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मंगलवार, 2 जून 2020

हम कहाँ आ गए ?

आज हमारा मन बहुत व्यथित है ! यही विचार बार - बार उद्वेलित कर रहा है कि हम कहाँ आ गए हैं ? ?
यही सोच रहे हैं कि जिस देश की धरती पर, पौराणिक कथाओं में महाराजा दिलीप, गाय की प्राण- रक्षा के लिए सिंह के सम्मुख स्वयं को अर्पित करने, ग्राह से गज को बचाने के लिए नंगे पांव दौड़कर आने वाले भगवान विष्णु। भगवान बुद्ध के जन्म से लेकर जातक कथाओं में एक जन्म में हाथी से जुड़ी हैं। द्वितीय जैन तीर्थंकर स्वामी अजितनाथ जी के प्रतीक चिंह सफ़ेद हाथी व हाथियों से जुड़ी अन्य कथाएँ - - - -आदि अनेकानेक प्रसंग हैं। जिनकी कथाओं को बचपन से हम में से अधिकांश भारतीय, बचपन से अपनी स्मृतियों में जीवंत बनाए हुए हैं। 
.... इसी धरती पर मानव की मानवता ! मनुष्यों द्वारा प्राणिजगत एवं पर्यावरण के संरक्षण व सुरक्षा के नाम पर बनाई गई ढेर सारी संस्थाएं !! सभी प्रश्नचिन्ह बन कर हमारे सामने है ????  
हमारी आँखों के सामने तैर रहे हैं वे दृश्य चित्र - - - - तमिलनाडु के मदुरई प्रांत के विश्व - विख्यात मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर और कर्नाटक के वैश्विक धरोहर हम्पी के विरुपाक्ष मंदिरों में,वहां के मंदिरों के सजे-धजे हाथियों का कलात्मक श्रृंगार ! उनके चरण छूते श्रद्धालुओं की आस्था को अपनी सूंड के कोमल प्यार भरे स्पर्श से आशीर्वाद देती विनायकी , लक्ष्मी !! अपने सिर पर मंदिरों की वंदनीय हथनियों की वह ममतामयी छुअन - - - - जो अब तक हमें रोमांचित करती रही है आज हमसे प्रश्न कर रही है और हम सिर झुकाए शर्मिंदा हैं!!!! 
केरल ; सूंड उठाए दो गजराजों को राज्य का सरकारी चिन्ह बनाने वाली इस देवभूमि में पिछले सप्ताह एक गर्भवती हथिनी खाने की तलाश में मानव बस्तियों के खेतों की ओर आ गई थी। गर्भवती हथिनी को ने जो मिला उसने खा लिया। नहीं जानते, फसल बचाने के लिए या कुछ पर-पीड़न को मनोरंजन मानने वाले क्रूर लोगों ने खाद्य-पदार्थ के साथ उसे पटाखे रखकर खिला दिया। मुंह में फटने के कारण उस हथिनी का मुंह बुरी तरह घायल हो गया। गर्भवती हथिनी कुछ भी खाने में असमर्थ हो गई। 
मैं अपने मन में बार- बार एक रुलाने वाले, प्राणों को झकझोरने वाले दृश्य की कल्पना कर सोचती हूं - - - - इंसानों की उस बस्ती में वो गर्भवती माँ, अपने अजन्मे बच्चे को बचाने के लिए भूख से बचने के लिए और मुंह में घावों के दर्द और पीड़ा से बिलबिलाते हुए कितना चीखी चिल्लाई होगी ! पर उसकी करुण चीत्कारों से किसी इंसान की इंसानियत नहीं जागी। भूख-प्यास व असहनीय 
पीड़ा सहने के बाद उसकी मौत हो गई या उसने जल-समाधी ली !!  - - - - मौत हुई या बर्बर हत्या की गई एक अजन्मे शिशु व उसकी माँ की।
हमारी पूरी आस्था है कि "प्रकृतिः रक्षति रक्षिता" को आदिकाल से अपनाने वाली भारतीय संस्कृति में। आज के कोरोनावायरस के समय में, जब विश्व भी इस भारतीय जीवनमूल्य को समझ भी रहा है और अपना भी रहा है ऐसे में आवश्यकता है कि हमें अपनी धरती पर सभी जीवों के प्रति सामाजिक संवेदनशीलता के प्राचीन मूल्य को पुनः जगाने और बढ़ाने की  ताकि मानव जाति प्रकृति के संतुलन को बनाए रख सके।

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