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शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

🪔अंडाल जयंती एवं आदिपूरम 💐

अंडाल जयंती एवं आदिपूरम का अभिनंदन! 
दक्षिण भारत की विश्वविख्यात आलवार भक्त कवयित्री "आंडाल", राजस्थान की कृष्णभक्त मीराबाई से लगभग आठ शताब्दी पूर्व विक्रमी संवत ७७० में तमिल माह "आदि" के पूरम (पूर्वा फाल्गुनी) नक्षत्र जन्मी थीं। श्रीविल्लीपुत्तूर में रहने वाले आलवार भक्त  विष्णुचित्त जिन्हें लोग श्रद्धापूर्वक "पेरियालवार"कहते थे (तमिल में पेरियालवार का अर्थ है-महान आलवार) उन  की पालिता पुत्री थी-अंडाल ।
पेरियालवार ज्ञानी और संवेदनशील विष्णुभक्त थे। अपनी कुटिया के आगे उन्होंने एक सुंदर उद्यान लगाया था। ब्रह्ममुहूर्त में उठकर वे अपनी फुलवारी से ताज़े फूल तोड़कर अपनेे आराध्य केे लिए फूलों की माला स्वयं तैयार करते थे।भगवान की पूजा-अर्चना और महिमा गायन ही उनका नित्यकर्म था। सदा की तरह पुलकित मन से फूल तोड़ते समय वे भावों में डूबकर भगवान की महिमा का गान कर रहे थे।अचानक उनको तुलसी के पौधे के नीचे देखा तो उनके अचरज का ठिकाना न रहा। वहां एक नवजात बच्ची पड़ी हुई थी। फूल की तरह उस कोमल बच्ची को उन्होंने पुलकित हो तुरंत गोद में उठा लिया।
वे शीघ्रता से मंदिर गए और भगवान की मूर्ति के सामने उस बच्चीी को रखकर कहने लगे, "हे प्रभो, मैं आज एक अनूठा फूल तुम्हारे लिए लाया हूं। यह बच्ची तुमने दी है, तुमको ही भेंट करता हूं।"
पिता नें जिस नन्ही बालिका को फुलवारी में तुलसी के पौधे के निकट पाया था उसे नाम दिया - गोदा। तमिल में 'गोदा' शब्द का अर्थ होता है-'फूलों की माला-सी सुन्दर'। यह कन्या पूरी तरह विष्णु भक्ति में ही तल्लीन थी। भक्तराज की पुत्री होने के कारण गोदा के मन में भक्ति के संस्कार प्रारंभ से ही प्रस्फुटित हो गए। फूल तोड़ना, माला गूंथना, पूजा की सामग्री जुटाना आदि सब कामों में वो पिता की मदद करती। पिता जब गाते, तब वह भी उनके साथ गाती। भगवान की आराधना के सिवा बाप-बेटी को और कोई काम नहीं था। धीरे-धीरे गोदा ने यह मान लिया कि उसका जन्म व जीवन केवल भगवान के लिए है। वो दिन-रात भगवान का ही चिंतन-मनन करती।
कहते हैं , एक दिन मंदिर के पुजारी ने गोदा के पिता से कहा, "आपकी माला भगवान की पूजा के योग्य नहीं है, क्योंकि किसी ने उसे पहनकर अपवित्र कर दिया है।" पेरियालवार को इस पर सहसा विश्वास नहीं हुआ, लेकिन उन्होंने कुछ कहा नहीं। ताजे फूलों की दूसरी माला तैयार की और भगवान को चढ़ा दी। लेकिन फिर वही बात हुई। जो माला वह घर से पूजा के लिए ले गये थे, उसे लेने से पुजारी ने फिर इन्कार कर दिया। यही नहीं, उसने माला में से एक बाल निकालकर दिखाते हुए कहा, "आप स्वयं देख लीजिये। इस माला को किसी ने पहना है। "
पेरियालवार यह सुनकर चिंता में पड़ गए। भगवान को चढ़ाई जानेवाली माला कौन पहन सकता है! माला तो गोदा तैयार करती है।वो तो पहनेगी नहीं, फिर बात क्या है ?प्रभु की यह कैसी माया है ! इस तरह के विचार उनको चिंंतित करते थेे। एक दिन पेरियालवर नहा-धोकर मंदिर जाने के लिए तैयार होकर उन्होंने गोदा को आवाज़ दी, "बेटी, माला तैयार हो गई क्या?"लेकिन कोई उत्तर नहीं मिला। पेरियालवार ने झांककर देखा तो स्तब्ध रह गये। पुजारी के कथन की सच्चाई उनकी आंखों के आगे थी। गोदा शीशे के सामने बैठी थी। भगवान के लिए जो माला उसने तैयार की थी, वह उसके गले में झूल रही थीं वह उस माला को देखती, उसकी शोभा को निहारती, धीरे-धीरे कुछ बुदबुदाती जा रही थी।पेरियालवार ने झुँझलाकर नाराज़गी से कहा, "अरी नासमझ ! तू यह क्या कर रही है?"
