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बुधवार, 4 दिसंबर 2019

घुमंतू क़दम : हम्पी

हमारी घुमंतू इच्छाओं नें हर बार पैरों को नई गति प्रदान की है। नई राहों की ओर बढ़ाए हर क़दम के साथ हमें अपने कई अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर मिले तो साथ ही नए प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए नए लक्ष्यों की ओर बढ़ने की प्रेरणा भी मिली है। मगर कुछ जगह ऐसी होती हैं जहां पहुंच कर उससे जुड़े सत्य को जितना भी अधिक जानने की कोशिश करें कुछ ना कुछ ऐसा बचा रह जाता है कि वहां बार-बार जाने पर भी मन नहीं भरता!! ऐसा प्रतीत होता है कि वहां हर बार कोई नया चमत्कृत करने वाला सत्य प्रतीक्षा कर रहा है! मेरे लिए ऐसा हीअद्भुत औरअनिर्वचनीय एक स्थान है- कर्नाटक का हम्पी। 

पिछले वर्षनवंबर २०१८ में,जब हमने हम्पी जाने का कार्यक्रम बनाया तब निर्धारित किया गया कि पहले तिरुपति जी के दर्शन किए जाएं। हम सपरिवार दिल्ली से हवाई यात्रा द्वारा चेन्नई पहुंचे। विमान प्रातः 8:25 पर दिल्ली से चलकर प्रातः11बजकर 20 मिनट पर चेन्नई पहुंच गया। वहां तिरुपति जी के दर्शन के बाद हम वापस चेन्नई रेलवे स्टेशन पहुंचे। 
वहां से हम्पी पहुंचने के लिए हमें पहले हॉस्पेट पहुंचना था। वहां जाने के लिए हम रात्रि 9:00 बजे चलने वाली रेलगाड़ी हरिप्रिया एक्सप्रेस में सवार हुए। गाड़ी में रात का सफ़र हमेशा ही हमें इसलिए बहुत सुखद लगता है कि रात को किसी एक स्थान पर रेलगाड़ी पर चढ़ो और जागकर अपने लक्ष्य तक पहुंच जाओ।तिरुपति जी के दर्शन के बाद रेलगाड़ी में अपने निर्धारित स्थान पर बैठने के बाद हम सब सोने की तैयारी कर
अपने-अपने स्थान पर लेट गए। धीरे-धीरे रेल के डिब्बे में सन्नाटा पांव पसारने लगा। रेल गाड़ी के पहियों की आवाज़ की ताल में ताल मिलाते हुए मेरी कल्पना-यात्रा जाने कब,मुझे वहां समय के उस छोर पर ले गई जहां बचपन में तुलसीदास जी की रामचरितमानस का पाठ करते हुए हमने जान-बूझकर इन पंक्तियों को दोबारा ज़ोर से अपने पिताजी को सुनाते हुए पढ़ा था - - - - 
"आगे चले बहुरि रघुराया ऋष्यमूक पर्वत नियराया। 
जब सुग्रीव भवन फिर आएराम प्रबरषन गिरी पर छाए।।" 
हमनें पिताजी को अपनी ओर देखते हुए प्रश्न किया था, ''तुलसीदास जी भी अंग्रेज़ी जानते थे। देखिए यहां उन्होंने लिखा है ऋष्यमूक पर्वत नियर 'आया!'' और तब मैंने जाना था हिंदी के प्राचीन रूप अवहट्ट से वर्तमान हिंदी तक यह शब्द हिंदी साहित्य में निकटता के अर्थ मे प्रयुक्त होता आया है। हिंदी साहित्य के आदिकाल के जैन,सिद्ध व चारण आदि की रचनाओं मेंसूफ़ी,संतो व भक्तों के पदों में यह शब्द बहुतायत से प्रयुक्त हुआ है। " मां आप सो गई क्या? " ऊपर की बर्थ से बेटे नें झाँक कर पूछा तो हमारी सोच की गाड़ी एक झटके से रुकी और हम अतीत से वर्तमान में आ गए। हमने 'नहींमें जवाब दिया तो उसने पूछा, " माँहम्पी आपकी मनपसंद जगह है ये तो हम सब जानते हैं ! आप शायद दूसरी बार वहां जा रही हैं और हमें आपकी वजह से उस जगह के लिए आकर्षण बना! पर पहली बार आपने वहां जाने की बात कब सोची?"हमनें हंसते हुए उत्तर दिया  " पहली बार हम्पी नहींकिष्किंधा जाने की इच्छा हुई थी।और यह इच्छा जगाई थी रामचरितमानस के किष्किंधा कांड के 'आगे चले बहुरि रघुराया ऋष्यमूक पर्वत नियराया जैसे राम,लक्ष्मणहनुमान,सुग्रीवबाली आदि से जुड़े कई संदर्भों नें !" सोने की तैयारी में लगे सभी सदस्यों के आग्रह पर हमने बताया कि श्री राम के युग वाली वानरों की नगरी किष्किंधा  का संबंध आज के नगर हम्पी से है। रात और रेलगाड़ी दोनों के आगे बढ़ने की रफ़्तार ने हम सबको याद दिलाया कि सुबह हॉस्पेट पहुंचकर होटल में सामान रख कर समय बर्बाद किए बिना हमें हम्पी घूमने जाना है इसलिए सब चुपचाप सो गए। रेलगाड़ी नें सुबह बजकर30 मिनट पर हमें बेल्लारी के हॉस्पेट रेलवे स्टेशन पर पहुंचा दिया। भरपूर नींद और हम्पी पहुंचने के रोमांच के कारण हम ताज़गी का अनुभव कर रहे थे। 
रेलवे स्टेशन से हम हम्पी के "विश्व धरोहर क्षेत्र " में बने हुए कर्नाटक राज्य पर्यटन विकास निगम के होटल मौर्या भुवनेश्वरी पहुंचे। वहां आकर लगा कि हम प्रकृति के शांत और सुंदर अंचल में पहुंच गए हैं। पुरानी शैली का मौर्या भुवनेश्वरी होटल। एक मंज़िले भवन के सजावटी पेड़ों और आकर्षक फूलों वाले पौधों से सजे सुंदर गलियारों से होते हुए ,वर्तमान सुविधाओं से सज्जित अपने कमरों में पहुंचने के अनुभव नें हम सबको आनंदित किया। 
हम सबने एक संकल्प लिया था कि पहले दिन से ही हम्पी देखने का काम शुरू करेंगे ताकि लगभग 36वर्ग किलोमीटर में फैले 1500 स्मारकों में से हम अधिक से अधिक को देख सकें। यह हमारा सौभाग्य था कि तुंगभद्रा नदी के तट पर स्थित जिस हम्पी (पंपा से निकला हुआ नाम) को सन् 1986 में यूनेस्को द्वारा "विश्व विरासत स्थलों" में शामिल किया गया हैउसे दिखाने के लिए हमारे मार्गदर्शक बने"श्री गंगाधर नायक जी"। वे एक समर्पित पुरातत्ववेत्ता हैं।
हम्पी के स्मारकों के भ्रमण से पहले गंगाधर नायक जी हमें पुरातत्वीय संग्रहालयकमलापुरा ले गए। संग्रहालय क्षेत्र में आने परसंग्रहालय भवन के भीतर जाने के पूरे मार्ग में विशालऔर मध्यम आकार के आश्चर्य -चकित करने वालेसुंदर नक्काशी से भरे पुराने स्तंभविभिन्न देवी-देवताओं,मनुष्यों व पशु-पक्षियों की खंडित और पूर्ण दोनों तरह की उत्खनन से प्राप्त मूर्तियां प्रदर्शित की गई हैं। संग्रहालय भवन के मुख्य द्वार पर विजयनगर के यशस्वी राजा "आंध्र भोज " कृष्णदेव राय एवं उनकी दोनों पत्नियों चिन्नादेवी व तिरुमालादेवी की आदमकद धातु प्रतिमाएं स्वागत कर रही थीं। इस पुरातात्विक संग्रहालय को चार भागों में बांटा गया है। पहले भाग में भीतर प्रवेश करने के बाद हमने सबसे पहले विजय नगर के एक विशाल अनुमापी प्रारूप (स्केलड मॉडल) को देखा। इस प्रारूप को दिखाते हुए गंगाधर जी ने हमें विजयनगर की भौगोलिक स्थिति और पूरी नगर योजनाकृषि को महत्व देने के कारण बनाई गई जल प्रणालियों की वैज्ञानिक तकनीक आदि के विषय में विस्तार से बताया। कृष्णा- तुंगभद्रा नदियोंग्रेनाइट की चट्टानों,पर्वतोंसोने की खानोंभवनोंपुलोंनगरों को इसमें इस तरह दर्शाया गया है कि समकालीन विदेशी पर्यटकों के दस्तावेज़ों के कारण हमारी कल्पना में बसा, '' अपने समय का संपूर्ण विश्व में रोम से भी अधिक समृद्ध और भव्य विजयनगर का हिंद महासागर तक फैला विशाल साम्राज्य आंखों के सामने साकार हो रहा था और हम भारत की इस अतुलनीय विरासत को देख कर अभिभूत हो रहे थे। हमारी इस बात को सुनने के बाद गंगाधर जी ने गर्व के साथ कहा,' हम कर्नाटक वालों को सिर्फ नमक ही बाहर से मंगवाना पड़ता था बाकी सब चीजें हमारी धरती हमें देती रही है!हमने उनकी बात का समर्थन किया कि एक लंबे समय तक पूरे भारत के लगभग सभी राज्यों के संदर्भ में आत्मनिर्भरता की यही बात सच थी। 
