियों , धुंधलाई आँखों , भीगे मन को सबसे छुपा कर - गौरव और स्वाभिमान से दमकते मुख-मंडल लिए जिन परिवार- जनों नें श्रद्धाँजलि दी थी। भारत माँ के इन वीर सपूतों और उनके बिना अकेले रह गए परिवार जनों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र २६ जुलाई को अवश्य याद करेगा क्योंकि मैं जानती हूँ कि हमें इसके लिए किसी ‘सत्ताधारी’ की सलाह या आज्ञा की ना तो आवश्यक्ता है ना ही आपेक्षा । करगिल ,द्रास , टाईगर–हिल की ऊँचाईयों पर पड़ने वाले शत्रुओं के नापाक क़दमों को पीछे खदेड़ कर तिरंगा फहराने वाले वीरों की कुरबानी को किसी भी तरह के विवाद में घसीटना मेरी दृष्टि में अनुचित और भावनात्मक दीवालिए-पन का प्रतीक है। २६ जुलाई का पावन दिन समर्पित है राष्ट्र–भक्त वीरों को । यह शहीदों का सम्मान- दिवस है ,करगिल – विजय – दिवस है ,इसलिए इस दिन अपनी श्रद्धाँजलि अर्पित कर राष्ट्र अपनी कृतज्ञता का परिचय देगा और जो देशवासी इससे अपने को अलग रख चुप हैं उनको मैं राष्ट्रकवि दिनकर की इन पँक्तियों की याद दिलाना चाहूँगी – “समर क्षेत्र है,नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र, जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी इतिहास ” ।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

स्वर्ण जी ,आपने ठीक कहा ।हमारे राजनेता दर्द नहीं समझेगे ।असलियत में उ न्के अपने घर से तो फौज में कोई नहीं है ।
मारुति , आसाम