गोदा का ध्यान भंग हुआ। वह चौंकी, फिर पिता को देखकर तुरन्त संभल गई। गले से माला निकालते हुए वह बोली, "कुछ नहीं पिताजी, देखिये, आज मैंने कितनी सुन्दर माला बनाई है!"
निश्छल, भोली-भाली गोदा के इस उत्तर नें पिता को क्रोधित कर दिया।शायद जीवन में पहली और अंतिम बार उन्हें क्राध आया था।"तूने सर्वनाश कर डाला! भगवान की माला पहनकर अपवित्र कर दी। ऐसी मूर्खता आखिर तूने कैसे की?"
गोदा इतनी भोली थी कि पिता के क्रोध से डरने के बदले खिलखिलाकर हंसकर बोली, "पिताजी, आप इतने नाराज क्यों होते हैं ? आज यह कोई नई बात तो नहीं है। मैं तो रोज ही माला गूंथती हूं और पहनकर देख लेती हूं कि अच्छी बनी या नहीं। जो माला मुझे ही नहीं जंचेगी, वह भला हमारे ईश्वर को कैसे पसन्द आयेगी?"
पेरियालवार ने गोदा का यह जवाब सुनकर अपना सिर पीट लिया—"इस मूर्ख से बात करना व्यर्थ है। भगवान मुझे कभी क्षमा नहीं करेंगे। महीनों से मैं अपवित्र माला ही उनको चढ़ाता रहा हूं। आखिर दोष मेरा ही है। प्रभु के लिए माला तो मुझे स्वयं अपने हाथों से गूंथनी थी! " इतना कहते -कहते वह बहुत अशांत हो उठे और शीघ्रतापूर्वक जाकर नई माला गूंथने लगे, क्योंकि पूजा का समय पास ही था।
पिता का ऐसा रूप देखकर गोदा को लगा कि उस से कोई बड़ा अपराध हो गया। वह पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ी-की-खड़ी रह गई। बड़े यत्न सेे तैैयार की माला उसके हाथ से छूटकर नीचे जा गिरी। इतनी सुन्दर माला पाकर भगवान कितने प्रसन्न होंगे,यही सोचकर वह मगन थी ! लेकिन यह क्या हो गया अचानक ! उसके माला पहन लेने मात्र से भगवान क्यों नाराज होने लगेे ! यह सोचते-सोचते वो दुखी हो गई । इसी बीच पेरियालवार ने दूसरी माला तैयार कर ली। वह गोदा से कुछ बोले बिना ही मंदिर चले गये। उसको साथ चलने के लिए भी नहीं कहा। यह देखकर उसकी आंखों में आंसू उमड़ आये। बड़ी देर तक वो सामने पड़ी हुई माला को अपने आंसुओं से भिगोती रही।
पेरियालवार दिन-भर बहुत ही उदास रहे। कुछ खाया-पिया भी नहीं। रात में बड़ी देर तक उनको नींद नहीं आई। अर्द्धरात्रि के बाद जब उनकी आंख लगी तो उन्होंने एक सपना देखा। श्रीरंगम के शेषशायी भगवान रंगनाथ उनसे कह रहे थे, "भक्तराज, व्यर्थ क्यों दुखी होते हो! तुमने कोई अपराध नहीं किया है। मैं गोदा के प्रेम के वश में हूं। उसकी पहनी हुई माला मुझे बहुत प्रिय है। आगे से मुझे वही भेंट करना!"