संग्रहालय के दूसरे विभाग में हंपी के भग्नावशेषों से प्राप्त भगवान शिव के भैरव
भिक्षाटन मूर्तिवीरभद्र आदि रूपों के साथ- साथ महिषासुरमर्दिनी गणेशकार्तिकेय आदि शिव पूजा से संबंधित प्रस्तर की सुंदर कलाकृतियां रखी गई हैं। 
तीसरे विभाग में विजयनगर साम्राज्य से संबंधित विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रसिक्केऔजार,उपकरण धातु की वस्तुएंबर्तन आदि का सुंदर संग्रह है। यहां विजय नगर से प्राप्त कई लिखित दस्तावेज़ भी हैं परंतु हमें सबसे अधिक चमत्कृत करने वाली   पुस्तक लगी ताम्रपत्रों की बनी वह पुस्तकें जिनको धातु के ही गोल छल्लो से एक साथ बांधा गया था। 
संग्रहालय के चौथे विभाग में विजयनगर साम्राज्य के प्रागैतिहासिक और आद्य ऐतिहासिक पुरावशेष ,दूसरी शताब्‍दी ईसवी के व्‍याख्‍यान करते भगवान बुद्ध चूनाप्रस्तरकी पट्टिकाएं बारहवीं शताब्‍दी ईसवी के उत्‍कृष्‍ट प्रस्‍तर पुरावशेषपार्श्‍वनाथ चैत्‍याला के जैन तीर्थंकरविजयनगर काल की ललित शैव तथा वैष्‍णव मूर्तियां प्रदर्शित हैं। इन सबके साथ-साथ यहां एक छोटा अनुमापी नमूना रखा गया है जिसमें हम्पी के राजकीय परिसर की विस्तारपूर्वक प्रतिकृति बनाई गई है। दीवारों पर उत्खनन के समय की वस्तु स्थिति के चित्र भी दर्शाए गए हैं। यहां रखे गए 'हीरो स्टोनयुद्ध में शहीद हुए वीरों के प्रति समाज के सम्मान को दर्शाते हैं। परंतु इस स्थान पर दक्षिण भारत के विषय में,आश्चर्यचकित करने वाली यह प्रमाणिक जानकारी भी मुझे यहीं आकर मिली कि विदेशी आक्रमणों के बाद उत्तर भारत के राजस्थान की तरह यहां भी "सती-प्रथा" नें अपनी जड़ें जमा ली थी। यहां रखे हुए "सती-प्रस्तर" (सती-स्टोन) इस बात की घोषणा करते हैं। बाद में वीरभद्र मंदिर के दीपस्तंभ और आसपास हमें लगभग पचास सती प्रस्तर देखने को मिले। 
पुरातात्विक संग्रहालय से विजय नगर के विषय में बहुत सारी प्रामाणिक जानकारियां मिलने के साथ ही यहां आने का एक बड़ा लाभ हमें यह हुआ कि दक्षिण भारत की  यात्रा में हंपी के दो दिनों के कार्यक्रमों को हमनें अपनी रूचि के अनुसार निश्चित कर लिया। 
पहले दिन हम राजकीय परिसर में पहुंचे। यहां प्रारंभ में ही रानियों का स्नानागार है। 
बाहर से यह एक वर्गाकार आकृति का विशाल भवन दिखाई देता है जिसमें समानांतर दूरी पर कुछ झरोखे दिखाई देते हैं।बाहर की दीवारों के ये ढके हुए झरोखे हवा के आवागमन के लिए बनाए गए हैं। रानी कुंड वर्गाकार सरोवर है । इसकी लंबाई और चौड़ाई 30 मीटर है। जिसमें15 मीटर लम्बाई - चौड़ाई एवं डेढ़ मीटर गहराई है। इस वर्गाकार कुंड के चारों तरफ़ सुंदर मेहराबों से सजे हुए बरामदे बने हुए हैं। इस में कुंड की ओर आगे को निकले हुए अत्यंत कलात्मक झरोखे बने हुए हैं ,कमल की बंद कलियों के सुंदर अलंकरण से झरोखों को आधार दिया गया है। बरामदे की छत्त पर सुंदर आकृतियों वाला अलंकरण दिखाई देता है। बरामदे से रानी कुंड में उतरने के लिए सीढ़ियां बनाई गई हैं। स्नानागार की छत के स्थान पर आज केवल खुला आकाश दिखाई देता है। परंतु कुंड के फर्श पर दिखाई देने वाली गर्तिकाएं (सॉकेट) इस सत्य का प्रमाण देते हैं कि यहां वो स्तंभ थे जिन पर वितान ताने जाते थे। जो आकाश और रानी-सरोवर में स्नान करने वाली राजकीय महिलाओं के बीच पर्दे का काम भली-भांति करते थे। ऐतिहासिक प्रमाण कहते हैं,आक्रमणकारी मुगलों ने इमारत में तोड़फोड़ के साथ उन स्तंभों को भी तोड़ दिया। पत्थरों पर उकेरी गई कलाकृतियों के साथ हमें इस कुंड से जल निकासी एवं जल भराव की व्यवस्था ने बहुत प्रभावित किया। हमें बताया गया कि कुंड में जल लाने वाली बड़ी नलिका में रेत डाला जाता है ताकि जल पूर्णतः शुद्ध होकर अंदर पहुंचे। स्नानागार में तुंगभद्रा से जोड़ी गई जल-प्रणालिकाओं द्वारा की गई सदैव निर्मल जल-प्राप्ति व जल-निकास की ऐसी कई व्यवस्थाएं विजय नगर के स्थापत्य कौशल का अनुपम प्रमाण हैं।
हम्पी की भीषण गर्मी मेंइस स्थान को ठंडा रखने के लिए अपनाई गई प्राचीन तकनीकों की प्रशंसा करते विदेशी पर्यटकों की चर्चा में हम भी शामिल हो गए। उनके मुंह से जल प्रणालियों की सच्ची प्रशंसा सुनकर हम अपने भारतीय होने के गौरव को अनुभव कर बहुत आनंदित हुए । 
यहां से हम राजकीय परिसर की ओर आगे बढ़े तो सामने दिखाई दिया विशिष्ट उत्सवों के आयोजनों के लिए राज परिसर में निर्मित भव्य मंच जिसे  "महानवमी दिब्बा " कहा जाता है।80 फ़ुट लंबे एवं चौड़े वर्गाकार इस मंच की ऊंचाई 22 फ़ुट है। राजा कृष्णदेव राय ने इसे उड़ीसा के गजपति शासकों पर विजय के स्मृति चिह्न के रुप में बनवाया था। इस पर चढ़ने के लिए सामनेपूर्व दिशा की ओर से सीढ़ियां बनी हुई हैं जिसके दोनों ओर हाथियों की श्रृंखलाघोड़े आदि विभिन्न कलाकृतियों से अलंकरण किया गया है। मंच के पिछले हिस्से में दस फ़ुट ऊंचा द्वार बना हुआ हैजिससे भीतर ही भीतर से इस मंच पर पहुंचा जा सकता है। संभवतःइस मार्ग का प्रयोग राजा के आगमन एवं कला उत्सवों के समय कलाकारों के मंच पर पहुंचने के लिए किया जाता था। इस मंच के तीन तल दिखाई देते हैं। इस भव्य मंच के निर्माण में जिन पत्थरों परविजयनगर का कलाकौशल यहां दिखाई देता है वो यहीं प्राप्त होने वाले हल्के काले 'कड़प्पा प्रस्तरपर ही उकेरा गया है। महानवमी दिब्बा के ऊंचे अधिष्ठान के ऊपर गजथर का निर्माण किया गया है। इसके बाद घोड़े आदि अन्य पशुओं के कारनामों को दिखाया गया है। पट्टिकाओं पर छोटे गवाक्षों में नृत्य की भिन्न-भिन्न मुद्राओं को दर्शाती सुंदरियों युद्धरत सैनिकों एवं हाथियों के करतबों को मंच की भित्तियों में स्थान दिया गया है। हिंदुओं के विभिन्न त्यौहारों का शिल्पांकन भी किया गया है। होली के पर्व के उल्लास को ढफ बजाते हुए एवं नृत्य करते लोगों की मुद्राओं से दर्शाया गया है। वास्तव में,इस महानवमी दिब्बा के मंच की प्रस्तर भित्तियों पर कुशलता पूर्वक उकेरी गई कलाकृतियांउस समय के संपूर्ण नगरीय जीवनराजकीय उत्सवोंचतुरंगिणी सेनाहाथीघोड़े,ऊंट एवं पैदल सेनाविदेशी राजनयिकों पुर्तगालअरबचीन व यूरोपीय देशों के व्यापारियोंविदेशी संबंधों और साम्राज्य की वाणिज्यिक गतिविधियां आदि  - - हमें एक ऐसी विशाल चित्र दीर्घा से प्रतीत हुई जिनसे विजयनगर साम्राज्य अपने राज्य और देशी-विदेशी जन-समुदाय को परिचित करवाना चाहते थे। इस विशाल मंच में हमें भारतीय संस्कृति की उत्सवधर्मिता के दर्शन भी हुए। देशी-विदेशी यात्रियों व राजनयिकों