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सोमवार, 1 जून 2020

गंगा दशहरा

।। देवि सुरेश्वरि भगति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरलतरंगे ।।
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       गंगा मैया, भारतीय संस्कृति में पूजनीय देवी के रूप में सम्मानित हैं। उनके धरती पर आने का कारण चाहे जो भी रहा हो - कोई श्राप या किसी दुखी इंसान की याचना। गंगा के अवतरण के विषय में पौराणिक आख्यान तीन कथाएँ प्रस्तुत करते हैं।
एक आख्यान "वामन-अवतार" से जुड़ी है। असुर सम्राट महाराजा बलि नें यज्ञ के पश्चात ब्राह्मणों को मनोवांछित वस्‍तुएँ दान किया था। इसमें भगवान विष्णु नें वामन ब्राह्मण का भेष धारण किया और  महाबलि के पास प‍हुँचे। महाबलि को इस बात का बोध था कि उनके समक्ष स्‍वयं भगवान विष्णु उपस्थित हैं क्‍योंकि वहाँ उपस्थित उनके गुरु शुक्राचार्य ने विष्‍णु को पहचान लिया था। गुरु शुक्राचार्य जी नें महाराजा बलि को इसके प्रति सावधान कर दिया था। दानवीर महाबलि ने अपने वचन को निभाते हुए वामन से मनचाही भिक्षा माँगने  का आग्रह किया। वामन ने उनसे तीन पग भूमि माँगी।सत्य जानने के बाद भी राजा ने तीन पग भूूमि देनें का वचन दे दिया। वामन ने विशाल आकार धारण कर लिया --त्रिविक्रम का !  त्रिविक्रम ने प्रथम पग में पूरी धरती माप ली, दूसरे पग में पूरा आकाश मापा। जब तीसरे क़दम के लिए कुछ शेष ना बचा तो दानवीर राजा महाबलि ने अपना शीश आगे कर दिया। दानवीर महाबलि की सत्यपरायणता से प्रसन्न त्रिविक्रम नें अपना पग महाबलि के शीश पर रख उसेे पाताल लोक का राजा बना कर भेज दिया। कहते हैं जब त्रिविक्रम नें अपना पग से आकाश नापा तब ब्रह्मा ने उन चरणों को धोया। विष्‍णु के भव्‍य रूप के चरणामृत को उन्‍होंने अपने कमण्‍डल में इकट्ठा कर लिया। यही पवित्र जल, "गंगा" कहलाया।
एक अन्य कथा के अनुसार , ब्रह्मा के संरक्षण में गंगा हँसते-खेलते बड़ी हो रही थी। एक दिन ऋषि दुर्वासा ब्रह्मलोक पहुंचे। महर्षि दुर्वासा जब वहां स्‍नान करने लगे, तभी हवा का तेज झोंका आया और उनके कपड़े उड़ गए। यह सब देख पास ही खड़ी बालिका गंगा अपनी हंसी को रोक नही पाई। क्रोधित दुर्वासा ऋषि ने गंगा को धरती पर नदी होकर रहने का श्राप दिया। 
अन्य प्रसंग में  दुर्वासा ऋषि का श्राप तब फलित हुआ जब सगर के प्रपौत्र भगीरथ की तपस्‍या से प्रसन्‍न होकर ब्रह्मा ने गंगा के धरती पर अवतरण की भगीरथ की मनोकामना पूरी कर दी।  शक्तिशाली नदी गंगा यह निर्णय करके स्‍वर्ग से उतरीं कि वे अपने प्रचण्‍ड वेग से धरती पर थाउतरेंगी और रास्‍ते में आने वाली सभी चीजों को बहा देंगी परंतु लोक कल्याण के लिए शिव नें गंगा को अपनी जटाओं में बांध लिया। भगीरथ ने शिव को मनाया और फिर उन्‍होंने गंगा को धीरे-धीरे अपनी जटाओं से स्वतंत्र किया---- गंगा भगीरथी के नाम से धरती पर आईं। भगीरथ के पूर्व जों की राख को पावन करते हुए गंगा ने जह्नु मुनि के आश्रम को जलमग्न कर दिया। क्रोधित मुनि ने गंगा को बांध दिया। एक बार फिर भगीरथ नें मुनि से गंगा को मुक्‍त करने हेतु प्रार्थना की---- गंगा बाहर आईं और वो जाह्नवी कहलाईं। इस तरह से गंगा का धरती पर बहना शुरू हुआ और लोग अपने पाप धोने उसमें पवित्र डुबकी लगाने लगे।
ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को भारत वर्ष की धरती को शस्य-श्यामला बनाने वाली गंगा की कथा को जानने के बाद हमें सदा यही लगा कि भारतीय इतिहास के द्वापर युग के प्रारंभिक समय में समस्त प्रजा को राजा अपनी संतान मानता था। तभी तो अपने प्रपितामह राजा सगर के पुत्रों के रूप में प्राप्त साठ हजार लोगों व अपने समय की प्रजा के कल्याण के लिए गंगा से सीधे अवध प्रांत में अवतरित होने का भी अनुरोध ना करके, उन्होंने गंगा को गंगोत्री से गंगा-सागर तक ले जाकर - - - - लगभग आधे भारत को सुख-समृद्धि बरसाने वाली वरदायिनी गंगा प्रदान की।
भारतीय जनमानस में माँ गंगा का रूप सदा ही दैवीय रहा है - तीन नेत्र (भूत, भविष्‍य और वर्तमान को देखते), रत्नाभूषणों से सुशोभित,  अर्द्धचन्‍द्र, चार भुजाएं, एक हाथ में कमल का फूल और दूसरे हाथ में कलश।तीसरा हाथ अभयमुद्रा में एवं चौथा वरदायी। 
 देवी गंगा, मकर की सवारी करती हैं जो आधे मगरमच्छ और आधी मछली के आकार मिथकीय जीव माना जाता है । (मेरी कल्पना तो उसे गंगा की सूस/ डॉल्फिन मानती है जिसका संस्कृत नाम शिंशुमार/मकरकटि है ) कहा जाता है कि गंगा की धारा स्‍वर्ग, धरती और पाताल तीनों लोकों में प्रवहमान है। 
  

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