विष्णुभक्त पेरियालवार आनन्दातिरेक से गदगद् हो उठे। उन्होंने भगवान के चरणों में दंडवत प्रणाम करने की चेष्टा की, तो सहसा उनकी आंख खुल गई। वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। उन्होंने उसी समय गोदा की ओर देखा जो चटाई पर सो रही थी।  पेरियालवार दीपक के मंद प्रकाश में एकटक उसको देखते रहे। उन्हें सहसा ख्याल आया कि इसने भी आज दिन-भर कुछ खाया-पिया नहीं होगा। स्नेह और करुणा का सागर उनके हृदय में लहराने लगा। तुरंत उन्होंने गोदा को जगाया और आनंद के आंसू बरसाते हुए बोले, "बेटी, तू धन्य है! तेरे कारण आज मैं भी धन्य हो गया। अभी स्वयं भगवान ने मुझे दर्शन दिये हैं। अब मैं जान पाया कि तूने उन्हें अपने प्रेम के वश में कर लिया है। गोदा की जगह आज से मैं तुझे आंडाल कहूंगा।" बस, गोदा उसी समय से आंडाल के नाम से प्रसिद्ध हुई। 'आंडाल' शब्द का अर्थ होता है—'अपने प्रेम से दूसरे को वश में करनेवाली'।
संयोग की बात कि उसी रात भगवान ने मंदिर के पुजारी को भी सपने में आदेश दिया कि आगे से गोदा की पहनी हुई माला को लेने से इन्कार न करे। आंडाल की कीर्ति सब ओर फैलने लगी।
आंडाल जब सयानी हुई तो भगवान के प्रति प्रेम-भाव की गहनता के कारण वह कुमारी कन्या की तरह भगवान के साथ अपने ब्याह की कल्पना करने लगी। वह रहती थी श्रीविल्लीपुत्तूर में, लेकिन उसका मन सदा गोकुल की गलियों और वृन्दावन के कुंजों में विहार करता था। वह सोचा करती कि कृष्ण ही मेरे दूल्हा हैं और उन्हीं के साथ मेरा ब्याह होगा। भावविभोर होकर वह कृष्ण की लीलाओं का गान करने लगती। उस समय उसके मुंह से अपने-आप नए-नए पद निकलने लगते। ये मधुर पद ही 'तिरुप्पावै' और 'नाच्चियार तिरुमोलि' के पद कहलाये।
एक रात आंडाल ने सपना देखा कि भगवान कृष्ण के साथ उसके ब्याह का समय समीप आ गया है। धूमधाम से उसके विवाह की तैयारियां हो रही हैं और मण्डप सजाया जा रहा है। सवेरे जागने पर उसने यह बात अपनी सखियों से कही। विवाह के अवसर पर जो प्रथाएं उन दिनों प्रचलित थीं, उन पर कई मधुर पद रच डाले। आज भी तामिलनाडु में विवाह के मंगल अवसर पर वे पद गाये जाते हैं।
पेरियालवार को एक रात भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, "भक्तराज, आंडाल अब विवाह-योग्य हो गई है। उसको लेकर श्रीरंगम के मन्दिर में आओ। मैं उसका पाणिग्रहण करूंगा।"
पेरियालवार अपने आराध्य का आदेश कैसे टाल सकते थे! भगवान की धरोहर भगवान को सौंप दी जाय, यह उनके लिए बड़ी प्रसन्नता की बात थी। उन्होंने यात्रा की तैयारियां शुरू कर दीं।
मदुरै में उन दिनों पांड्य राजा राज करते थे। एक रात उन्हें भगवान ने स्वप्न में आदेश दिया कि वह आंडाल को श्रीविल्लीपुत्तूर से श्रीरंगम् ले आएं। इसी तरह का स्वप्न श्रीरंगम के मंदिर के पुजारियों को भी आया फिर क्या था,सभी ने श्रीविल्लीपुत्तूर आकर विष्णुप्रिया आंडाल के चरणों की धूल को अपने सिर और धारण किया।  राजसी धूमधाम से उसकी सवारी निकली। वे सजी-सजाई दुलहिन की भांति डोली में बैठी। पेरियालवार एक सजे हुए हाथी पर बैठे भगवान की महिमा गाते जा रहे थे। आगे-पीछे रथों, हाथियों, घोड़ों और पैदल सैनिकों की लंबी कतारें थीं। तरह-तरह के बाजे बज रहे थे। दसों दिशाओं से लोगों की भीड़ उमड़ रही थी। रास्तों के किनारे लोग छतों पर से फूलों की वर्षा कर रहे थे। ऐसा लगता था, मानो कोई राजकुमारी अपने पति के देश जा रही हो।