के लिखित दस्तावेज़ बताते हैं कि महानवमी (रामनवमी) पर यहां जिस भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया जाता था उसमें राज्य भर की समस्त प्रजा उपस्थित होकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अपनी भागीदारी निभाते हुएउत्सवों काआनंद लेती थी। कौतुक प्रदर्शन से लेकरगायन,वादन,नृत्य एवं प्रतियोगिताओं के प्रदर्शन को मंच के समक्ष बैठ कर देखने के लिए काफ़ी बड़ा मैदान है। दर्शकों के लिए पर्याप्त पेयजल उपलब्ध करवाने के लिए यहां भी एक पुष्करणी का निर्माण किया गया है वैसे आमतौर पर पुष्करणी मंदिर परिसर के साथ बनाने की परंपरा रही है । यह अष्टकोणीय पुष्करणी अत्यंत कलात्मक ढंग से बनाई गई है। इस पुष्करणी में ऊपर से नीचे की ओर आती सीढ़ियां छोटे-छोटे पिरामिडों के चित्ताकर्षक स्वरूप में है। कुल मिलाकर यह पुष्करणी अपनी  ज्योमित्तीय रूपरेखा के कारण महानवमी दिब्बा के इस पूरे स्थान को कलात्मक भव्यता प्रदान करती है। विजयनगर के अन्य स्थानों की तरह ही इस पुष्करणी के लिए जल तुंगभद्रा नदी से नहरों एवं प्रस्तर प्रणालिकाओं के माध्यम से योजनाबद्ध रुप से पहुंचाया जाता था। पुष्करणी में जल निकासी एवं भराव की समुचित व्यवस्था दिखाई देती है।
इस पुष्करणी से सामने की ओर आगे जाने पर हमें चौरीसी स्तंभों की इमारत दिखाई दी। जिसके स्तंभों के चिन्ह मात्र दिखाई देते हैं।  पूरा परिसर काल के गाल में समा गया है। आक्रांताओं की मार नें सब ढहा दिया है।
इसके बाद हम महिला परिसर की ओर बढ़े। जनाना अहाता या महिला परिसर में हमें
नीचे पत्थरों का चौड़ा निम्नतल दिखाई दिया। हमें बताया गया कि इसी आधार के ऊपर लकड़ी का सुंदर एवं कलात्मक महल था - रानी महल। आक्रमणकारियों ने इसे पूरी तरह जला दिया।भवन के चारों कोनों पर हमने पहरेदारी के लिए बनाई गई चार सुरक्षा -बुर्जों के अवशेष भी देखे जो इस परिसर की कड़ी सुरक्षा व्यवस्था की घोषणा करती हैं।  जनाना अहाता(महिला परिसर)चारों ओर से मजबूत दीवारों के घेरे के अन्दर है।यह ऐसी संरचना थी जो प्राचीन हम्पी के राजपरिवार की महिलाओं के लिए बनाई गई थी। इसके खंडहर एक मज़बूत भवन की छवि दर्शाते  हैं। इसके चारों ओर हिंदू देवी-देवताओं की मनोहरी मूर्तियों के साथ नक्काशीदार भव्य अंतरिक भवन और कलात्मक झरोखों वाला यह भवन यद्यपि आज उपयोग की स्थिति में नहीं है फिर भी यहां प्रकाश और छाया से अद्वितीय प्राकृतिक चित्र बनते हैं।सूर्य जल में प्रतिबिंबित होता हुआ,पत्थर के खंभों व छत पर प्रकाश-छाया की ऐसी रेखाएं खींचता है कि उनसे दर्शनीय रेखाचित्र निर्मित होते हैं । 
किसी भी राज्य का सबसे सुरक्षित-संरक्षित स्थल रनिवास हुआ करता था।विजयनगर साम्राज्य भी इसका अपवाद नहीं था।लगभग पचीस फ़ुट ऊंची पत्थरों की सुदृढ़ दीवारों से घिरे हुए महिला परिसर को किसी गढ़ के सदृश सुरक्षित बनाया गया था।इसकी सुरक्षा एवं आठों पहर निगरानी के लिए बनाए गए निगरानी मीनारों पर चढ़ कर दूर तक देखा जा सकता है। 
शाही स्नानागार से कुछ दूरी पर सैनिकों की बैरकें हुआ करती थी। यहां सैनिकों के लिए किसी स्थाई संरचना का निर्माण नहीं दिखाई देता।परन्तु उनके भोजन एवं जल की पूर्ण  व्यवस्था दिखाई देती है।तुंगभद्रा का जल प्रणालिकाओं के माध्यम से यहां भी पहुंचाया जाता था,जिससे सैनिक जल द्वारा अपना नित्य कार्य स्नानभोजन इत्यादि कर सकें। स्थान का निरीक्षण करने पर हमें ऐसा प्रतीत हुआ है कि सैनिकों के रहने के लिए तंबुओं आदि की अस्थाई व्यवस्था की जाती रही होगी। वर्तमान में भी सैनिकों के अस्थाई निवास के लिए तम्बुओं की व्यवस्था ही होती है। महिला परिसर काफ़ी बड़ा है। इसमें रानी महल एवं कमल महल अत्यंत प्रसिद्ध हैं।
कमल महल;यह एक आकर्षक भवन  है। कमल मंडप देखने पर सहज ही पता चल जाता है है कि वह रानियों के लिए प्राकृतिक रूप से वातानुकूलित और सुसज्जित बनाया गया भवन था। हम हर बार इसके सौंदर्य कोइसकी अत्याधुनिक तकनीक को और सुरुचिपूर्ण कलात्मकता निहारते हुए इसे बनाने वालों की कल्पनाशीलता और शिल्प को मुक्त भाव से सराहते और निहारते रह जाते हैं। 
कमल महल ज्यामितीय आकार में बना ऐसा दो मंज़िला भवन है जिसमें हमें सब ओर धूप और हवा के लिए कमल की पत्तियों की तरह के आकार ही दिखाई दिए। कमल महल को वास्तुकार ने ग्रीष्मकालीन भवन के रुप में निर्मित किया है। इसकी भित्तियों में चीनी मिट्टी( सिरेमिक) की नालियां बनाकर लगाई गई गई हैं।जिसमें 'दाबांतर-पद्धति'(साईफ़न)
से जल प्रवाह बनता और भवन ग्रीष्म-काल में भी शीतल रहता था। यह दुमंजिला भवन है। इसकी छत का निर्माण मेहराबों पर हुआ है। छत पर समान दूरी पर छोटे-छोटे छिद्र हैं। जिनको पानी की नलिकाओं से जोड़ा गया था। भवन के निर्माण में ईंटोंचूने एवं सुर्खी का प्रयोग किया गया है। पुष्प-वल्लरियों से
द्वारों परअंदर बने मेहराबों पर अलंकरण किया गया है।इन द्वारों की स्थिति ऐसी रखी गई है कि निरंतर वायु-प्रवाह बना रहे जिससे हम्पी के गर्म वातावरण में भी कमल महल ठंडा रह सके।इस भवन की छत भी कमल की पंखुड़ियों के आकार में निर्मित की गई है।कमल-महल की एक कलाकृति जिसनें मुझे आश्चर्यचकित किया वह है इसके द्वार शीर्ष पर 'कीर्तिमुखका अंकन। जितना मैं जानती हूंकीर्तिमुख के निर्माण का विधान केवल देवालयों में होता है मानव-भवनों में नहीं।मेरे विचार मेसंभव है-- इस भवन का उपयोग रनिवास में धार्मिक कर्म-कांडों व उत्सवों के लिए किया जाता रहा होगा!
आकर्षक कमल महल के समीप कोषागार स्थित है तथा पीछे हाथी-खाना'। हाथी खाने में राजकीय हाथी रखे जाते थे। हाथी खाने की इमारत भी बहुत भव्य है। यहाँ हाथी-खाने के प्रवेश-द्वार और गुंबद मेहराबदार बने हुए हैं। 
रनिवास से हम राजकीय आवासीय परिसर में पहुंचे।यहां हमनें भूमि पर पड़ी हुई दो बड़ी - बड़ी आयताकार आकृतियां देखीं। निकट जाने पर पता चला वे ग्रेनाइट के दो बड़े-बड़े द्वार हैं। इनमें प्रत्येक द्वार में जोड़ी खाने बनाए गए हैं। हमें यह देख कर सुखद आश्चर्य हुआ कि ये आकार ठीक वैसे ही हैं जैसे हम जैसे नौसिखिएघर का चित्र बनाते समय.... दरवाज़े और खिड़कियों को बचपन से लेकर आज तक बनाते आए हैं। इन द्वारों में प्रत्येक का वजन 10 टन है।सत्य यह है कि इन द्वारों की धुरीगर्तिकाएंजोड़ने और घुमाने वाली वाली चूलें-कब्ज़े आदि सभी इनके काम में प्रयुक्त होने की घोषणा करते हैं। हमें बताया गया यह द्वार महानवमी दिब्बा की ओर जाने वाले मुख्य द्वार का महत्वपूर्ण भाग था। हम सोच रहे थेकभी द्वार के ये दोनों पल्ले गौरव से सिर उठाए विजयनगर की सारी चहल- पहल के साक्षी बनते होंगे और आज चाहे भूमि पर पड़े हैं परंतु हैं - अखंडित! 
