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बुधवार, 6 मई 2020

☀️ मंगलदीप और सूरज ☀️

          ३ मई २०२० को जम्मू-कश्मीर में भारतीय नागरिकों की सुरक्षा को सर्वोपरि मानते हुए भारत के शूरवीर सैनिकों नें अपना प्राणोंत्सर्ग किया। संंपूर्ण भारत नें , आतंकवादियों से जूझते हमारे सुरक्षाकर्मियों को अश्रुपूरित कृतज्ञ श्रद्धासुमन समर्पित किए।
आज का दिन भी आतंकवाद पर भारतमाता के वीर सपूतों की विजय के उद्घोष से गुंजायमान है। कोविड-१९ का यह विश्व महामारी का कठिन समय नें , भारतीय सुरक्षाकर्मियों के सामने कोरोना के वायरस के साथ-साथ आतंकवाद के वायरस से निपटने का दायित्व भी सौंपा है जिसे वे बखूबी निभा रहे हैं। 
उनकी राष्ट्रनिष्ठा एवं निष्काम सेवा के कोटि-कोटि अभिनंदन व आभार के लिए हमारी शब्दाँजलि के भावपुष्प   -🌷🌷🌷🌷

           मंगलदीप और सूरज

देशहित में  दी शहादतों को निजी स्वार्थों  से जोड़ती भीड़ को लाँघ ,
निरुत्तरित सवालों की बाड़ के उस पार पहुँची हूँ मैं  – - 
उस ठाँव , जहां घर के आँगन में जतन से लगाया गुलमोहर का पेड़,
अपनापे से भर, सबको देता है केसरिया फूलों भरी हरी छतनार छाँव ।
इस घर के इकलौते बेटे नें , उस युवा सैनिक नें , सीमा से भेजी थी पाती ,
पाती में  लिखा था - - जल्दी लौटूँगा , मत घबराना मेरी माँ !
गोद में  सिर रखकर मेरे बालों  में अपनी जादूभरी ऊँगलियाँ फिराना माँ ,
सपनों  वाली दुनिया में  खो जाऊँ तो बेशक - - चुपचाप उठ जाना माँ !
उस दिन से , तेल-कटोरी हाथ में  लिए, बार-बार उँगलियाँ भिगोती है माँ ,
झूठ कहते हो तुम सब कि सो गया है मेरा लाल, सबको कहती है माँ,
पथराई आँखों  से पंथ निहारती - अपने  से बतियाती है छोड़ कर सारे काज,
आया नहीं अब तक क्यों मेरा चंदा , मेरा लाल  !!
पाती में  लिखा था - - जल्दी लौटूँगा , तैयार रहना मेरे बाबा,
अपने पक्के घर का सपना –अब ये बहादुर बेटा सच करेगा बाबा ,
हाँ शतरंज की बाज़ी में अब आपसे ‘कोई’ नहीं डरेगा बाबा !!
उस दिन से – कच्चे घर के आँगन में, बान की चारपाई बिछाते हैं बाबा ,
शतरंज की गोटों को सजाते हुए अकसर बुढ़ापे की लाठी भूल जाते हैं बाबा ,
काली-सफ़ेद मोहरों को सीने से लगा –घबराते, सोचते है छोड़ कर सारे काज ,
आया नहीं अब तक क्यों मेरा शेर ,मेरा लाल  !!
पाती में  लिखा था - - जल्दी लौटूँगा जीवन साथी – मेरी संगिनी ,
मेंहदी, बिंदिया, चूड़ियाँ ,पायल और लहरिया ओढ़नी पहन मेरी संगिनी,
भूला नहीं - पहली तीज है अपनी , सज-धज कर रहना तैयार मेरी संगिनी ,
झूला झुलाऊँगा - जब सावनी शाम मधुर मदिर रस बरसाता आएगी मेरी संगिनी !!
उस दिन से –बेमौसम भी बरसे मेघा तो – पीपल पर झूला डालती है शाम को- संगिनी ,
लाख समझाओ – दुल्हन बन बैठी वो बिरहन, पूछे यही सवाल छोड़ कर सारे काज,
आया नहीं अब तक क्यों मेरा साथी ,मेरा अखंड !!
जादूभरी माँ की उँगलियाँ ,बाबा की शतरंज की बिसात ,बिरही दुल्हन की बरसती शाम,
लौट कर आने वाले अपने प्यारे की आहटों को सूनी आँखों से सुनते हैं छोड़कर सब काम , 
देश का आज सुरक्षित रखने को अपना कल लिख दिया इन्होंने हम सबके नाम,
इन कच्चे घरों के मज़बूत हौसलों ने कब माँगे अपनी कुरबानी का दाम ??
पर हम तो शीश झुका नमन कर, शहीदों का,उनके परिवारों का करें दिल से सम्मान , 
संध्या-दीपक की रौशनी उन तक पहुँचाएँ जिन घरों के मंगल दीप सबके सूरज बने हैं आज * * * * !!

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