मीलों की यात्रा करके वह जुलूस श्रीरंगम पहुंचा। कावेरी के किनारे पर स्थित भगवान रंगनाथ के मंदिर के सामने जाकर वह रुका। आंडाल डोली से उतरी। उसने मंदिर के गर्भ-गृह में प्रवेश किया। शेषशायी भगवान रंगनाथ की मूर्ति को देखते ही वह रोमांचित हो उठी। वे मौन चित्रलिखित सी श्रीरंगनाथ को देखती रह गईं। थोड़ी देर बाद वे आगे बढ़ी और भगवान के चरणों में बैठ गई। लेकिन यह क्या ! लोगों ने दूसरे ही क्षण चकित होकर देखा कि आंडाल वहां नहीं है। वह सबके देखते-देखते अदृश्य हो गई। भगवान की मूर्ति में समा गई। भक्ति-भाव की यह चरम सीमा है, जब भगवान और भक्त एकाकार हो जाते हैं।
"आंडाल " भारत की महान भक्त-कवयित्री हैं। उत्तर भारत में जिस तरह मीरा के पदों का प्रचार है, उसी तरह दक्षिण भारत में आंडाल के पद घर-घर गाए जाते हैं। दक्षिण के हर विष्णु मंदिर में उनकी प्रतिमा प्रतिष्ठित है। भक्तगण श्रद्धा और भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करते हैं तथा उनकी रचनाओं का गायन करते हैं। 
भक्त आंडाल रचित "तिरुप्पावै " के पद 'प्रभाती' या 'जागरण-गीत' जैसे हैं। उनमें कुछ सखियों द्वारा दूसरी सखियों, कृष्ण और नन्दगोप आदि को जगाने का वर्णन है।यह एक पौराणिक आख्यान पर आधारित है। कहते हैं कि एक बार, गाँव के बड़े-बुजुर्गों नें श्रीकृष्ण जी की लीलाओं से अप्रसन्न होकर गोकुल की गोपिकाओं को कृष्ण से मिलने की मनाही कर दी थी। लेकिन उन्हीं दिनों अकाल पड़ा। वर्षा के अभाव में हरियाली सूख गई। पशु मरने लगे। वर्षा के लिए गोकुल के किशोर- किशारियों के समूह नें "माता कात्यायनी व्रतोत्सव" मनाने का निर्णय लिया। रूठे हुए श्रीकृष्ण तो बड़े-बूढ़ों की बात सुनने वाले नहीं थे, इसलिए उनको मनाने के लिए गोपिकाओं को कहा गया। इस तरह गोपिकाओं को कृष्ण से मिलने की छूट देनी ही पड़ी। वे बड़े उछाह से एक-एक कर सखियों को जगाती हुई कृष्ण के पास पहुंची और उनको उत्सव की सफलता के लिए मना लिया। आंडाल के 'तिरुप्पावै' की रचना का मूल-आधार यही पौराणिक कथा है।'तिरुप्पावै' के सभी पद बड़े सरल, मधुर और गेय हैं। वे मन को रसमय कर देते हैं। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में भी 'तिरुप्पावै' के पद गाये जाते हैं।
उनकी दूसरी रचना "शूडिकोडुत्त नाच्चियार तिरुमोलि" में आँडाल के १५३ फुटकर पदों का संग्रह है।'शूडिकोडुत्त नाच्चियार' का अर्थ है, 'पहले माला पहनने वाली रमणी' और 'तिरुमोलि' का अर्थ है 'दिव्य वाणी'। आंडाल भगवान से पहले स्वयं माला पहन लेती थी, उसी का संकेत यहाँ पर है। आंडाल की यह दिव्य वाणी सचमुच अनुपम है। मीरा की भाँति वे भी श्रीकृष्ण को अपना पति मानती थी। उसके मन में जब भी जो भाव उठते थे, उन्हें वह पदों का रूप दे डालती थी। उनके किसी पद में प्रेम व श्रृंगार की प्रबलता है तो किसी में विरह की व्याकुलता। किसी पद में वे कृष्ण को उपालंभ देती हैं तो किसी में मिलन का विश्वास प्रकट करती हैं।
आंडाल की भक्ति और वैदिक दर्शन की गहरी पैंठ हमें उनके काव्य में सर्वत्र दिखाई देती है !