इस राजकीय परिसर में राज परिवार का निजी मंदिर "हजार राम मंदिर" विश्व भर के लिए मुख्य आकर्षण का केंद्र है। हजार राम मंदिर का निर्माण विजयनगर के शासक देवराय प्रथम ने पांचवी शताब्दी में करवाया था।मंदिर की दीवारों पर वाल्मीकि रामायण की पूरी कथा अंकित है। पत्थरों पर की गई  शिल्पकारी अद्वितीय है! मैं यह देखकर आश्चर्यचकित थी कि शिल्पकार की छेनी नें हर मूर्ति को अलग-अलग भाव-भंगिमाओं के साथ ऐसे उकेरा है कि पूरी राम कथा उनके माध्यम से ही जीवंत हो उठती है। भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर में विष्णु के अवतार श्री कृष्णभगवान बुद्ध आदि की भी मनोहारी मूर्तियों के भी दर्शन होते हैं। यहां पानी के स्रोत भी सुंदर कलाकृतियों के रूप में मंत्रमुग्ध करते हैं। 
इसकी दीवारों पर चित्रित भित्ति-चित्रों में राजकीय जुलूसउत्सवमहावतों के साथ हाथीघोड़ेसैन्य दलनृत्य करती महिलाओं के चित्र हैं। विदेशी यात्रियों के विवरणों में वर्णित महानवमी के त्योहार के सारे दृश्य यहां दिखाई देते हैं। गर्भ गृह की मूर्तियों के स्थान पर तीन खाली स्थान दिखाई देते हैं यहाँ की मूर्तियां गायब हो चुकी है पर निश्चित ही इस स्थान पर भगवान राम-लक्ष्मण-सीता जी की कलात्मक मूर्तियां रही होंगी। 
ज़नाना परिसर से आगे जाते हुए रास्ते में बड़ा सा प्रवेशद्वार दिखाई दिया -"भीम द्वार"। यह भी हम्पी नगर की चाहरदीवारी में एक द्वार है इस विशाल द्वार पर महाभारत से सम्बद्ध विभिन्न कथाओं को शिलाचित्रों के रूप में उकेरा गया है।इनमें भीम द्वारा  कीचक वधकेश संवारती द्रौपदीभीम को गंधमादन पर्वत से सौगंधिक पुष्प लाते हुए आदि दृश्यों को कलात्मक रूप से प्रस्तुत किया गया है। 
हमारे यात्रा के प्रबंधक ने आज के दिन का समापन माल्यवान पर्वत पर सूर्यास्त का मनोहारी दृश्य देखने पर किया था परंतु हमने इसे अगले दिन पर टालकर तुंगभद्रा बांध  जाने की इच्छा जताई। हम वहां के विशाल जल-विस्तार पर सूर्यास्त देखना चाहते थे और अपनी पोती को बांध निकट से दिखाना चाहते थे। साथ ही मैसूर में नृत्य करते रंग - बिरंगे फव्वारेउनके अलग-अलग आकार बनाती पानी की लहरों के साथ होने वाला प्रकाश उत्सव हम देख चुके हैं और यहां इस खूबसूरत दृश्य को बच्चों के साथ देखना चाहते थे। लगभग 40-50मिनट का कार से तय किया गया मार्ग सुंदर तो था ही इसने हमारी दिन भर चलते रहने से बनी पांव की थकान को भी काफी कम कर दिया। रास्ते भर दिखाई देने वाली "तुंगभद्रा" हमारी चर्चा का विषय रही। पौराणिक आख्यानों में तुंगभद्रा नदी पुण्य दायिनी है क्योंकि इसी के तट पर 'देवी सतीके देहत्याग के बादएक जन्म में देवी "पंपा" रूप में अवतरित हुईंउन के तपोपूत स्वरूप का वरण कर,महादेव शिव "पंपापति" के रूप में "विरुपाक्ष" बन कर चिरकाल से यहीं अवस्थित हैं भारतीयों के पांच पवित्र सरोवरों में से एक पंपा सरोवरयहीं स्थित है। पुराणोंरामायण  महाभारत आदि में वर्णन है कि इसके तटों परनिकट की कंदराओं में युगों से ऋषि- मुनियों का निवास रहा है। रामायण में वर्णित किष्किंधा इसी के तट पर है। इन पौराणिक संदर्भों के साथ-साथ तुंगभद्रा को गर्व है कि वर्तमान में महान साम्राज्य विजयनगर भी  उसकी ही गोद में पला। 
और - - - - आज  तुंगभद्रा के विस्तार का पंपा की पावनता का दर्शन निकटता से करने  सौभाग्य हमारा है। तुंगभद्रा बांध के क्षेत्र में पहुंचकर हम बैकुंठ गेस्टहॉउस की ओर बढ़े परंतु हमारी नीयत वहां जाने की नहीं थी।हम उसके सामने के सुंदर उद्यान से होते हुएसब से ऊंचाई पर बने प्रकाश स्तंभ (लाइटहॉउस) तक पहुंच गए। हम इस स्थान तक इसलिए जल्दी पहुंचना चाहते थे ताकि आसानी से बैठकर तुंगभद्रा बांध के सामने फैली अनंत जल राशि पर सूर्यास्त के दृश्य के साक्षी बन सकें। प्रकाश स्तंभ के नजदीक जैसे गोल घेरे से नीचे झांकने पर हमें तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे हम ऊंचाई पर किसी  खुले से विमान में है! हमारी कल्पना की उड़ान रामायण कालीन पुष्पक विमान तक पहुंच गई थी!! नीचे पूरा हॉस्पेट हमें दिखाई दे रहा था। इस ऊंचाई पर तेज़ हवाओं के झोंकों के कारण वातावरण में ठंडक थी। प्रकाश स्तंभ की ओर पीठ करके हमने अपनी नज़रें बांध के सामने दूसरे छोर तक फैली असीम जलराशि पर वहां टिका दी जहां आकाश में फैले लालसिंदूरीपीले,केसरिया और सुनहरे रंग पानी में उतर कर ऐसे फैल गए थे कि जल और नभ का अंतर मिट गया। रंगो भरे उस आसमान में घर लौटते पंछियों की कतारें और इन सबके बीच पानी में धीरे- धीरे उतरता और उसी में घुलता सा सूरज। इस सारे दृश्य को देखते हुए समय कुछ इस तरह ठहर गया था हम समझ भी नहीं पाए,और सूरज छन्न से लहरों में समा गया। सांझ का धुंधलका फैलता उससे पहले ही बांध का उसके द्वारों से ऊंचाई से गिरता पानी रंग-बिरंगी रोशनी में नहा गया। गहराते अंधेरे के साथ पानी पर इन इंद्रधनुषों का रंग भी गहरा हो रहा था। थोड़ा समय ही बीता कि नीचे संगीत की ताल पर फव्वारों से उठती रंग बिरंगी लहरों का नृत्य प्रारंभ हो गया। गीतों की लय- ताल पर रंग बिरंगी पानी की लहरें कभी ऊंचाइयों की ओर बढ़ती और कभी सुंदर फूलों के आकार बनाती।धरती पर सब ओर हमें रंगभरी लहरों का उल्लास भरा नृत्य दिखाई दे रहा था। गगन भी कृष्ण पक्ष के चतुर्थी के चांद व तारों के समूह के साथ रुपहली चांदनी बरसा रहा था। एक अनोखा तिलस्म सब ओर फैला हुआ था। वापस लौटने की मजबूरी ना होती तो हम सब वहां ना जाने कब तक ऐसे ही मगन भाव से बैठे रहते। बेमन से इस स्वर्गिक दृश्य को छोड़कर जाने के लिए खड़े हुए तो नज़र प्रकाशस्तंभ पर पड़ी। हमारे लिए सुखद आश्चर्य था---- हिंदी को समर्पित, 'केंद्रीय हिंदी संस्थानके संस्थापक "मोटुरी सत्यनारायण जी" के आंध्र प्रदेश मेंप्रकाश स्तंभ पर देवनागरी लिपि में बड़े अक्षरों में लिखा है -" पंपा दर्शन "! 
होटल वापस लौट कर आज के दिन इस किष्किंधा नगरी से बटोरे हुए सारे अनमोल खज़ानों को हमनें अपनी डायरी के पन्नों में सहेज  लिया। 
दूसरे दिन की यात्रा का शुभारंभ हमने हंपी का प्रतीक चिन्ह माने जाने वाले विट्ठल मंदिर से शुरू की। गोपुरम से सजे हुए तीन भव्य मुख्य द्वारों वाला विट्ठल मंदिर विजयनगर की स्थापत्य कला की अद्वितीय धरोहर है! 
