बचपन के उन बेपरवाह गलियों से जब भी मन लौट कर आता है ,
खुशियों की गहमा-गहमी से रोआँ-रोआँ सराबोर होकर मुस्कराता है ।
माँ के हाथों बनी मिठाईयों की भीनी-भीनी महकती ऐसी सौग़ात लाता है ,
अँगीठी की मिट्टीवाली सौंधी आँच से जो हर सर्द पड़ती सोच को गर्माता है ।
आज की समझदार आँखों में बचपन का वो मासूम दौर हँसी बिखराता है ,
हैरत जब ये थी कि हमारे जन्मदिन पर मुँहअँधेरे ही उपहार कौन सजाता है।
जानते हैं कि जन्मदिन माँ का दुनिया का हर बच्चा जोशोख़रोश से मनाता है,
पर ममता की छाँह में पनपता बचपन
माँ के बड़प्पन से ही पहचान जोड़ पाता है ।
माँ !पहला शब्द जो होंठों पे बेसाख़्ता आ जाता है , ख़ुदग़र्ज़ दुनिया में वही तो प्यार का पहला नाता है ,
माँ भी कभी बच्ची थी मन कहाँ ये समझ पाता है,जन्मदिन उनका इस सवाल कोऔर भी उलझाता है।
और-- जब तक ज़हन बचपन की इस बेतरतीब सी उलझी गिरह को खोलने की सलाहियत को पाता है ,
तब तक अक़्लमन्दों में 'बचपने ' को हिक़ारत के मानीं से जुड़ा जान, वो खामोशी को ही अपनाता है।
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खुशियों की गहमा-गहमी से रोआँ-रोआँ सराबोर होकर मुस्कराता है ।
माँ के हाथों बनी मिठाईयों की भीनी-भीनी महकती ऐसी सौग़ात लाता है ,
अँगीठी की मिट्टीवाली सौंधी आँच से जो हर सर्द पड़ती सोच को गर्माता है ।
आज की समझदार आँखों में बचपन का वो मासूम दौर हँसी बिखराता है ,
हैरत जब ये थी कि हमारे जन्मदिन पर मुँहअँधेरे ही उपहार कौन सजाता है।
जानते हैं कि जन्मदिन माँ का दुनिया का हर बच्चा जोशोख़रोश से मनाता है,
पर ममता की छाँह में पनपता बचपन
माँ के बड़प्पन से ही पहचान जोड़ पाता है ।
माँ !पहला शब्द जो होंठों पे बेसाख़्ता आ जाता है , ख़ुदग़र्ज़ दुनिया में वही तो प्यार का पहला नाता है ,
माँ भी कभी बच्ची थी मन कहाँ ये समझ पाता है,जन्मदिन उनका इस सवाल कोऔर भी उलझाता है।
और-- जब तक ज़हन बचपन की इस बेतरतीब सी उलझी गिरह को खोलने की सलाहियत को पाता है ,
तब तक अक़्लमन्दों में 'बचपने ' को हिक़ारत के मानीं से जुड़ा जान, वो खामोशी को ही अपनाता है।
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