अपने "तिरुप्पावै " के चौथे पासुर(पद) में आंडाल कहती हैं कि ब्रह्मांड की हर वस्तु एक-दूसरे पर निर्भर करती है। हम स्वतंत्र नहीं हो सकते हम प्रकृति पर निर्भर हैं और प्रकृति हम पर निर्भर है। हम देवता पर निर्भर हैं और देवता हम पर निर्भर हैं।देवता हमारे आस-पास कुछ ऐसी शक्ति हैं, जो हमारी इन्द्रियों की पहुँच से परे हैं और जो पृथ्वी पर हमारे जीवन का देते हैं। जैसे प्रकाश, गर्मी, ठंड आदि। उनका स्वरूप कैसा होगा, यह एक अलग विषय है लेकिन हम प्राकृतिक शक्तियों का ध्यान रखते हैं और वे हमारा ख्याल रखते हैं। दुर्भाग्य से, हम प्रकृति की देखभाल नहीं कर रहे हैं। वे हमेशा हमारी मदद कर रहे हैं हालांकि हम उनका शोषण कर  रहे हैं। हमारे पूर्वजों का सिद्धांत रहा है कि अच्छी तरह जियो और दूसरों को भी जीने दो। जब कोई व्यक्ति अच्छा होता है, तो उसके लिए सब कुछ अच्छा होता है और जब व्यक्ति बुरा होता है, तो उसके लिए सब कुछ बुरा होता है। बिल्कुल रंगीन कांच की तरह। हमें अपने अस्तित्व में सहयोग करने के लिए सभी देवों की आवश्यकता है।इस गीत में गोदा प्रकृति से सामंजस्य का उपदेेशदेती हैं। वे कहती हैं न केवल प्रकृति बल्कि देवता भी हमारे साथ होंगे। देवता का अर्थ भगवान नहीं होता है। बहुत से भगवान नहीं हो सकते। क्या आकाश, वायु, जल आदि शब्दों को बहुवचन बनाना होगा ? इसी प्रकार, ईश्वर भी एक विलक्षण शब्द है। यह बहुवचन नहीं हो सकता है। यदि देवता कई हैं, तो वर्चस्व-युद्ध होंगे। कई देवता हैं, पर ईश्वर केवल एक ही है। देवता सिर्फ एक अन्य श्रेणी के हैं जिन्हें हमारी समझ से परे शरीर दिया जाता है।अपने कर्मफलों का अनुभव करने के लिए आत्मा को शरीर दिया जाता है।
अपने में विशद ज्ञान छिपाए तिरुप्पावै को 'वेदम अनाथुकुम विठ्ठुम' कहा जाता है, अर्थात यह वेदों का बीज है। जैसे  संपूर्ण वृक्ष और उससे आने वाले फल फूल  सूक्ष्म बीज में छिपे होते हैं, वैसे ही वेदों का पूरा सार तिरुप्पावै में छिपा है।
भूदेवी का अवतार मानी जाने वाली, आलवार भक्त आंडाल के "आदि पूरम" पर सब को हार्दिक शुभकामनाएँ।
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