प्रवेश द्वार पर अत्यंत कलात्मक गोपुरम् है जिस का निचला भाग पत्थरों और ऊपर का ईंटों से बना है से बना है।देवी देवताओं की कलात्मक मूर्तियों से सजा गोपुरम दर्शनीय है। इस द्वार को पार करने के बाद विट्ठल मंदिर के विशाल प्रांगण में मुख्य मंदिर के ठीक सामने हम्पी का प्रतीक और पहचान बन चुका प्रस्तर का वह विशाल रथ है जिसे भारतसरकार नें पचास रुपए पर अंकित करइसकी विशिष्टता को सम्मानित किया है।इसे 'गरुड़ मंडपम्'कहा जाता है।इसका स्थापत्यमूर्तिकला और वास्तुकला  अप्रतिम हैं। इसके हरेक भाग को खोलकर कहीं भी ले जाया जा सकता है। इस रथ के ऊपर बने स्तंभों को बजाने पर उसमें से संगीत निकलता है।पत्थरों के पहिए वाला यह शिला-रथ उत्सवों को प्रारंभ करते समय सर्वप्रथम इसे ही विजयनगर की चौड़ी साफ-सुथरी सड़कों पर चलाया जाता था। 
रथ के पीछे  खंडित गरुड़ स्तंभ दिखाई देता है। इसके बाद अष्ट-दिग्गजों से सजी ऊंचे आधार पर स्थित वर्गाकार बलिपीठ है और उसके सामने वैष्णव चिन्हों से सजा सुंदर तुलसी वृंदावन है। 
इस परिसर में कल्याण मंडपसभा मंडपभजन मंडप भी हैं। तुलसी वृंदावन के दाहिनी ओर कर्नाटक संगीत के " संगीत-  पितामह " (पेटी दादा) कहे जाने वाले गायकसंगीतज्ञ)और संगीत की शैक्षणिक परंपरा के संस्थापक महान "संत पुरंदर दास" जी का 'पुरंदर मंडपहै।यही वो जगह है जहां भगवान विष्णु की प्रशंसा  में उन्होंने  हज़ारों गीत गाए थे। यहां से नीचे उतर कर तुंगभद्रा के किनारे हमने" संत पुरंदर" का वह शांत मंडप भी देखा जहां नदी तटपर बैठ कर वे एकांत में गीत रचना करते हुए प्रभु भक्ति में लीन रहते थे। 
विट्ठल मंदिर के परिसर में विश्वविख्यात 56 स्तंभों वाला रंग मंडप है। इन सभी समान आकार मोटाई वाले स्तंभों से संगीत के सातों सुर और वीणाघटम्,जलतरंगघंटी मृदंग डमरु आदि वाद्ययंत्रों की ध्वनियां सरगम के सातो सुरों के अनुसार निकलती हैं।जब सन् 2010 में हम स्थान पर आए थे तब हमने इन स्तंभों से निकलते संगीत के स्वरों का आनंद लिया था। वह एक अभूतपूर्व विस्मयकारी अनुभव था! अब इनके संरक्षण की दृष्टि से ऐसा संभव नहीं है क्योंकि चंदन की लकड़ी से बजाए जाने वाले इन स्तंभों परलोगों ने चाबीअन्य धातुओं और पत्थरों तक का प्रयोग करना शुरू कर दिया था। ऐसी ही जिज्ञासा के शमन के लिए सन्1930 में अंग्रेजों द्वारा काटे गए दो स्तंभ आज भी अपनी कहानी खुद कहते हैं। उन्होंने खंभों को काटकर अंदर खोजने की कोशिश की थी कि इन स्तंभों के अंदर क्या है जिससे संगीत पैदा होता है! परिणाम कुछ नहीं निकला इस विरासत को नष्ट करने में उनकी साझेदारी अवश्य हो गई! 
विट्ठल मंदिर परिसर में विभिन्न मंडपों की बाहरी दीवारों पर भी,भारतीय स्थापत्य कला और शिल्पकारों की उत्कृष्ट कल्पनाएं साकार होकर हमें रोमांचित कर रही थीं!बाहर स्तंभों पर बनी छोटी-छोटी सी दिखने वाली शिल्प- आकृतियां भी इस मंदिर में एक साथ कई दृश्य बनाती हैं। हमारे साथ यदि गंगाधर नायक जी नहीं होते तो हम इन्हें साधारण मानकर शायद यूं ही छोड़ देते। उदाहरण के लिए स्तंभ पर एक बड़े से मेंढक की आकृति को ही लें।साधारण रूप से वो एक बैठा हुआ मेढक दिखाई देता है.. परंतु अपने हाथ से उसके विभिन्न हिस्सों को ढकने पर - - - - कभी वो अपने नन्हें बच्चे को दूध पिलाती माँ बंदरियाकभी पेड़ पर चढ़ता बड़ा बंदरआपस में खेलते दो बड़े बंदर,कभी छलांग लगाता बच्चा बंदर और कभी फन फैलाए शेषनाग के तले शिवलिंग बन नागालिंगम् के रूप में दिखाई देता है।.... ऐसे कितने ही दृश्यों नें भारतीय शिल्पकारों की अप्रतिम कला के सम्मुख हमें नतमस्तक भी किया और गौरवान्वित भी। 
विजयनगर के स्थापत्य में वास्तु शास्त्र का पूरा ध्यान रखा गया।विट्ठल मंदिर के आग्नेय कोण में पाकशाला है।दक्षिण-पश्चिमी नैऋत्य कोण के धरातल को पानी की निकासी के लिए निचाई दी गई है। यहीं बाहर पुष्करणी का भी निर्माण किया गया है। 
विट्ठल मंदिर के समीप ही-"राजा की तुला " है ! यहां राजा को 'तुला दानके विशेष उत्सव में अनाज,सोने चांदीहीरे-जवाहरातों एवं मुद्राओं में तौला जाता था। राजा के भार के बराबर जो भी पदार्थ तुला में चढ़ते थे उन को गरीबों में वितरित किया जाता था। इस परिसर में हमें लगभग 2300 वर्ष पुरानी,दो स्तंभों के बीच,नीचे रखी अनेक समवर्त्ती वृतों वाली गोल समतल चट्टान दिखाई दी।जिस के सामने  मुग्दर के आकार वाला नुकीला उपकरण रखा था। इसे देखकर हमें वर्तमान समय की खराद/लेथ मशीन की याद आ गई । हमारी बात की पुष्टि वहां खड़े लोगों ने भी की। वास्तव में विजयनगर में ही नहीं भारत की प्राचीन स्थापत्य कला में ऐसे कई प्रमाण हैं जो प्राचीन काल से तकनीक के उन्नत प्रयोगों की पुष्टि करते हैं। यहां के रंग मंडप में बाहर की दीवारों पर समानांतर दूरी पर मिलने वाले एक ही आकार के गोल छिद्रोंकिनारों पर बने पत्थरों के कंगन से गोल आकार ,मूर्तियों पर बहुत बारीक अलंकरण आदि कई अद्वितीय शिल्पाकृतियों  नें भी हमें ऐसे ही चमत्कृत किया है!! उन सब का ज़िक्र फिर कभी - - - - । 
विजयनगर की राजधानी बनने से पहले भी तुंगभद्रा के किनारे कई मंदिर स्थापित थे। 
दूर-दूर फैली घाटी में बड़े-बड़े पत्थरों के साथ सोलह सौ से ज्यादा मंदिरोंमहलों और पुरानी इमारतों के अवशेष यहां मिलते हैं।
यहां सुव्यवस्थित हम्पी का बाज़ार है जिसमें दो मंज़िलें मंडपों को दो कतारें हैं।  विभिन्न वस्तुओं के लिए अलग-अलग बाज़ार आज के बाज़ारों से टक्कर लेते लगते हैं। रथों की दौड़ के उत्सव की चौड़ी सड़कें। हाथी घोड़े ऊंट आदि के लिए उचित व्यवस्था। सामूहिक भोज के लिए बनाई गई पत्थर की थालियांउन पर रखी गई कटोरियों के आकार,पत्थरों पर बने पर इन बर्तनों की सफाई के लिए नालियों की व्यवस्था आदि कितनी चीजें हैं! ----यहां आकर इतनी उच्चस्तरीय सामाजिक व्यवस्था के दर्शन होते हैं कि लगता है हमें अपने अतीत से बहुत कुछ सीखना है। 
हंपी की इस सुव्यवस्थित नगर व्यवस्था को देखने के बाद हम पौराणिक काल से स्कंद पुराणविष्णु पुराणरामायणमहाभारत और पुरालेखों में वर्णित माल्यवान पर्वत की ओर आगे बढ़े । यहां का पूरा भूदृश्य अद्भुत है। वास्तव में हम्पी का ग्रेनाइट भूभागविश्व के सर्वाधिक प्राचीन और स्थिर भूमि-तलों में से एक है। बड़ी-बड़ी चट्टानों और पर्वतों वाली यह भूमि धूसर गेरुआ और गुलाबी रंगों की ज्वालामुखी चट्टानों से निर्मित है। तुंगभद्रा की द्रोणी पर बसे इस नगर में प्रागैतिहासिक काल से लेकर वर्तमान तक के इतने अधिक पुरातात्विक साक्ष्य बिखरे हैं कि गहन शोध ही सत्य को उजागर करेगा। 
इसलिए मैं वापस लौटती हूं गुलाबी विशाल चट्टानों वाले पर्वत माल्यवान पर। माल्यवान वह पर्वत है जहां सीताजी की खोज में निकले श्रीराम हनुमानजी से मिलेजहां वानरों को मिले आकाश मार्ग से जाती सीता के आभूषणों को सुग्रीव ने राम को दिखाया था। भगवान राम ने लक्ष्मण के साथ चतुर्मास यही व्यतीत किया। बाली की मृत्यु के बाद श्रीराम ने लक्ष्मण के माध्यम से किष्किंधा के राजा के रूप में सुग्रीव का राज्यभिषेक करवाया।उन्होंने बाद  में सुग्रीव के आग्रह पर माल्यवान पर्वत के ही ऊंचाई वाले भाग प्रवर्षण(प्रस्रवण) पर्वत पर वर्षा काल बिताया । वानर सेना के सीता का पता लगाकर वापस आने एवं लंका के लिए प्रस्थान करने तक श्रीराम-लक्षमण यहीं रहे थे। 
माल्यवान पर्वत पर नीचे ही रघुनाथ मंदिर है। यहां पहुंचने पर बुजुर्ग पुजारी जी ने हमें  पहले अखंड वाल्मीकि रामायण पाठ में भाग लेने के लिए बाहर बिठाया,फिर अंदर गर्भगृह की मूर्तियां दिखाई। काले ग्रेनाइट पत्थर की बनी हुई मूर्तियां जिसमें हमनें श्रीराम को पहली बार परिचित रूप में नहीं भूमि स्पर्श योगमुद्रा में देखा। उनका बांया हाथ भूमि को छू रहा है और दूसरा नाभि स्थल को। सीता यहां कमलेश्वरी अर्थात लक्ष्मी रूप में हैं। उनके चार हाथ है।लक्ष्मण भी धनुष-बाण की जगह आशीर्वाद की मुद्रा में हैं।गर्भगृह एक ही शिला को काटकर बनाया गया है उसी शिला में हनुमान जी विनीत भाव से सीता की चूड़ामणि देते हुए अंकित किए गए हैं। इन मूर्तियों के पीछे एक शिला है जिसे स्फटिक शिला कहा जाता है। यह वही 'स्फटिक शिलाहै जिसका वर्णन वाल्मीकि रामायण और तुलसी की रामचरितमानस में मिलता है। हमें बताया गया कि प्राचीन मंदिर में सिर्फ़ रामहनुमान और लक्ष्मण थे। सीताजी को बाद में प्रतिष्ठित किया गया। प्राचीन एकाशम शिला मंदिर को उसके प्राचीन रूप में ही संरक्षित रखते हुएउस पर पर विशाल माल्यवान रघुनाथ मंदिर का निर्माण 650 ईसवी के आसपास नरसिंह वर्मन प्रथम ने करवाया। इस मंदिर के बाहर लक्ष्मण कूप है। लक्ष्मण के तीर से निकले हुए पानी के स्रोत को संरक्षित किया गया है। 
