माँ तेरी बातों का सच समझ पाये हम बहुत देर में !
ख़ुद को होशियार मानते रहे बैठ किताबों के ढेर में !!
सहलाते हैं आज भी मुझको असीसों भरे वे हाथ लरज़ते !
ना आने के उलाहने सुनने को अब रहेंगे ये कान तरसते !!
घर के छज्जे पर, देर तक 'माँ' खड़ी रहीं थीं हाथ हिलाती हुईं !
उन पलों को अब ढूढ़ती हैं हमारी आँखें झिलमिलाती हुईं !!
माँ के बिना, ठहरे-सहमे से बोझिल दिन; महीने बन बीत गये हैं !
बाहरी शोर से नही, हम भीतर के दमघोंटू सन्नाटों से छीज रहे हैं !!
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