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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

भारतीय संविधान में नागरिकता और गुरुकुल।

🇮🇳 भारतीय स्वतंत्रता का अमृत-महोत्सव 🌷
भारतीय संविधान की मूल प्रति में भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को दर्शाते कई दृश्यों के चित्रांकन से इसका अलंकरण किया गया है। चित्रों का यह सुरुचिपूर्ण विन्यास संविधान के प्रणेताओं की उस संवेदनशीलता को दर्शाते हैं जिसके विषय में राजनीतिक शास्त्रियों का मानना है कि वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी राष्ट्र की व्यवस्था लिखित कानूनों, नियमों और अलिखित परंपराओं के अनुसार ही चलती है। 
"त्रीणि राजाना विदथें परि विश्वानि भूषथ:।।"(ऋग्वेद मं-३ सू-३८/६)
 भारतीय आदि ग्रंथ ऋग्वेद के तीसरे मंडल के सूक्त में कहा गया है कि राजा और प्रजाजन मिल कर, सुख प्राप्ति और विज्ञान की वृद्धि करने वाले राज्य के व्यवहार हेतु तीन सभाओं- विद्यार्य्यसभा, धर्मार्य्य सभा एवं राजार्य्यसभा नियत करके समग्र प्रजा को सब ओर से विद्या, स्वतंत्रता, धर्म, सुशिक्षा और धनादि से अलंकृत करें।
भद्रमिच्छन्त ऋषयः स्वर्विदस्तपो दीक्षामुपनिषेदुरग्रे। ततो राष्ट्रं बलमोजश्च जातं तदस्मै देवा उपसंनमन्तु ॥ (अथर्ववेद १९/१४/१)
वैदिक राष्ट्र जिसको स्वर्गिक जीवन जीने वाले ऋषियों ने भद्र इच्छा से पहले तप और फिर दीक्षा की शरण ली। उसके बाद राष्ट्र, राष्ट्रीय बल और राष्ट्रीय तेज उत्पन्न हुए। ए देवजनों! इन तीनों को प्राप्त करो और एक होकर इन्हे नमन करो। भारतीय राष्ट्रीय व्यवस्था अपने कलेवर में राजतंत्र न होकर गणतांत्रिक व्यवस्था थी। लोकतंत्र की अवधारणा वेदों की देन है। गणतंत्र शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में चालीस बार, अथर्व वेद में नौं बार और ब्राह्मण ग्रंथों में अनेक बार किया गया है।
ऋग्वेद में सभा और समिति का वर्णन है जिनके सदस्य पुरुष और स्त्री दोनों होते थे। राजा सभा व समिति के मंत्रियों और विद्वानों से विचार-विमर्श करने के बाद ही कोई निर्णय लेता था। वैदिक काल में इंद्र का चयन भी इसी आधार पर होता था। इंद्र नाम का एक पद होता था जिसे राजाओं का राजा कहा जाता था।  
मेरा निजी मन्तव्य यह है कि भारतीय संविधान की हस्तलिखित मूलप्रति में, शांतिनिकेतन के विश्वविख्यात चित्रकार श्री नंदलाल बोस जी और श्री व्यौहार राम मनोहर सिंहा जी की सिद्धहस्त तूलिका से उकेरे गए अप्रतिम चित्रों के माध्यम से, भारतीय संस्कृति को जानना, पहचानना अत्यंत आवश्यक है क्योंकि ये चित्र भारतीय संविधान की मूल आत्मा को समझने का सबसे सशक्त माध्यम हैं । 
इन चित्रों में से एक चित्र है- "भारतीय गुरुकुल का। " संविधान में, "नागरिकता" के अंतर्गत गुरुकुल का चित्रांकन किया गया है। इस भाग की विषय वस्तु और चित्र से भारतीय मनीषा का यह सत्य पुनः सामने आता है कि किसी व्यक्ति या समाज की समायोजित प्रगति के लिए शिक्षा को केंद्रीय धुरी है। वैदिक गुरुकुल के इस चित्र को देख कर, जो विचार मेरे चित्त में उभरआए हैं  उनका फलक अत्यंत विस्तृत है। - - - - भारतीय संस्कृति के आदिकाल से ज्ञान के मूल स्रोत रहे ऋग्वेद में, गुरु को वाचस् अर्थात उच्च ज्ञान से परिपूर्ण माना जाता रहा है परंतु वैदिक गुरु के लिए आचार्य की संज्ञा का प्रयोग अधिक हुआ है। इसका कारण मेरे दृष्टिकोण में, आचार्य के व्यक्तित्व में ज्ञान के साथ-साथ आचरण या व्यवहार की शुद्धता को महत्व देने की ओर इंगित करते हैं क्योंकि भारतीय परंपरा में गुरु, स्वयं को शिष्य के सर्वांगीण विकास के लिए उत्तरदायी मानते थे। 