गुलाबी शिलाखंडों पर ऊपर की ओर जाने पर,प्रवर्षण पर्वत की एक प्राकृतिक कंदरा में भगवान शिवजी का मंदिर है जिस पर बाद में छोटा सा मंदिर परिसर बना दिया गया है। मान्यता है कि श्रीराम जब यहां चार महीने के लिए ठहरे हुए थे तो शंकर जी की पूजा करने के लिए उन्होंने यहां शिवलिंग की स्थापना की थी।
इस मंदिर के सामने दाहिनी ओर की विशाल शैलों पर अनेक शिवलिंगऔर नंदी की मूर्तियों की दो कतारें हैं इनके बीच से पतली सी जलधार का मार्ग भी है। पैरों तले बिछे गुलाबी शिलाओं से बनें माल्यवान पर्वत के शिखर से हमें पूरा किष्किंधा दिखाई दे रहा था। सामने तीन पर्वत दिखाई दे रहे हैं। ऋष्यमूक पर्वत जिसके मूक ऋषियों के वर्णन नें हमारी किष्किंधा के प्रति जिज्ञासा जगाई। अंजनाद्री पर्वत  हनुमान का जन्म स्थान। अंजनाद्री की चोटी पर सफेद रंग का हनुमान जी का मंदिर इस के शिखर पर मुकुट सा दिखाई दे रहा था। मतंग पर्वत दुंदुभी राक्षस की रक्त के कारण बाली को मतंग ऋषि के श्राप की याद तो दिलाता ही है साथ ही ऋषि मतंग की शिष्या संत शबरी की प्रेममयी भक्ति की कथा से भी जोड़ता है। नीचे ऋष्यमूक पर्वत की परिक्रमा करती तुंगभद्रा का चक्रतीर्थ है। और थोड़ी ही दूरी पर पंपा सरोवर। जिसका वर्णन तुलसीदास जी अरण्यकांड में करते हैं। सीता को खोजते हुए राम पंपा सरोवर पहुंचते हैं पहुंचते हैं 'पुनि प्रभु गए सरोवर तीरा पंपा नाम सुभग गंभीरा । संत हृदय जस निर्मल पानी बांधे घाट मनोहर चारी।
माल्यवान पर्वत की चोटी से दक्षिण की ओर चलते हुए हम आगे बढ़ रहे थे। यहां हमने कई छोटे-बड़े दुमंजिलें और एकमंजिलें भवनों के भग्नावशेषों को देखा-- सुरक्षा  हेतु बने बुर्ज और मीनारेंटूटा हुआ दीपस्तंभ भी दिखाई दिया--ये सब हेमकूट पर्वत पर एक सुव्यवस्थित नगर की उपस्थिति की घोषणा कर रहे थे।यहां से हम हेमकूट पहाड़ी की ढलान पर आगे बढ़ते गए। हेमकूट की पहाड़ियों पर  एक ही शैलखंड निर्मित वे विशाल मूर्तियां हैं जिन महापाषाण (मेगालिथिक) मूर्तियों के लिए हम्पी आज विश्व प्रसिद्ध है। इस श्रृंखला का प्रारंभ हमने " बड़वालिंग " से किया।  'बड़वागांव के लोगों को कहते थे। कहा जाता है कि इसे किसान महिला ने बनाया था इसलिए इसे बडवा लिंग कहा गया। इस शिवलिंग में ध्यान से देखने पर तीन नेत्र दिखाई देते हैं। शिवलिंग पर पानी टपकता रहता है। इस 12फुट ऊंचे शिवलिंग के आसपास हमेशा पानी भरा रहता है। 
"बड़वालिंग" से दक्षिण की ओर थोड़ी ही दूरी पर "लक्ष्मी-उग्रनरसिंह"  की 22 फुट ऊंची विशाल प्रतिमा है। शेषनाग के आसन पर योग मुद्रा में बैठे नृसिंह के गले मेंलक्ष्मी जी का केवल हाथ दिखाई देता है शेष मूर्ति आक्रमणकारियों द्वारा तोड़ दी गई थी जो अब कमलापुरम् के संग्रहालय में है। 
हेमकूट पर्वतों के मंदिरों की श्रृंखला की प्रसिद्ध "ससीवेकालू गणेश" की लगभग आठ फुट ऊँची भव्य प्रतिमा मुख्य मंडप में स्थापित है। सामने से देखने परपेट पर सर्प लपेटे चार भुजाधारी गणपति जी की मूर्ति दिखाई देती है। परंतु प्रतिमा के पीछे आने पर अपने पुत्र को गोद में बिठाएगणेश से थोड़े छोटे आकार कीमाँ पार्वती स्पष्ट दिखाई देती हैं। इस विशाल मूर्ति से उत्तर की ओर बढ़ने पर हेमकूट की ढलान पर विशाल "कदलेकेलु गणेश" की 15 फुट ऊंची मूर्ति के दर्शन हुए यह भी स्तंभों वाले मंडप में स्थापित हैं। 
यहां से दक्षिण की ओर आगे बढ़ने पर हमारे सामने था सातवीं शताब्दी का चमत्कारों भरा भव्य " विरुपाक्ष मंदिर" । यहां एक भूमिगत शिवलिंग है जो हमेशा जल मग्न रहता है। उसका संबंध यहां के स्थानीय निवासी रावण से जुड़ी उस कथा से जोड़ते हैं जिसमें शिव भक्त रावण द्वारा कैलाश से लाए हुए पावन शिवलिंग को धरती पर ना रखने के संकल्प को तोड़ने के कारण शिवलिंग यही स्थापित हो गया। कहा जाता है प्राचीन काल में यहां छोटा सा गुफ़ा मंदिर था। क्रमशः उसी पर बाद में बड़े मंदिर और मूर्तियों का निर्माण होता गया। 
प्राप्त अभिलेखों से यह प्रमाणित होता है कि विक्रमादित्य द्वितीय की पत्नी 'लोकमहादेवीने विक्रमादित्य द्वितीय की कांचीपुरम के पल्लव राजा पर तीन बार विजय के सम्मान में,745 ई. में विशाल शिव मंदिर (विरुपक्ष महादेव मंदिर) का निर्माण करवाया थाजो अब 'विरुपाक्ष महादेव मंदिरके नाम से प्रसिद्ध है।
विरुपाक्ष मंदिर के प्रवेश द्वार का गोपुरम हेमकूट पहाड़ियों व आसपास की अन्य पहाड़ियों पर रखी विशाल चट्टानों से घिरा है और चट्टानों का संतुलन हैरान कर देने वाला है। 1509 में अपने अभिषेक के समय कृष्णदेव राय ने यहाँ के गोपुरम् का निर्माण करवाया था। नौं स्तरों और 50 मीटर ऊंचे गोपुरम वाला यह अद्वितीय मंदिर है। हमें गंगाधर जी नें इस गोपुरम के भीतर संकरी सीढ़ियों से पहुंचाया।गोपुरम में पहुंचकर हमें विरुपाक्ष मंदिर के आसपास का विहंगम दृश्य दिखाई दिया। अंदर के बड़े से विशाल कक्षगुंबदनुमा छत और दोनों तरफ के खुले गवाक्षों से आती हवा इस जगह को बाहर की अपेक्षा ठंडा बनाई हुई थी।अंदर की दीवारों पर दो गवाक्षों मेंशिला पर उकेरी गई  शिव परिवार की धुंधलाई सी मूर्तियां नज़र आईं। यहां गोपुरम में भीतर ऊँची गहरी छत के नीचे आंखें बंद करने पर हमें जिस अप्रतिम आनंद की अनुभूति हुई उस का वर्णन शब्दों में नहीं हो सकता। 
गोपुरम से प्रवेश करने पर विशाल प्रांगण हैइसके बांई तरफ़ मंदिर की हथिनी 'लक्ष्मी अपने स्थान थी जो अपनी सूंड भक्तों के सिर पर रखकर आशीर्वाद दे रही थी। उसके माथे पर कुमकुम लगा हुआ था।यहां से अंदर आने पर हमें नागलिंगम् वृक्ष(जिसे शिवलिंग पुष्पशिवकमल आदि कई नामों से पुकारा जाता है) दिखाई दिया। मंदिर परिसर में विशाल नंदी प्रतिमा और सामने शिवमंदिर का पवित्र दीप स्तंभ है। मंदिर में एक मुख्य मंडप (रंग मंड़पम्) है,विरुपाक्ष मंदिर में तीन कक्ष हैं और स्तम्भों वाला एक विशाल कक्ष है।  
मंदिर का वास्तुशिल्प अत्यंत जटिल एवं बहुस्तरीय संरचना है।मंदिर का अलंकरण शिल्पकृतियों से सजे स्तंभों और मूर्तियों से किया गया है। इसकी दीवारों पर ज्योमितीय आकारपौराणिक पशुओं के नक्काशीदार  चित्र और परंपरागत हिंदू कथाओं का चित्रण करती शिल्पाकृतियों का कलात्मक सौंदर्य विरुपाक्ष मंदिर के सौंदर्य को कई गुना बढ़ाता है।
अपनी ऐतिहासिकता का प्रमाण देने वाले विरुपाक्ष मंदिर से हम लोक मान्यता के पौराणिक विरुपाक्ष मंदिर की ओर चल पड़े। विरुपाक्ष मन्दिर के भूमिगत शिव मंदिर का यह हिस्सा पानी के अन्दर समाहित है इस कारण वहाँ जाना थोड़ा कठिन है परंतु बाहर के हिस्से के मुक़ाबले मन्दिर के इस भाग का तापमान बहुत कम है। लोगों ने बताया कि इस मंदिर में गहरी आस्था के कारण,पूजा के लिए यहाँ लोगो की भीड़ हमेशा ही रहती है। 
भूमिगत मंदिर से दर्शन कर आगे चल कर हम वहां पहुंचे जहां'विरुपाक्ष-मंदिरमें एक अंधेरा कक्ष है जिसकी दीवार पर मंदिर के कलश की पूरी छवि अपने भव्य सौंदर्य के साथ सुनहरी रंग की दिखाई देती है। यह छवि कैमरे के पिनहोल प्रभाव की तरह उल्टी दिखाई देती है। 
इस अंधेरे कक्ष में हमनें सहस्राब्दी पूर्व की भारतीय स्थापत्य कला के वैज्ञानिक पक्ष का आश्चर्यचकित करने वाला ऐसा चमत्कार देखा जो स्वयं अपनी आंखों से ना देखते तो शायद विश्वास भी ना होता। " पिन होल प्रभाव " की खोज को आधुनिक विश्व से जोड़ने वाले विद्वतजनों के लिए विरुपाक्ष मंदिर का यह अजूबा जीवन्त प्रमाण हैं। 
यहां सामने की दीवार पर(6x6") 6 इंच लंबा चौड़ा एक वर्गाकार झरोखा है।इस झरोखे से दोपहर2:00 बजे से शाम के 6:00 बजे तक सामने की दीवार पर 160 फीट ऊंचे शिखर की उल्टी छवि दिखाई देती है। छवि नहीं! प्रतिकृति कह सकते हैं,वह भी सुनहरी स्वर्णमंडित शिखर की कलात्मक प्रतिकृति !! 
