इन दिनों विकृत मानसिकता का जैसा नंगा नाच अपने देश में दिखाई दे रहा है वो हर उस भारतीय को पीड़ा से भर जाता है जो देश पर , भारतीयता पर अभिमान करते हैं । आज हमें धर्मवीर भारती जी की कनुप्रिया की बहुत याद आई ----कॉलिज के दिनों में ; भारती जी के अँधायुग को पढ़ने के बाद ---- जब कनुप्रिया पढ़ी -----तब -----उस समय हमें भी कनुप्रिया का असमंजस अपनी दुविधा सा लगा था ----- वो असमंजस बदलते जीवन मूल्यों से उभरा था जिससे हर नई पीढ़ी हर युग में गुज़रती है। .......
"कर्म ,स्वधर्म,निर्णय ,दायित्व ....... मैनें भी गली-गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने चाहे इन में कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय । "
पर आजकल के रोज़ ----कानों में पिघले गर्म सीसे से पड़ते समाचार --- ये मूल्यों के बदलाव की नहीं मूल्यहीनता का निर्लज्ज डंका पीटते हैं ।
भारती जी की वाणी जैसे आज की हर भावुकता भरी "राधा" को सावधान करती हैं ……
" घाट से आते हुए कदम्ब के नीचे खड़े कनु को,
ध्यानमग्न देवता समझ ,प्रणाम करने
जिस राह से तू लौटती थी बावरी-- आज उस राह से न लौट ।
आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो बावरी !
लताकुंज कि ओट छिपा ले अपने आहत प्यार को
आज इस गाँव से द्वारका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुज़र रही हैं
मान लिया कि कनु तेरा सर्वाधिक अपना है
मान लिया कि ये अगणित सैनिक एक-एक उसके हैं :
पर जान रख कि ये तुझे बिल्कुल नहीं जानते
पथ से हट जा बावरी !
और यह पथ के किनारे खड़ा छायादार पावन अशोक-वृक्ष
आज खंड -खंड हो जाएगा तो क्या - - - -
यदि ग्रामवासी ,सेनाओं के स्वागत में तोरण नहीं सजाते
तो क्या सारा ग्राम नहीं उजाड़ दिया जाएगा ? "
समझ नहीं आ रहा कि उत्तर किससे पूछें ?? क्योंकि कृष्ण के उस युग में ,मूल्यों के संक्रान्ति काल में---
महाभारत के समय के दूसरे छोर पर खड़ी कनुप्रिया नें कहा
" आज उस समुद्र को मैनें स्वप्न में देखा कनु !
विष भरे फेन ,निर्जीव सूर्य ,निष्फल सीपियाँ ,निर्जीव मछलियाँ
-लहरें नियंत्रणहीन होती जा रही हैं
और तुम बाँह उठा-उठा कर कुछ कहे जा रहे हो
पर-- तुम्हारी कोई नहीं सुनता ,कोई नहीं सुनता । "
ये सब लिखते -लिखते मुझे एहसास हो रहा है कि हमें अपने भीतर कि "राधा" को जगाना है..... राधा अर्थात ' ' ' 'चित्त की आह्लादकारी शक्ति ' को जीवन्त रखना है वरना -------
, शब्द , शब्द ,शब्द .... राधा के बिना
सब रक्त के प्यासे ,अर्थहीन शब्द !!
"कर्म ,स्वधर्म,निर्णय ,दायित्व ....... मैनें भी गली-गली सुने हैं ये शब्द
अर्जुन ने चाहे इन में कुछ भी पाया हो
मैं इन्हें सुनकर कुछ भी नहीं पाती प्रिय । "
पर आजकल के रोज़ ----कानों में पिघले गर्म सीसे से पड़ते समाचार --- ये मूल्यों के बदलाव की नहीं मूल्यहीनता का निर्लज्ज डंका पीटते हैं ।
भारती जी की वाणी जैसे आज की हर भावुकता भरी "राधा" को सावधान करती हैं ……
" घाट से आते हुए कदम्ब के नीचे खड़े कनु को,
ध्यानमग्न देवता समझ ,प्रणाम करने
जिस राह से तू लौटती थी बावरी-- आज उस राह से न लौट ।
आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो बावरी !
लताकुंज कि ओट छिपा ले अपने आहत प्यार को
आज इस गाँव से द्वारका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुज़र रही हैं
मान लिया कि कनु तेरा सर्वाधिक अपना है
मान लिया कि ये अगणित सैनिक एक-एक उसके हैं :
पर जान रख कि ये तुझे बिल्कुल नहीं जानते
पथ से हट जा बावरी !
और यह पथ के किनारे खड़ा छायादार पावन अशोक-वृक्ष
आज खंड -खंड हो जाएगा तो क्या - - - -
यदि ग्रामवासी ,सेनाओं के स्वागत में तोरण नहीं सजाते
तो क्या सारा ग्राम नहीं उजाड़ दिया जाएगा ? "
समझ नहीं आ रहा कि उत्तर किससे पूछें ?? क्योंकि कृष्ण के उस युग में ,मूल्यों के संक्रान्ति काल में---
महाभारत के समय के दूसरे छोर पर खड़ी कनुप्रिया नें कहा
" आज उस समुद्र को मैनें स्वप्न में देखा कनु !
विष भरे फेन ,निर्जीव सूर्य ,निष्फल सीपियाँ ,निर्जीव मछलियाँ
-लहरें नियंत्रणहीन होती जा रही हैं
और तुम बाँह उठा-उठा कर कुछ कहे जा रहे हो
पर-- तुम्हारी कोई नहीं सुनता ,कोई नहीं सुनता । "
ये सब लिखते -लिखते मुझे एहसास हो रहा है कि हमें अपने भीतर कि "राधा" को जगाना है..... राधा अर्थात ' ' ' 'चित्त की आह्लादकारी शक्ति ' को जीवन्त रखना है वरना -------
, शब्द , शब्द ,शब्द .... राधा के बिना
सब रक्त के प्यासे ,अर्थहीन शब्द !!
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