साहित्य के विद्यार्थी होने के कारण गुरुकुलों में जन्मे शब्दों नें अपने प्रारंभिक अर्थों से रूढ़ अर्थों तक पहुंचने की अपनी यात्रा में हमारे सामने गुरुकुल का एक स्वरूप निर्मित किया है वैदिक- पौराणिक विवरणों और वर्तमान के गुरुकुलों के अनेक चित्रों नें इन शब्दचित्रों से जुड़कर आँखों के सामने वैदिक कालखंड से द्वापर युग तक के महान गुरुओं के आश्रमों का जो जीवंत स्वरूप उभारा वो भारतीय लोकचित्त का सामाजिक दायित्वों अर्थात नागरिकता के प्रति जागरूक दस्तावेज है।
"भारतीय गुरुकुल" ज्ञान का ऐसा केंद्र था जहां आने वाले हर बालक-बालिका को "छात्र" अर्थात गुरु की छत्रछाया में रहने वाला कहा गया। छात्र, माता-पिता के पद, जाति, वैभव, कुल से दूर केवल गुरु के कुल का, गुरु के वंश का होकर विद्या प्राप्ति के लिए समर्पित रहता था। वो विद्या +अर्थी बनकर रहता था धन+अर्थी नहीं ! समाज के हर वर्ग के परिवार पूरे विश्वास से,अपनी संतान को ७-८ वर्ष की कोमल आयु से ज्ञान की परिपक्वता तक आचार्य के संरक्षण में भेज देता था। आचार्य जिनके आचरण का छात्र अनुकरण करते हुए। कुशा एकत्र करते हुए, अपनी एकाग्रता से, अपने हाथ को चोट पहुंचाए बिना उनका संग्रह कर कुशाग्र बनते ! वीणा बजाने में अपनी महारत से प्रवीण बनते ! श्रम की गरिमा को समझते ! गुरुकुलों के लिए आर्थिक  आपूर्ति समाज व शासक का दायित्व था। भिक्षाटन, आश्रम के गोधन, खाद्य उत्पादों से भी जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। शिक्षा की समाप्ति पर गुरुजन छात्र की सामर्थ्य के अनुसार गुरुदक्षिणा स्वीकार करते थे। वे तीन प्रकार के ऋणों से मुक्ति की बात अपने शिष्यों के सम्मुख रखते थे - पितृऋण, गुरुऋण तथा देवऋण। मैनें जब भी इन तीनों ऋणों पर विचार किया है तब मुझे यही सत्य प्रतीत हुआ कि हमारे गुरुओं नें ; "पितृ ऋण " से उऋण होने के लिए पारिवारिक उत्तरदायित्वों के निर्वहण का, "देवऋण"में सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण व संवर्द्धन का दायित्व और "गुरुऋण" में समसामयिक समाजिक व राष्ट्रीय मूल्यों के विकास व प्रसार की दिशा में पूरी जागरूकता से कार्यरत होने के संकल्प की सिद्धी को अपने शिष्यों के सम्मुख रखा था। गुरु अपने शिष्यों से इन ऋणों से मुक्त होने के प्रयास हेतु उत्प्रेरित करते थे। इस प्रकार गुरुकुल से शिक्षा प्राप्त करने वाला छात्र जब सर्वांगीण रूप से विकसित होकर समाज में एक प्रबुद्ध युवा के रूप में वापस लौटता तो वो  उत्तम नागरिक बनकर अपने उत्तरदायित्व निभाने को तत्पर हो जाता था। 
यहां कुछ गुरुओं व गुरुकुलों का उल्लेख हमें समीचीन लगता है। वास्तव में भारतीय गुरुओं की परंपरा के बारे में ज्ञात जानकारी के अनुसार यह सत्य भी सामने आता है कि गुरु शस्त्र और शास्त्र दोनों में पारंगत होते थे और समसामयिक परिस्थितियों के अनुसार नवीन अनुसंधानों से अपने शिष्यों को परिचित करवाते थे। योग्यता  को परिलक्षित कर हमारे ऋषियों नें अपना शिष्य ना होने पर भी उपयुक्त पात्र को विद्या प्रदान की ऐसे अनेक प्रमाण भी हमारे वेद-पुराणों में हैं। 
देवगुरु बृहस्पति अपनी शिक्षा और नीतियों के शिक्षण के साथ रक्षोघ्र मंत्रों के प्रयोग की शिक्षा देकर देव समाज को अपने पालन और रक्षण के लिए तैयार करते थे। देव-असुर संग्राम में देवताओं को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करते थे।दैत्यों को गुरु शुक्राचार्य से ज्ञान प्राप्त होता है।  मान्यता है कि भगवान शिव ने इन्हें मृत संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया था, जिसकी सहायता से वे यह मृत दैत्यों को पुन: जीवित कर देते थे। हालाकि गुरु शुक्राचार्य असुरों के गुरू थे परंतु कई बार इन्होंने देवों को भी विद्या दान दिया क्योंकि वही उनका कर्म और गुरुधर्म था। यहां तक कि देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने भी असुर गुरु शुक्राचार्य से ही  मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की थी।