उस कक्ष में खड़े पर्यटकों में से एक ने शंका जाहिर कर हंसते हुए हुए कहा, ' मंदिर की (प्रचार)पब्लिसिटी के लिए दीवार पर फ़्लोरोसेंट (प्रतिदीप्तक रंग) पेंट लगाया गया है हमें बुद्धू बनाने के लिए!" हमें उसके मज़ाक उड़ाने पर रोष आया और अनायास ही कह उठे,' अजीब बात है! विदेशियों की हर बात को सच मानने वाले हम भारतीयों में,कई लोग,अपनी प्राचीन धरोहरों के प्रति वैज्ञानिकतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाने की जगह अविश्वास भरे व्यंग्य का भाव रखते हैं।'  हमारी तरह पुरातत्ववेत्ता गंगाधर जी को भी यह खिल्ली उड़ाने का भाव नहीं जंचा। इसी लिए उन्होंने विरुपाक्ष मंदिर के कर्मचारी को एक नई सफ़ेद धोती लाने को कहा और उसे दीवार के आगे पर्दे की तरह टांग कर खड़े हो गए। " देख लीजिए इस पर कोई फ्लोरोसेंट पेंट तो नहीं लगा। नया कपड़ा है मगर मंदिर के शिखर की छवि वैसी ही सुनहरी और पूरी है।" आसपास खड़े लोगों गंगाधर जी के लिए ताली बजाई और उस व्यक्ति ने सिर झुका कर क्षमा मांगी।
"अपने पूर्वजों की विरासत की खिल्ली उड़ाने से पहले हमें अपने ज्ञान को ठीक से जांचना चाहिए। " मेरे इस वाक्य पर मेरे बेटे ने मेरे दोनों कंधों पर हाथ रख,धीरे से सहारा दिया! मैं जानती हूं मेरी नाराज़गी को ख़त्म करने का यह तरीका वो बचपन से अपनाता रहा है। बातचीत की दिशा दूसरी तरफ मोड़ते हुए उसने गंगाधर जी से सवाल किया,"अंकल हम छोटी कक्षाओं में पिनहोल कैमरा बनाते थे! मैं आज भी मोमबत्ती वाले उस प्रयोग का रोमांच नहीं भूल पाता मगर यहां विरुपाक्ष के इस मंदिर में,मेरी इस मंदिर की दिव्यता के प्रति श्रद्धा और बढ़ गई है क्योंकि बचपन के प्रयोग में भी हम 'बटर पेपरका प्रयोग करते थे। रोशनी उस से छन कर आती थी तभी सामने उल्टा बिंब बनता था। परंतु यहां तो छेद में ना कोई लेंस लगा है ना ही कोई और चीज़....फिर भी इस शिखर की सुनहरी छवि में इसकी उसकी बनावट और कला साफ़- साफ़ दिख रही है। " इसके बाद बेटे नें ऊपर जाकर छेद में से हाथ बाहर निकाल कर घुमाया । छेद को बंद करने पर कोई भी बिंब नहीं बन रहा था। पूर्वजों के इस चमत्कार को नमस्कार करउस कक्ष निकल कर हम एक बार फिर मंदिर के मुख्य मंडप की ओर मुड़ गए।वहां उत्सव का माहौल था। परंपरागत वाद्य-यंत्रों की ताल पर भक्ति भाव में डूबे लोगों के मधुर गायन को सुनना हमारे लिए अभूतपूर्व अनुभव था। 
विजयनगर का इतिहास बताता है कि सन् १५६५ में बीदर,बीजापुर,गोलकुंडा,बरार अहमदनगर के मुस्लिम आक्रमणकारियों नेइस स्थान की भारतीय स्थापत्य कला की अद्वितीय कलाकृतियों को सिलसिलेवार ढंग से तोड़ने का कार्य किया। परंतु---- सोलहवीं  शताब्दी में भयानक विध्वंस का शिकार बने इस नगर के निवासियों नें अपने आराध्य " विरुपाक्ष-पंपा" से जुड़ी अपनी आस्थाओं और धार्मिक परंपराओं निरंतर जीवित रखा।
विरुपाक्ष मंदिर में चलने वाली पूजा को कभी बंद नहीं होने दिया । आज भी विरुपाक्ष-पंपा का विवाहोत्सव और रथ यात्रा का पवित्र पर्व यहां फरवरी और दिसंबर के महीनों में अपने पारंपरिक हर्षोल्लास से  मनाया जाता है। 
विरुपाक्ष मंदिर से निकलकर हम हेमकूट की पहाड़ियों के उस भाग पर पहुंचे जहां सूचना- पट्ट पर 'सनसेट पॉइंटलिखा था। यहां आस- पास विजयनगर शैली से अलग प्राचीन शैली के लगभग35 मंदिर हैं।प्राचीनकाल के नगर की घेराबंदी करती पत्थरों की दीवारों के अवशेष अब भी यहां हैं। यहां के विशाल शैलों पर हमने एक जलहरी के भीतर पाँच शिवलिंग एक साथ देखे। इसमें हमें पांचों तत्वों की ऊर्जा के मेल से प्रवाहित होने वाली अनवरत जीवनधारा की प्रतीकात्मकता दिखाई दी। यहां के मंदिरों में पत्थर के सीधे सरल आकार पर पिरामिडनुमा छतें हैं। विजयनगर की स्थापना से पूर्व काल में जिन धार्मिक आस्थाओं का वर्चस्व रहा है ये छोटे- छोटे मंदिर उनकी ही कथा कहते हैं। हेमकूट  पहाड़ियों के निचले हिस्से में स्थित इन मंदिरों को "पंपापट्टी मंदिर" भी कहा जाता है।उस समय के लोगों नेपंपापति  अर्थात शिव को अपने स्थान के अभिभावक या कुलदेवता के रूप में स्वीकार किया था। बाद के शासकों ने भी इस परंपरा का सम्मान करते हुए उनके नाम से हम्पी में परिसर का निर्माण करवाया। पंपापति शिव की इस नगरी की यात्रा के अंतिम चरण में यह हमारा सौभाग्य था या ईश्वरेच्छा !! इन स्थानों को देखते समय हमने एक मंदिर के बाहर कुछ लोगों को देखा तो श्री गंगाधर नायक जी पूछ लिया कि क्या हम भी मंदिर में जाकर प्रणाम कर सकते हैं। उन्होंने "हां " कहा तो हम पत्थर की बड़ी- बड़ी सीड़ियों पर चढ़कर शिलाओं से बने मंदिर के प्रांगण में पहुंच गए। प्रांगण के स्तंभों पर और सामने के छोटे से कक्ष की दीवारों पर कोई अलंकरण नहीं था। मंदिर में शिवलिंग था। हमारा शिवानुरागी मन बाहर बैठे अपरिचितों को भूल गया था। केवल हम थे और हमारे आराध्य। हमने पूरे मन से शिवलिंग के सामने बैठकर कुछ क्षण पूजा की। अंदर स्थान इतना ही था कि एक समय मेंएक ही व्यक्ति बैठ सकता था।बिना पूजा सामग्री के मनसाःपूजा करने के बाद आंखें खोलकर उठे तो देखा एक महिला द्वार पर खड़ी थीं। हम उन्हें बाहर निकल पर अंदर आने की जगह देना चाहते थे परंतु उन्होंने हमारा हाथ पकड़ा औरअपनी बोली में कुछ कहा। मेरे ना समझने पर उन्होंने इशारे से पूछा,'क्या तुम भी इनकी पूजा करते हो।मेरे हाँ कहने पर वे बहुत खुश हुईं। इस बीच हमारे परिवार-जन और गंगाधर जी भी वहां आ गए थे।महिला को हमारा हाथ पकड़े देखकर बेटे ने वही नीचे से हमारी कुशलता पूछी। गंगाधर जी के साथ कुछ स्थानीय लोग शायद कन्नड़ में बात कर रहे थे। गंगाधर जी के कहा कि,"ये सब लोग एक ही कुटुंब के हैं  यह मंदिर इन के कुल देवता का हैआज इनकी विशेष पूजा है। ये पूछ रहे हैं कि क्या आप इनके साथ बैठकर प्रसाद खाएंगे!" हमने हाँ कहा और मंदिर की पास ही बहते जलस्रोत से हाथ धोकर वही नीचे बैठने लगे। मगर उनमें से कुछ महिलाएं हमेंहमारी बहू और पोती को मंदिर के प्रांगण में ले आईं।