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गुरुवार, 19 सितंबर 2019

कुंवर नारायण जी के जन्मदिवस पर....🖋️

श्री कुंवर नारायण जी" हमारे सम्मुख "आत्मजयी" के उस कवि के रूप में पहली बार जगमगाते मणिदीप से उभरे थे जब, कठोपनिषद के अपने प्रिय पात्र "नचिकेता" को समसामयिक परिवेश में खड़े होकर सामाजिक मान्यताओं को चुनौती देते देखा था। सत्तर के दशक के अंतिम कालखंड में खड़े हम भी कुछ निरुत्तरित प्रश्नों से जूझ रहे थे इसलिए "आत्मजयी" के नचिकेता में शायद हम स्वयं को खोज रहे थे।----
उसके बाद "तार सप्तक" के तीसरे सप्तक के इन विशिष्ट साहित्यकार कुंवर नारायण जी को "वाजश्रवा के बहाने " में भी हमनें उपनिषदों के मौलिक व्याख्याता के रूप में अधिक जाना। दो पीढ़ियों के बीच संवाद और समन्वय स्थापित करती उनकी कविताओं को चाहे हिंदी साहित्य को खेमेबाज़ी का शिकार बनाने वाले 
'विद्वतजन' , किसी भी खेमे में डालने की साज़िश करें हमें उनका साहित्य इन  सबसे अलग ही पहचान बनाता नज़र आया है।
उन की रचनाशीलता में भारतीयता और वैश्विकता दोनों हैं! उनका काव्यग्रंथ ‘कुमारजीव’ कुमारजीव नाम के उस  अर्द्ध-भारतीय मूल के, चौथी शताब्दी के अनुवादक-विद्वान की गाथा कहता है जिन्होंने संस्कृत-पालि बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया था।बौद्ध परंपरा को स्वर देता है-  ‘कुमारजीव’, ‘सरहपा’ नाम के सिद्धों पर काव्य रचना करने वाले कुंवर जी हमारी दृष्टि में भारतीयता के कवि होने के साथ-साथ समकालीन परिवेश पर प्रश्न और समाधान को भी लेखन का विषय बनाते रहे।
हमारा सौभाग्य है कि "कुंवर नारायण जी" को समर्पित आज के दिन, "सलीम आरिफ़ जी" (जिनका कुंवर नारायण जी के परिवार से घनिष्ठ संबंध है) के सानिध्य में हमें कुंवर जी के व्यक्तित्व के कुछ अनसुने पहलू भी पता चले। इस संध्या में श्री अपूर्व नारायण, सुश्री मृणाल पांडे जी एवं श्री प्रताप भानु मेहता जी के भावाकर्षक व्याख्यानों नें नचिकेता, वाजश्रवा और कुमारजीव के माध्यम से श्री कुंवर नारायण जी के चिंतन के नए आयाम भी सामने रखे।
सलीम आरिफ़ जी को एक बार फिर हार्दिक आभार जिन्होंने "तार सप्तक" के उस दौर का रास्ता दिखाया जहां हम सन् सत्तर के दशक में खड़े थे....पद्मभूषण, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी जैसे पुरस्कारों से सम्मानित कुंवर नारायण जी की "आत्मजयी" एवं " वाजश्रवा के बहाने " जैसी काव्यकृत्तियों के साथ
          उजास : कुंवर नारायण
तब तक इजिप्ट के पिरामिड नहीं बने थे
जब दुनिया में पहले प्यार का जन्म हुआ
तब तक आत्मा की खोज भी नहीं हुई थी,
शरीर ही सब कुछ था
काफ़ी बाद विचारों का जन्म हुआ
मनुष्य के मष्तिष्क से
अनुभवों से उत्पन्न हुई स्मृतियाँ
और जन्म-जन्मांतर तक खिंचती चली गईं
माना गया कि आत्मा का वैभव
वह जीवन है जो कभी नहीं मरता
प्यार ने शरीर में छिपी इसी आत्मा के
उजास को जीना चाहा!
एक आदिम देह में
लौटती रहती है वह अमर इच्छा
रोज़ अँधेरा होते ही डूब जाती है वह
अँधेरे के प्रलय में और हर सुबह निकलती है
एक ताज़ी वैदिक भोर की तरह पार करती है
सदियों के अन्तराल और आपात दूरियाँ
अपने उस अर्धांग तक पहुँचने के लिए
जिसके बार बार लौटने की कथाएँ
एक देह से लिपटी हैं !! 
                     -*-*-*-*-
आज "श्री कुंवर नारायण जी" के जन्मदिवस पर हम उनको भावभीनी श्रद्धाँजलि अर्पित करते हैं।

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