परशुराम के शिष्यों में भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान विद्वानों और शूरवीरों का नाम शामिल है। परशुराम केरल के कलरीपायट्टु (मार्शल आर्ट) की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं आदि गुरु माने जाते हैं।
दशरथनंदन श्रीराम के गुरु बेशक ऋषि वशिष्ठ थे परंतु अस्त्र-शस्त्र विद्या ऋषि विश्वामित्र के आश्रम में और विभिन्न जीवनोपयोगी विद्याएं उन्होंने ऋषि अगस्त्य से सीखीं। 
कृष्ण-सुदामा जाति-वर्गभेद से परे संदीपनी ऋषि के शस्त्र और शास्त्रों के ज्ञान के लिए प्रसिद्ध गुरुकुल में, गुरुमाता की आज्ञा से लकड़ियां बीनते और भुने चने खाते हैं ! एक साथ रहते हैं परंतु अपनी योग्यता के अनुसार विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। 
पौराणिक युग के ऋषि धौम्य का गुरुकुल जहां देश-विदेश से छात्र वेद-वेदांग का अध्ययन करनेआते थे। उनके प्रख्यात शिष्य आरुणि और उपमन्यु ! बचपन में पढ़ी, गीताप्रेस की " गुरुभक्त बालक" पुस्तक के हमारे नायक ! शीत ऋतु में आरुणि आश्रम के खेत की टूटी मेढ़ को वर्षाजल में बहने से बचाने के लिए स्वयं लेट जाते हैं और चेतनाशून्य होने पर भी गुरु की आज्ञा पालन के कठिन व्रत का पालन करते हैं। दूसरे शिष्य उपमन्यु गुरु आज्ञा के पालन के लिए , भिक्षान्न को अन्य आश्रम - वासियों के लिए, गाय के दूध को बछड़ों के निमित छोड़कर अंत में आक के पत्तों का अनजाने में सेवन कर अंधे होकर कुएं में गिर जाते हैं। आचार्य धौम्य अपनी दिव्य दृष्टि से उनकी स्थितियां देख, द्रवित हो उठे थे। अन्य शिष्यों की सहायता से उन्होंने दोनों ही कुमारों को उनके संकट से उबारा और अश्विनि कुमारों से प्राप्त आयुर्वेद के ज्ञान का प्रयोग कर उन्हें पुनः निरोगी बना दिया। गुरुभक्त शिष्यों को ऋषि धौम्य नें वरदान में वेद-वेदांग का अनुपम ज्ञान दिया। 
गुरु-शिष्य की ऐसी कितनी ही अमर कथाएं गुरुकुल के अनुशासन, ज्ञान के व्यवहारिक उपयोग, पर्यावरण के हर जड़-चेतन तत्व के प्रति संवेदनशीलता, चरित्र निर्माण, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक गुणों के विकास की विरासत हम तक पहुंचाती रही हैं। इन सबके साथ ही हमने अनुभव किया है कि निरंतर व्यक्तिगत, सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों से जुड़े गुरुजन -
 " वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः" का गुरुमंत्र भी अपने शिष्यों को दे रहे थे। 
भारतीय नागरिकता को परिभाषित करने वाले संविधान के इस भाग में अलंकरण के लिए बनाए गए इस चित्र की पृष्ठभूमि में वृक्षों, वनस्पतियों से घिरा हरा-भरा पर्यावरण है जिसमें सरोवर और हंस है। विभिन्न पशु-पक्षी हैं। वैदिक काल के इस गुरुकुल में उपनिषदों का पाठ हो रहा है। वैदिक ऋषि द्वारा किए जा रहे हवन की प्रज्ज्वलित अग्नि भारतीय संस्कृति की चिरंतन ऊर्जा व प्रकाश की द्योतक है तो स्वाध्याय में निमग्न  होकर बैठा चिंतक, आध्यात्मिकता के तेज को भी दर्शाता है। मंदिर, कुटिया, सभामंच और पूरा परिवेश - - - - पुर अर्थात नगर का हित करने वाले, नागरिकों से,  राष्ट्र को जीवंत एवं जागृत बनाए रखने के संकल्प का उद्घोष करता है। यजुर्वेद की " वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः" प्रतिध्वनि को हम अपने भारतीय संविधान के नागरिकता के अध्याय के संदर्भ में समझें तो राष्ट्र के कल्याण के लिए, उत्तम नागरिकों के निर्माण लिए शिक्षा के महत्व को अवश्य स्वीकार करेंगे।

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