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बुधवार, 24 जून 2020

पं श्रद्धाराम शर्मा फिल्लौरी जी को श्रद्धाँजलि 🙏

पं. श्रद्धाराम शर्मा /श्रद्धाराम फिल्लौरी जी (३० सितंबर १८३७ --२४ जून १८८१) लोकप्रिय आरती ओम जय जगदीश हरे के रचयिता हैं। इस आरती की रचना उन्होंने १८७० में की थी। वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ, ज्योतिषशास्त्री, तथा भारतीय संस्कृति के संरक्षक थे। 
हिन्दी और पंजाबी के प्रसिद्ध साहित्यकार श्रद्धाराम शर्मा जी नें अपनी विलक्षण प्रतिभा और ओजस्वी वक्तृता के बल पर पंजाब में ब्रिटिश शासन के धार्मिक प्रचार के विरुद्ध नवीन सामाजिक चेतना एवं धार्मिक उत्साह जगाया जिससे आगे चलकर आर्य समाज के लिये भी  उर्वर भूमि मिली।पं॰ श्रद्धाराम की विद्वता, भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था। वे हज़ारों लोगों के मध्य जब भी जाते अपनी लिखी "🕉️ जय जगदीश " की आरती अपनी मधुर वाणी में गाकर सुनाते। आरती सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे। आरती के बोल लोगों के हृदय में ऐसे घर कर गए कि आज कई पीढ़ियों के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है।
सन् १८७७ में इनका "भाग्यवती" नामक उपन्यास प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल१८८७ में हिन्दी की मासिक पत्रिका "प्रदीप" में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक और साहित्यकार पं. रामचंद्र शुक्ल ने पं॰श्रद्धाराम शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। उनका मानना था कि, " हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है।" 
पं श्रद्धाराम शर्मा जी की रचनाएँ :---
(क) संस्कृत - (१) नित्यप्रार्थना (शिखरिणी छंद के ११ पदों में ईश्वर की दो स्तुतियाँ)। (२) भृगुसंहिता (सौ कुंडलियों में फलादेश वर्णन), यह अधूरी रचना है। (३) हरितालिका व्रत (शिवपुराण की एक कथा)। (४) "कृष्णस्तुति" विषयक कुछ श्लोक, जो अब अप्राप्य हैं।
ख) हिंदी - (१) तत्वदीपक (प्रश्नोत्तर में श्रुति, स्मृति के अनुसार धर्म कर्म का वर्णन)। (२) सत्य धर्म मुक्तावली (फुल्लौरी जी के शिष्य श्री तुलसीदेव संगृहीत भजनसंग्रह) प्रथम भाग में ठुमरियाँ, बिसन पदे, दूती पद हैं; द्वितीय में रागानुसार भजन, अंत में एक पंजाबी बारामाह। (३) भाग्यवती (स्त्रियों की हीनावस्था के सुधार हेतु प्रणीत उपन्यास)। (४) सत्योपदेश (सौ दोहों में अनेकविध शिक्षाएँ) (५) बीजमंत्र ("सत्यामृतप्रवाह' नामक रचना की भूमिका)। (६) सत्यामृतप्रवाह (फिल्लौरी जी के सिद्धांतों और आचार विचार का दर्पण ग्रंथ)। (७) पाकसाधनी (रसोई शिक्षा विषयक)। (८) कौतुक संग्रह (मंत्रतंत्र, जादूटोने संबंधी)। (९) दृष्टांतावली (सुने हुए दृष्टांतों का संग्रह, जिन्हें श्रद्धाराम अपने भाषणों और शास्त्रार्थों में प्रयुक्त करते थे)। (१०) रामलकामधेनु ("नित्य प्रार्थना' में प्रकाशित विज्ञापन से पता चलता है कि यह ज्योतिष ग्रंथ संस्कृत से हिंदी में अनूदित हुआ था)। (११) आत्मचिकित्सा (पहले संस्कृत में लिखा गया था। बाद में इसका हिंदी अनुवाद कर दिया गया। अंतत: इसे फिल्लौरी जी की अंतिम रचना "सत्यामृत प्रवाह' के प्रारंभ में जोड़ दिया गया था)। (१२) महाराजा कपूरथला के लिए विरचित एक नीतिग्रंथ (अप्राप्य है)।
(ग) उर्दू - (१) दुर्जन-मुख-चपेटिका, (२) धर्मकसौटी (दो भाग), (३) धर्मसंवाद (४) उपदेश संग्रह (फिल्लौरी जी के भाषणों आदि के विषय में प्रकाशित समाचारपत्रों की रिपोर्टें), (५) असूल ए मज़ाहिब (पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर के इच्छानुसार फारसी पुस्तक "दबिस्तानि मज़ाहिब' का अनुवाद)। पहली तीनों रचनाओं में भागवत (सनातन) धर्म का प्रतिपादन एवं भारतीय तथा अभारतीय प्राचीन अर्वाचीन मतों का ज़ोरदार खंडन किया गया।
(घ) पंजाबी - (१) बारहमासा (संसार से विरक्ति का उपदेश)। (२) सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ (यह ग्रंथ अंग्रेजों के पंजाबी भाषा की एक परीक्षा के पाठ्यक्रम के लिए लिखा गया था। इसमें कुछेक अनैतिहासिक और जन्मसाखियों के विपरीत बातें भी उल्लिखित थीं)। (३) पंजाबी बातचीत, पंजाब के विभिन्न क्षेत्रों की उपभाषाओं के नमूनों, खेलों और रीति रिवाजों का परिचयात्मक ग्रंथ)। (४) बैंत और विसनपदों में विरचित समग्र "रामलीला' तथा "कृष्णलीला' (अप्राप्य)।
फिल्लौरी जी की अधिकांश रचनाएँ गद्य में हैं। वे १८वीं शताब्दी उत्तरार्ध के हिंदी और पंजाबी के प्रतिनिधि गद्यकार हैं। उनके हिंदी गद्य में खड़ी बोली का प्राधान्य है। यत्रतत्र उर्दू और पंजाबी का पुट भी है। पंजाबी गद्य दो शैलियों में उपलब्ध है। "सिक्खाँ दे इतिहास दी विथिआ" में सरल, गंभीर तथा अलंकार विहीन भाषा का प्रयोग हुआ है। इसमें दोआबी और मालवी का मिश्रित रूप उपलब्ध होता है। "पंजाबी बातचीत" में मुहावरेदार और व्यंग्यपूर्ण भाषा। 
प्रारंभ में उन्होंने हिंदी काव्य रचना हेतु ब्रज को अपनाया था, किंतु खड़ी बोली को जनोपयोगी भाषा समझकर वे उस ओर प्रवृत्त हुए। उनके भजनों में खड़ी बोली ही व्यवहृत हुई है। 
"ॐ जय जगदीश हरे.... आज न केवल भारत में वरन् पूरी दुनिया भर के हिंदू घरों और मंदिरों में बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ गायी जाती है परंतु अधिकांश लोग नही जानते कि १५० वर्ष पूर्व रची गई, - - - - " ॐजय जगदीश की आरती " ये आरती अंग्रेजी शासन के विरुद्ध भारतीयों में एकात्मता-भाव को जगाने का महत्वपूर्ण सेतु बनी थी।
राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाले भारत माता के अमर सपूत को कृतज्ञतापूर्ण श्रद्धाँजलि 🙏

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