भारतीय संस्कृति में माघ-पूर्णिमा का महत्वपूर्ण स्थान है। पूरे एक महीने तक किए गए कल्पवास की पूर्णाहुति माघी पूर्णिमा के स्नान के साथ होती है। वैदिक - पौराणिक आख्यानों में इसकी आध्यात्मिक, सामाजिक, वैयक्तिक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। संगम-तट प्रयागराज तथा नदियों के किनारे बालूतट पर पर्ण कुटी बना कर केवल - स्वाध्याय, दान-पुण्य को समर्पित ये * कल्पवास *, मेरी दृष्टि में भारतीय जीवन में सद् ज्ञान, परस्पर सहायता, आध्यात्मिकता, परमार्थ हेतु दान और अर्जित भौतिक साधनों के त्याग के लिए तत्परता के उन मूल्यों का सृजन करता था जो एक स्वस्थ समाज की आधारशिला है।
मानवतावादी मूल्यों की परंपरा को पुष्ट करने वाले कल्पवास की बात आज के समय में की जाए तो उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाण, चीनी यात्री ' ह्वेन-सांग ' के यात्रा विवरण में मिलता है। जो सम्राट हर्षवर्धन के शासन- काल में (617-647 ई.) के समय भारत आया था। सम्राट हर्षवर्धन ने ह्वेन-सांग को अपना अतिथि बनाया था। सम्राट हर्षवर्धन उन्हें अपने साथ तमाम धार्मिक अनुष्ठानों में ले जाया करते थे। ह्वेन-सांग ने अपने वर्णनों में माघ पूर्णिमा के विषय में बताते हुए लिखा है , " सम्राट हर्षवर्धन प्रयाग के त्रिवेणी तट पर एक बड़े धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेते थे जहां वो बीते सालों में अर्जित अपनी सारी संपत्ति विद्वानों पुरोहितों, साधुओं, भिक्षकों, विधवाओं और असहाय लोगों को दान कर दिया करते थे। "
माघी-पूर्णिमा मानव जीवन में जिस समरसता का संदेश लेकर आती है , उसी प्राणी मात्र के प्रति समभाव और समरसता का प्रसार इस दिन जन्मे " संत रविदास" नें किया।
माघी-पूर्णिमा के पावन पर्व और " मन चंगा तो कठोती में गंगा " का सशक्त उदघोष करने वाले " संत शिरोमणि रविदास जी" की जयंती पर सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏 🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🙏
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