आंगन में बिठाकर पूरे स्नेह से उन्होंने हमें घर का बना सांभर-चावलरस्मपोंगल और पायस का प्रसाद पेटभर कर खिलाया। हम आपस में मिलकर बातें भी की। बातचीत कभी शब्दों से कभी इशारों से हुई पर पर  अपनेपन का माहौल बन गया। हमारी पोती नें कर्नाटक शैली में शिव वंदना गाई। गंगाधर जी ने जब उन्हें बताया कि गीत गाने वाली है बच्ची कैनेडा में पैदा हुई और वही रहती तो उन सबनें उसे आशीर्वाद दिया। उनमें एक व्यक्ति जो थोड़ी हिंदी-अंग्रेजी बोल रहे थे उन्होंने भावुक होकर कहा , " जान कर अच्छा लगा आपने बाहर भी अपने कल्चर को ज़िदा रखा है,यहां तो थोड़ा पढ़ लिख जाएं तो लोग अपने कल्चर को भूल जाते हैंअपने कल्चर पर शर्मिंदा होते हैं।"गांव के उन सीधे-सादे किसान भाई के इन शब्दों में हमने जिस सच्चाई और पीड़ा को देखा वो हम सब के समसामयिक समाज की चिंता भी है। 
बेल्लारी के गांव से आए इस कुटुंब में माह के बच्चे से लेकर 60 साल की आयु तक के 15 स्त्री पुरुष बच्चे थे ! भाषा की बाधा हमारे बीच कोई बाधा नहीं बनी! हम सब कुछ देर साथ रहेसाथ में फोटो खींची और फिर एक अपनापन लेकरगले मिलकर हमने उनसे विदा मांगी। उन्होंने अगली बार अपने गांव आने का निमंत्रण दिया तो हमें ऐसा लगा यह विदाई हम्पी ने दी हैंहमें परिवार का सदस्य बना कर.... एक अनकहे रिश्ते में बांधकर फिर आने का वचन लेकर !! 

   होटल पहुंचकर हम सब कर्नाटक के ही बड़े नगर हुबली जाने के लिए सामान बांधने में जुट गए।भोर होने से पहले ही हमें अपने अगले सफर पर निकलना था। इन तैयारियों के बीच में हम सब की बातचीत घूम फिर कर "हम्पी" पर ही आकर ठहर रही थी। ऐसा होना स्वाभाविक ही था क्योंकि "हम्पी" नें हमें, एक साथ कई युगों की भूली-बिसरी परंतु लोक-परंपरा व लोक-संस्कृति में रची बसी,अपनी जीवंत भारतीय विरासत से जोड़ दिया है। स्कंद पुराण,विष्णु पुराण का "पंपा सरोवर" ; जो प्रमाण देता है कि सती ने पुनर्जन्म लिया, पंपा के रूप में। शिव को पाने के लिए , इसी पर्वतीय क्षेत्र की गुफा में तपस्या की जो पहले से अनेक ऋषियों की तपस्थली थी। उनके तपोबल को स्वीकार कर शिव विरुपाक्ष रूप में इसी धरा पर आए। उनके विवाह के समय ऐसी स्वर्ण-वर्षा हुई कि ये भूमि आध्यात्मिक उत्कर्ष के साथ-साथ भौतिक समृद्धि से परिपूर्ण हेमकूट में बदल गई। पंपा और पंपापति के अलौकिक प्रभाव को स्वीकार, यहां रहने वाले जन समुदाय ने उन्हें अपने कुल देवता एवं कुल देवी के रूप मेंअधिष्ठित किया। हेमकूट पर्वत पर मिलने वाले हजारों छोटे बड़े मंदिर और उनमें होने वाली पूजा- अर्चना आज भी इस घटना का गुणगान कर रहे हैं।
"त्रेतायुग" में,विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखलाओं से लेकर पूरे भारतीय प्रायद्वीप में एक सघन वन का वर्णन मिलता है जिसका नाम था---- "दण्डक-वन"। मेरा दृढ़मत है कि इस वन में रहने वाले निवासियों को ही "वानर" कहा जाता था। और यहीं किष्किंधा का विशाल क्षेत्र कहलाता था "वानर-राज्य"।अध्यात्म रामायण,वाल्मीकि रामायण से चली आई राम कथा की परंपरा में, सीता की खोज में राम और लक्ष्मण "पंपा सरोवर" के तट पर शबरी का आतिथ्य स्वीकार कर किष्किंधा में रुके। रामकथा के "किष्किंधा कांड"का समग्र घटनाक्रम यहीं घटित हुआ था। माल्यवान, ऋष्यमूक,मातंग अंजनाद्री की पर्वत श्रेणियां हेमकूट की ही तरह अनेक साक्ष्यों के साथ उस युग का प्रामाणिक इतिहास सुनाती हैं। द्वापर युग के "महाभारत" के "सभा पर्व" में ,किष्किंधा की पर्वत गुफाओं को वानरराज्य के राजा मैंद और द्विविद का निवास स्थान कहा गया है। पहाड़ियों पर भग्नावशेषों के रूप में मिलने वाले विशाल पत्थरों की दीवारें , हमें किसी दुर्ग की सीमा-रेखा के पुरावशेष सी लगती हैं। 
सन् 2009 में हुए शोध कार्यों में पुरापाषाण युग के औज़ार मिलने के बाद , मानवीय बस्तियों का इतिहास इस स्थान को लगभग 74 हज़ार वर्ष पूर्व से जोड़ता है। - - - - और तुंगभद्रा के किनारे एवं विजय नगर में मिलने वाले शैल-चित्र, गुफा-चित्रों और पुरातात्विक प्रमाणों से लगभग 34 हज़ार वर्ष पूर्व की पत्थर के धारदार उपकरणों (स्टोन ब्लेड्स एंड टूल्स)को बनाने की कुशलता दिखाई देती है! "पत्थर की कुल्हाड़ी संस्कृति" (स्टोन एक्स कल्चर) के ढेरों प्रमाण इस स्थान को "पुरा-ऐतिहासिक" काल क्रम से जोड़ देते हैं।
इन युगों के पुरावशेषों के बाद वर्तमान युग के इतिहास की यात्राओं के विभिन्न पड़ावों 
के अवशेष , चीनी मिट्टी और हस्तनिर्मित मिट्टी और विभिन्न धातुओं के उपकरणों,  बर्तनों आदि से अपने  प्रमाण देते हैं ! 
दूसरी और तीसरी शताब्दी से सम्राट अशोक, सम्राट विक्रमादित्य द्वितीय के शिलालेख, धातु अभिलेख,भवन और भवनों के भग्नावशेष सभी इसकी प्राचीनता की घोषणा करते हैं। 
इतिहास "विजयनगर " को, संगम राजवंश की स्थापना करने वाले हरिहर व बुक्का राय द्वारा गुरुऋषि विद्यारण्य के सम्मान में "विद्यानगर" के रूप में भी जानता है। कुछ इतिहासकारों के अनुसार बाद में,अपनी विजयों से जोड़कर इसे "विजयनगर" का नाम दिया गया। संगम, शाल्व,तुलुव, अराविडु आदि राजवंशों ने इसको बड़े साम्राज्य के रूप में प्रतिष्ठित किया। 
और----  बर्बर विध्वंस को सहने के बाद लुप्तप्रायः विजय नगर के अवशेष "हम्पी" से प्राप्त हुए। हम्पी से प्राप्त विजय नगर के अवशेषों में, उसकी अप्रतिम, अभूतपूर्व स्थापत्य कला में भारतीय परंपरागत भवन निर्माण संबंधी शास्त्र , धर्म, शिल्प-कला, वास्तुकला आदि के साथ साथ उन्नत तकनीक और वैज्ञानिकता का ऐसा अद्भुत सम्मिश्रण दिखाई देता है जो चमत्कृत करता है ।तभी तो सारी दुनिया नें हमारी इस अनुपम विरासत को विश्व धरोहर माना है |

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