दो मई, भाई-बहनों में सबसे छोटे पर लाड भी अधिक होता है पर - - - - हम बड़े अधिकार भी ज़्यादा जमाने लगते हैं। बचपन में ये कहां समझ आता था कि उसकी बातों में भी कोई तथ्य,कोई समझदारी हो सकती है ! उसे हम सब जापानी गुड़िया कहते, सजाते, संवारते।
बड़े होने पर वो हमारी सहेलियों को कैसे मान से बताती थी, "दीदी मेरी फ़्राक और दूसरी ड्रेसेज़ खुद बनाती हैं और इन्होंने मुझे कोई ड्रेस, एक ही डिज़ाइन वाली दुबारा नहीं पहनाई। " अब भी याद आता है माँ, जिनको मैं बहुत समय तक "ईए" (मातृभाषा में माँ ) कहकर बुलाती थी। ऊषी के लिए कपड़े सिलती देखती तो हमेशा मुस्कुरा कर कहतीं, "वैसे सिलाई नहीं सीखने के लिए अपने पिताजी से शिकायत करेगी और बहन के कपड़े सीने रोज़ मशीन लेकर बैठ जाएगी, कढ़ाई, फ़्रिल, स्मॉकिंग, पैचवर्क----इन सबमें पढ़ाई का वक्त बर्बाद नहीं होता ?"
आज हमें याद आ रहा है वो समय, जब ऊषा नें अपने शौक के कारण सिलाई सीखी तो उसनें सबसे पहले हमारे लिए एक रानी रंग की सलवार-कमीज़ और फ़िरोज़ी रंग का चूड़ीदार पजामा-कुर्ता बनाया। वे इतने सुंदर बनाए कि हम कॉलेज में जब उनको पहनते थे तो कोई भी मानने को तैयार नहीं होता था कि वे घर में बने हैं और उनको हमारी छोटी बहन नें बनाया है।
उसके हर काम में प्रवीणता रहती थी----बस----
हमसे विदा मांगे बिना जाने का ढंग बहुत अकुशलता से भरा था।
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